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Sunday, 22 December, 2024
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ज्ञानवापी मसले पर मोदी और भागवत के विचार मिलते हैं लेकिन इस पर संघ परिवार में क्या चल रहा है

ज्ञानवापी मस्जिद पर कानूनी फैसला आने में कुछ साल और लगेंगे इसलिए फिलहाल ऐसा लगता है कि मोदी सरकार और भाजपा इस मसले को ठंडे बस्ते में डालने का मन बना रही है.

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ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने ज्ञानवापी मस्जिद विवाद पर दोहरा रवैया अपनाने के फैसला कर लिया है. वाराणसी में तेज घटनाक्रम से उसने खुद को साफ तौर पर अलग कर लिया है, लेकिन इस मस्जिद के अंदर पाई गई चीजों को लेकर बवंडर खड़ा करने की जो कोशिशें कट्टरपंथी हिंदू कर रहे हैं उसे रोकने की प्रत्यक्ष या परोक्ष कोशिश उसने नहीं की है.

मोदी सरकार के आठ साल पूरे होने के जश्न के लिए आयोजित समारोह में भाजपा के आला नेता और ताकतवर मंत्री ज्ञानवापी मसले से दूरी बनाते दिखे. मस्जिद में पूजा करने के अधिकार को लेकर वाराणसी में जो कानूनी लड़ाई चल रही है उस पर पूछे गए सवाल के जवाब में भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह एक ही सुर में बोलते दिखे कि ‘मसले का फैसला अदालत ही करेगी.’ जब एक केंद्रीय मंत्री से वाराणसी की अदालत में कुछ हिंदुओं की ओर से दायर याचिकाओं के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था, ‘लोगों को अदालत में जाने से हम रोक नहीं सकते.’

ज्ञानवापी मसला सोशल मीडिया पर लीक किए जा रहे वीडियो आदि के जरिए धीरे-धीरे परवान चढ़ाया जाता रहा है. इसने इतनी गरमी पैदा कर दी है कि लोग दिसंबर 2021 में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के उदघाटन को भी लगभग भूल गए हैं. शायद इस वजह से भी ज्ञानवापी मसले को भाजपा के दिग्गज टाल रहे हैं.

केंद्र सरकार ने भी इस मसले पर किसी मंच से कुछ नहीं कहा है. गौरतलब है कि ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर सर्वे करवाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर मामले में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से वकालत कर रहे सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने 17 मई को कोर्ट में मौखिक बयान दिया कि ‘मान लीजिए, विवादित स्थान पर शिवलिंग पाया जाता है और कोई उसे पैर से छूता है, तब कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा हो जाएगी.’

उनके इस बयान से यह अंदाजा मिलता है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार इस मसले पर क्या नजरिया रखती है. इसमें हिंदुओं की भावनाओं का ख्याल रखने की बात की गई है. वह यह कि ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर वज़ूखाना में अगर शिवलिंग होने की संभावना है, तो मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने से पहले पैर धोने की जरूरी क्रिया वहां नहीं करनी चाहिए. उत्तर प्रदेश सरकार का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने ‘शिवलिंग वाले क्षेत्र को सुरक्षित रखने’ का जो निर्देश दिया है उससे कानून-व्यवस्था को बनाए रखने में मदद मिलेगी.

यानी फिलहाल मोदी सरकार और भाजपा इस मसले पर सावधानी बरतेगी क्योंकि इसको लेकर जारी कानूनी लड़ाई का अंतिम फैसला आने में अभी कुछ और साल लगेंगे.

यहां तक कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी सरकार के रुख का अनुमोदन करते हुए इस मसले पर पहली बार अपनी टिप्पणी करते हुए 2 जून को कहा कि ‘हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों ढूंढना?’ अपने कुछ उग्रपंथी समर्थकों को नाराज करने का खतरा मोल लेते हुए भागवत ने कहा कि संघ इन मसलों पर कोई और आंदोलन शुरू करने के पक्ष में नहीं है.

भागवत का यह बयान जयपुर में भाजपा पदाधिकारियों को वीडियो संदेश के जरिए दिए गए मोदी के बयान से मिलता जुलता ही है. मोदी ने अपने पार्टी के नेताओं से ‘विकास के मुद्दे से ही जुड़े रहने’ और विरोधियों के जाल में न फंसने की हिदायत दी.


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1991 के कानून से नाराजगी

इस बीच, संघ परिवार की भगवा जमात ‘उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) आधनियम, 1991’ के खिलाफ यह धारणा मजबूत करने की कोशिश में जुटा है कि यह कानून भारतीय न्यायिक समीक्षा व्यवस्था के मानकों के विपरीत है. कोई कानून किसी नागरिक को अदालत में अपील करने से रोक कैसे सकता है? यह सवाल कई लोगों को परेशान कर रहा है. जब सांस्कृतिक धरोहरों के स्थानांतरण के अधिकार को दुनियाभर में मान्यता दी गई है, तो भारत में सांस्कृतिक धरोहर पर दावे के अधिकार को खारिज कैसे किया जा सकता है? कई लोग उक्त कानून के इस प्रावधान पर सवाल उठा रहे हैं जिसमें मनमाने तरीके से 15 अगस्त 1947 को कट-ऑफ तारीख घोषित कर दिया गया है कि सभी पूजा स्थलों का स्वरूप वही अंतिम माना जाएगा जो इस तारीख को उसका स्वरूप था, और कोई भी अदालत उसके स्वरूप को बदलने की अपील दाखिल नहीं कर सकता.

ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर और बाहर बहुत तेजी से जो घटनाएं घटी हैं उससे कई प्रेक्षक आश्चर्य में हैं. एक पूर्व महंत कुलपति तिवारी ने याचिका दायर करके दावा किया है कि मस्जिद में वजूखाना का मालिक वह है और उसमें पाए गए ‘शिवलिंग’ की पूजा करने का उसे अधिकार है. मुस्लिम पक्ष का कहना है कि वह एक बेकार हो चुका झरना है.

वाराणसी के गंगा घाट पर धरारा मस्जिद और लाल भैरव मस्जिद की उत्पत्ति पर सवाल उठाते हुए अलग से दो याचिकाएं दाखिल की गई हैं. एक हिंदू याचिकाकर्ता ने अपील की है कि ज्ञानवापी परिसर में शृंगार गौरी मंदिर ‘प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल तथा अवशेष अधिनियम, 1958’ के अंतर्गत है इसलिए उसे 1991 वाले अधिनियम के दायरे से बाहर किया जाए. गौरतलब है कि अंजुमन इंतजामिया मस्जिद मैनेजमेंट के याचिकाकर्ता और हिंदू याचिकाकर्ता भी वाराणसी की जिला अदालत में अपने-अपने दावों के समर्थन में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 1942 के एक ही फैसले का हवाला दे रहे हैं.

1942 का फैसला, एक अहम दस्तावेज़

ज्ञानवापी मस्जिद के स्वामित्व को लेकर एक हनफ़ी मुस्लिम दीन मुहम्मद बनाम सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मुकदमे का फैसला 10 अप्रैल 1942 को आया. इसमें कहा गया कि मस्जिद का निर्माण औरंगजेब के हुक्म पर एक हिंदू मंदिर को गिराकर किया गया. इस मुकदमे के फैसले ने प्लॉट नंबर 9130, जिस पर मस्जिद खड़ी है, को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच 1809 से 1942 तक के विवाद का पूरा ब्योरा दर्ज किया है इसलिए यह ज्ञानवापी विवाद के इतिहास की निर्देशिका जैसी है. 1942 का फैसला यह भी बताता है कि दीन मुहम्मद ने अदालत का दरवाजा क्यों खटखटाया था.

फैसले में कहा गया है— ‘1935 में, बनारस के जिला मजिस्ट्रेट ने फैसला किया कि मुसलमानों को मस्जिद के ऊपरी चबूतरे के बाहर जमा होने की और ‘ज्ञान बाफ़ी’ मस्जिद के अहाते में नमाज़ पढ़ने की किसी भी हालत में इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. वे सिर्फ मस्जिद की इमारत के अंदर या उसके ऊपर ही नमाज़ पढ़ सकते हैं.’ इसके बाद स्थानीय एसपी ने मुसलमानों को नमाज के लिए अहाते के अंदर या मस्जिद के चबूतरे पर इकट्ठा होने से मना कर दिया.

पुलिस कार्रवाई ने दीन मुहम्मद और दूसरे सुन्नी मुसलमानों को ज्ञानवापी के प्लॉट के मालिकाना का फैसला करवाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने पर मजबूर किया क्योंकि नमाज पढ़ने के उनके कानूनी अधिकार का उल्लंघन होता था. लेकिन उन्हें केवल मस्जिद के गुंबद और उसके नीचे के स्थान पर ही सीमित मालिकाना दिया गया. चूंकि फैसले में उन्हें साफ तौर पर पूरे प्लॉट का मालिकाना नहीं दिया गया इसलिए वे रमज़ान में जुम्मे के दिन अलविदा नमाज़ मस्जिद के बाहर के हिस्से में नहीं पढ़ सकते थे. इसलिए उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की.

1942 में, दीन मुहम्मद की अपील खारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि “जुम्मे की नमाज के लिए मुसलमान बड़ी तादाद में जानबूझकर इकट्ठा हुए क्योंकि हाल के वर्षों में वे इस जमीन पर अपना दावा कायम करना चाहते हैं, और 1929 या 1930 में उनकी तादाद इतनी ज्यादा हो गई कि दोस्श्रे लोगों को असुविधा होने लगी.” फैसला मुसलमानों के खिलाफ गया लेकिन दोनों पक्ष इसे अलग-अलग तरह से लेते हैं क्योंकि मस्जिद के वजूद और नियंत्रण पर विवाद नहीं है और फैसले में हिंदू मंदिर के वजूद को भी दर्ज किया गया है.


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विवाद : कानूनी, धर्मिक और राजनीतिक

पूरी बहस इस एक सवाल के इर्दगिर्द घूमती है कि ‘उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991’ ज्ञानवापी मस्जिद पर लागू होता है या नहीं?

1991 के अधिनियम में कहा गया है कि ‘उपासना स्थलों के ‘धार्मिक चरित्र’ को बदला नहीं जा सकता. इसकी कट-ऑफ तारीख 15 अगस्त 1947 है, जब देश आज़ाद हुआ. लेकिन हिंदू याचिकाकर्ता अदालत से सवाल कर रहे हैं कि अगर 1991 के अधिनियम के मुताबिक ‘धार्मिक चरित्र’ को बदला नहीं जा सकता, तो हम पहले यह तो जान लें कि प्लॉट नंबर 9130 का धार्मिक चरित्र क्या है.

अब मसला अदालत के सामने है और ‘तथ्य के प्रश्न’ बनाम ‘कानून के प्रश्न’ का द्वंद्व उभर आया है. यहां, एक संभावना पूजास्थल के ‘मिश्रित’ चरित्र की की भी है.

कई विशेषज्ञों का मानना है कि इस विवाद पर 1947 से पहले आए कई अदालती फैसलों को देखें तो लगेगा कि अंजुमन इंतजामिया मस्जिद की प्रबंध कमिटी ने हड़बड़ी में अदालत का दरवाजा खटखटा दिया है. लेकिन मुस्लिम समुदाय में यह भावना घर कर रही है कि कहीं 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस जैसी घटना फिर न हो जाए.

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद जितना कानूनी है उतना ही धार्मिक भी है और राजनीतिक भी.

लेकिन हिंदू याचिकाकर्ता बहस को इस एक सवाल की ओर मोड़ने में लगे हैं कि इस प्लॉट का धार्मिक चरित्र क्या है? अगर इसका स्पष्ट जवाब नहीं मिलता तो ज्ञानवापी पर 1991 का अधिनियम कैसे लागू होगा?

(शीला भट्ट दिल्ली की वरिष्ठ पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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