scorecardresearch
Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतRSS ने चुन ली है अपनी टीम, भारत के रिटायर्ड डिप्लोमैट मोदी की विदेश नीति पर बंटे हुए हैं

RSS ने चुन ली है अपनी टीम, भारत के रिटायर्ड डिप्लोमैट मोदी की विदेश नीति पर बंटे हुए हैं

आज भारत के राजनयिक भारत की आत्मा की रक्षा के सवाल पर दो खेमों में बंटे नज़र आते हैं. आरएसएस ने अपनों को चुन लिया है. तो क्या यह आरपार की लड़ाई होगी?

Text Size:

भारत में कूटनीतिक क्षेत्र का अभिजात विदेश नीति की वर्तमान दिशा पर कुछ कहने से यों तो आम तौर पर परहेज करता रहा है लेकिन सेवानिवृत्त राजनयिकों के एक वर्ग ने अपने दूसरे वर्ग पर हमला बोलते हुए जो पिछले सप्ताह जो चिट्ठी लिखी उसने इन ध्रुवीकृत प्राणियों की खीज के पिटारे में मानो विस्फोट कर दिया.

अपनी नफ़ासतों और बारीकियों के लिए खुद पर गर्व करने वाली इस सेवा में ‘फोरम ऑफ फॉर्मर एम्बेस्डर्स ऑफ इंडिया (फोफा)’ के नाम के इस संगठन के 33 पूर्व राजदूतों की स्थिति नरेंद्र मोदी समर्थक खेमे में और मजबूत हो गई है, इन्हीं 33 पूर्व राजदूतों ने इस चिट्ठी पर दस्तखत किया है. उधर, सेवानिवृत्त लोकसेवकों के बड़े संगठन ‘कान्स्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप (सीसीजी)’ को उसके बयानों के कारण को प्रधानमंत्री का आलोचक माना जाता है.


य़ह भी पढ़ें: अफगानिस्तान में अमन, भारत-पाकिस्तान के लिए स्थिरता की वकालत करते हुए US की दक्षिण एशिया में वापसी


बड़ा फर्क

‘फोफा’ ने इस चिट्ठी के साथ कोई पहली बार सार्वजनिक मंच पर अपनी बात नहीं रखी है. विदेश मंत्रालय के सुर में सुर मिलाते हुए वह भी किसानों के आंदोलन पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूदो की टिप्पणी पर विरोध जता चुका है, कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के ‘दोहरे मानदंडों’ की आलोचना कर चुका है, इस्लामी आतंकवादी हमलों के खिल्फ फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों की सख्ती का समर्थन कर चुका है. ‘फोफा’ के सबसे मशहूर सदस्य हैं पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल, जिन्होंने 2002 में गुजरात दंगों की यूरोपीय संघ द्वारा आलोचना का खंडन किया था.

‘फोफा’ का ताजा सुर यह है कि विदेश नीति को लेकर मोदी की आलोचना अनुचित है, जबकि इस नीति की निरंतरता हमेशा बनाई रखी गई है. मसलन 1998 में परमाणु परीक्षण अटल बिहारी वाजपेयी के राज में किए गए, जिसके चलते 2008 में मनमोहन सिंह के राज में भारत-अमेरिका परमाणु संधि की गई. वैसे, ‘फोफा’ यह भूल गया कि ने इस परमाणु संधि को रोकने की पोररी कोशिश की थी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को संसद में विश्वास प्रस्ताव में बोलने तक नहीं दिया था.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

दरअसल, ‘फोफा’ को केवल मोदी सरकार की ‘सीसीजी’ द्वारा आलोचना ही पच नहीं पा रही है, वह इसलिए परेशान है कि विदेश नीति के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन और पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन सरीखे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के जानकारों ने भी ‘सीसीजी’ के उन बयानों पर दस्तखत किए हैं जिनमें खासकर चीन से निबटने की मोदी की विदेश नीति और कोविड महामारी का सामना करने में मोदी सरकार की कोशिशों की आलोचना की गई है, और मोदी पर ‘अपनी छवि’ की ज्यादा चिंता करने का आरोप लगाया गया है.

लेकिन ‘फोफा’ और ‘सीसीजी’ में बड़ा फर्क यह है कि आरएसएस ‘फोफा’ में काफी दिलचस्पी लेता है. इसके प्रमुख मोहन भागवत के बाद दूसरे नंबर के वरिष्ठ तथा ताकतवर नेता दत्तात्रेय होसबले, और कृष्ण गोपाल ‘फोफा’ की बैठकों को संबोधित कर चुके हैं. आरएसएस के पदाधिकारी, इसकी ‘विशेष संपर्क’ परियोजना के प्रभारी और ‘इंडिया फाउंडेशन’ के ट्रस्टी चंद्र वाधवा एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो कभी राजदूत नहीं रहे लेकिन ‘फोफा’ के व्हाट्सअप ग्रुप पर आरएसएस के दस्तावेज़ नियमित रूप से पोस्ट करते रहते हैं.

कुछ लोग कह सकते हैं कि ‘तो क्या हुआ?’ आखिर, आरएसएस कभी यह छुपाता नहीं कि वह अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाना चाहता है और लोगों को प्रभावित करना चाहता है. अगर वह सेवानिवृत्त भारतीय राजदूतों को अपने साथ लेना चाहता है तो इसमें बुरा क्या है? यह तो उन पूर्व राजदूतों पर है कि वे किसी विचारधारा से प्रभावित होकर काम करना चाहते हैं या नहीं; आखिर, एक लोकतान्त्रिक देश में अपनी आस्था तय करने और उसके मुताबिक काम करने की स्वतंत्रता तो सबको मिली है.

ऐसे में, यह पूछा जा सकता है कि गोपनीयता क्यों? आरएसएस के साथ अपने संबंध को ‘फोफा’ छिपाना क्यों चाहता है. वास्तव में, पिछले सप्ताह की चिट्ठी में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि सत्ताधारी भाजपा के मानस गुरु के साथ उसका ऐसा संबंध है. कुछ महीने पहले होसबले ने जब इसकी एक बैठक को संबोधित किया था तब ‘फोफा’ की संयोजक भासवती मुखर्जी, और चंद्र वाधवा से इस बारे में सवाल किया गया था तब इसका कोई जवाब नहीं दिया गया था. वाधवा ने सिर्फ इतना कहा था कि ‘राजदूतों से ही पूछिए.’


य़ह भी पढ़ें: पीएम मोदी का विज्ञान के आगे आस्था को तरजीह देना क्यों दुनिया में भारत की छवि खराब कर रहा है


राजनीतिक रंग

बेशक, भारतीय विदेश सेवा (आइएफएस) में कोई पहली बार खुली दरार नहीं पड़ी है. 1970 में चीन में तैनाती के दौरान माओ जे दोंग से संवाद (माओ उन्हें देखकर मुस्कराए भर थे) करने के लिए मशहूर हुए पूर्व आइएफएस अधिकारी ब्रजेश मिश्र ने 1981 में इस सेवा से इस्तीफा दे दिया था क्योंकि अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले की निंदा न करने के इंदिरा गांधी के फैसले से वे असहमत थे; 1991 में वे भाजपा में शामिल हो गए और 1998 में वाजपेयी के ताकतवर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने.

यह भी कोई पहली बार नहीं है कि किसी पूर्व राजनयिक ने राजनीति में कदम रख दिया था और एस. जयशंकर की तरह विदेश मंत्री बन गए. 1953 बैच के पूर्व आइएफएस अधिकारी के. नटवर सिंह 1984 में कॉंग्रेस में शामिल हुए और राजीव गांधी की सरकार में राज्यमंत्री बने, और 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार में पूर्ण मंत्री बने.

यह आरोप नहीं टिकता कि पूर्व राजनयिक दलगत राजनीति में क्यों उतर जाते हैं, उनसे यही अपेकशा की जाती है. आइएफएस अधिकारी तमाम दलों में शामिल होते रहे है. पवन वर्मा 2013 में नीतीश कुमार के जदयू में शामिल हुए; मीरा कुमार 1985 में कांग्रेस में शामिल हुईं, 2004 में सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण मंत्री और 2009 में लोकसभा अध्यक्ष बनीं; मोदी सरकार में शहरी मामलों एवं नागरिक विमानन मंत्री हरदीप सिंह पूरी 2014 में भाजपा में शामिल हुए थे.

या तो हमारे साथ हैं, या खिलाफ हैं

आज की बेहद ध्रुवीकृत राजनीति में जॉर्ज डब्लू. बुश वाली यह मानसिकता काम करती है— ‘आप हमारे साथ हैं, नहीं तो हमारे खिलाफ हैं.‘ एक साधारण सवाल पूछना भी अनावश्यक दिलचस्पी मान लिया जाता है. जैसा कि जून 2020 में सर्वदलीय बैठक में मोदी के इस बयान पर पूछा गया था कि चीन ने न तो भारत में कोई अतिक्रमण किया है, न ही उसने हमारी किसी चौकी पर कब्जा किया है.

लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन से भारत किस तरह निबटे इस बारे में ‘दूसरे पक्ष’ के विचार— मसलन यह कि भारत में चीनी निवेश की नियंत्रित इजाजत देकर अधिकतम लाभ उठाया जाए— की ‘फोफा’ ने आलोचना की है लेकिन उस पर मोदी सरकार अमल करने के बारे में सोच रही है. प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ने मार्च में कहा कि भारत ‘रणनीतिक रूप से संवेदनशील सेक्टरों के सिवा’ दूसरे क्षेत्रों में चीनी निवेश के प्रस्तावों को मंजूरी देगा. उन्होंने कहा कि ‘कोई अगर भारत में बटन का कारख़ाना लगाना चाहता है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि कंपनी अमेरिका की है या चीन की.’

‘फोफा’ का यह भी मानना है कि कोविड महामारी से मोदी सरकार जिस तरह निबटी है उसकी आलोचना करना “विदेशी लॉबियों से हाथ मिलाने के बराबर है… देश-विदेश में प्रधानमंत्री की छवि को चोट पहुंचाना है.” ‘फोफा’ को पता होगा कि इंदिरा गांधी ने देश में असहमति की आवाज़ को दबाने के लिए ‘विदेशी हाथ’ वाले बहाने का इस्तेमाल करने में किस तरह महारत हासिल कर ली थी. लेकिन अब ऐसा लगता है कि उपरोक्त चिट्ठी के जारी होने के बाद ‘फोफा’ में ही असहमति की आवाज़ उभरने लगी है.

एक समय था जब विदेश के मामले तमाम तरह के नेताओं को एकजुट कर देता था. इसकी सबसे यादगार मिसाल यह है कि 1994 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन की अंतरराष्ट्रीय आलोचना और बाबरी मस्जिद विध्वंस की निंदा का जवाब देने के लिए वाजपेयी को जेनेवा में मानवाधिकार आयोग की बैठक में भाग लेने के लिए भेजा था.

आज भारत के राजनयिक भारत की आत्मा की रक्षा के सवाल पर दो खेमों में बंटे नज़र आते हैं. आरएसएस ने अपनों को चुन लिया है. तो क्या यह आरपार की लड़ाई होगी?

(लेखक कंसल्टिंग एडिटर हैं और यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें:मालदीव में उथल-पुथल से हिंद महासागर में भारत के हित दांव पर, क्यों मोदी को आगे आना चाहिए


 

share & View comments