scorecardresearch
Friday, 4 October, 2024
होममत-विमतकृषि कानूनों की वापसी : कुफ्र टूटा खुदा-खुदा करके...लेकिन आगे और लड़ाई है

कृषि कानूनों की वापसी : कुफ्र टूटा खुदा-खुदा करके…लेकिन आगे और लड़ाई है

किसान प्रधानमंत्री की इस एकतरफा घोषणा को अपनी जीत के रूप में देखने के बावजूद उसमें अपने प्रति कोई हमदर्दी नहीं देख पा रहे. यहां तक ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ भी नहीं ही मान पा रहे

Text Size:

‘लाये उस बुत को इल्तिजा करके. कुफ्र टूटा खुदा-खुदा करके.’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गुरु नानक की जयंती पर कहें या अपनी तीन दिनों की उत्तर प्रदेश की चुनावी यात्रा के दिन देशवासियों को सम्बोधित करते हुए तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने और कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर विचार के लिए समिति बनाने की घोषणा पर सबसे अच्छी टिप्पणी इस शेर की मार्फत ही की जा सकती है, जिसे लखनऊ के उन्नीसवीं शताब्दी के नामचीन शायर पंडित दयाशंकर ‘नसीम’ ने रचा था.

यह बात और है कि आन्दोलित किसानों में अभी भी संदेह बने हुए हैं कि प्रधानमंत्री के कुफ्र की यह टूटन वास्तविक है या आभासी और कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पीछे वैसी ही कोई रणनीति हो जैसी उनके यह कहने के पीछे थी कि वे तो किसानों से महज एक फोन कॉल की दूरी पर है. हम जानते हैं कि उसके बाद एक फोन कॉल की यह दूरी को अलंघ्य हो गई और सरकार-किसान वार्ताओं का टूटा हुआ सिलसिला फिर से जोड़ा ही नहीं जा सका.

स्वाभाविक ही किसान उनकी इस एकतरफा घोषणा को अपनी जीत के रूप में देखने के बावजूद उसमें अपने प्रति कोई हमदर्दी नहीं देख पा रहे. यहां तक ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ भी नहीं ही मान पा रहे. उनकी पराजय, सत्तालिप्सा और मतलबपरस्ती देख रहे है सो अलग. कारण यह कि अपने साल भर के आन्दोलन में उन्होंने इस ‘जीत’ की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है. इस दौरान उन्हें शीत-ताप और बारिश के बीच कई मौसम राजधानी की सीमाओं पर खुले आसमान के नीचे अस्थायी टेंटों में बिताने पड़े, दमनकारी सरकारी अड़ंगेबाजी के बीच सात सौ से ज्यादा शहादतें देनी पड़ीं और अनगिनत लांछन झेलने पड़े. उनके समर्थकों को भी कुछ कम निशाने पर नहीं लिया गया.

आज भले ही प्रधानमंत्री भूल गये हैं कि उनकी उक्त घोषणा के दिन गुरुनानक देव की ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी की भी जयंती थी और अपने प्रधानमंत्रीकाल में उन्हें भी ऐसे रणनीतिगत ‘मास्टर स्ट्रोकों’ के लिहाज से कुछ कम नहीं माना जाता था. साथ ही, किसानों की साल भर की तपस्या पर अपनी ‘तपस्या’ को तरजीह देकर उसमें कमी के लिए क्षमा मांगते हुए कह रहे हैं कि यह वक्त किसी को दोष देने का नहीं, बल्कि मिलकर नई शुरुआत करने का है. लेकिन उन्होंने और उनके समर्थकों ने किसानों के आन्दोलन के आरंभ से ही उसकी वैधता व विश्वसनीयता पर नाना प्रकार के दोष लगाने आरंभ कर दिये थे. उन्होंने कभी उन्हें मुट्ठी भर बताया तो कभी किसान मानने से ही इनकार कर दिया था. फिर खालिस्तानी और देशद्रोही से लेकर आन्दोलनजीवी, परजीवी और मवाली तक उन पर भला कौन-सी तोहमत नहीं लगाई गई?


यह भी पढ़े: मोदी सरकार बहाने न बनाए, वैश्विक भूख सूचकांकों में फिसलन की चेतावनी सुने और जागे


उन्हें लांछित करने का यह सिलसिला उत्तर प्रदेश के लखीमपुरखीरी में कुचल मारने तक जा पहुंचा तो भी शोक या सहानुभूति के सरकारी बोल नहीं ही फूटे. उक्त कांड में जिस मंत्री का बेटा जेल में है, जो बताते नहीं थकता कि मंत्री बनने से पहले वह क्या था और ‘किसानों को दो मिनट में ठीक कर सकता है, वह अभी भी उनके मंत्रिमंडल का सदस्य बना हुआ है. यह तो किसानों का जीवट था कि इसके बावजूद वे अहिंसक संघर्ष के नैतिक पथ से विचलित नहीं हुए, यह विश्वास बरकरार रखा कि जीतेंगे, अपने आन्दोलन को दुनिया के सबसे लम्बे आन्दोलनों में से एक बनाया और सरकार की उम्मीद के अनुसार थक या हार जाने के बजाय लम्बी लड़ाई को तैयार रहे.

प्रधानमंत्री कहें कुछ भी, यह विश्वास उन्हें भी नहीं ही होगा कि उनकी इस घोषणा मात्र से उनकी सरकार और किसानों के बीच अविश्वास की वे सारी दीवारें कहें या गांठें एक झटके में ढह या खुल जायेंगी. वैसे ही, जैसे अब तक किसानों के कई शुभचिन्तकों तक को विश्वास नहीं था कि ‘दृढ़निश्चयी’ प्रधानमंत्री को किसी भी तरह कृषि कानूनों की वापसी की सीमा तक ‘झुकाया’ जा सकता है. वे कह रहे थे कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा इन कानूनों के कुछ अप्रिय प्रावधानों में संशोधन और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मात्र पर संतुष्ट होना पड़ेगा, क्योंकि ‘मोदी जी को अपने फैसले वापस लेने या बदलने की आदत ही नहीं है.’ प्रधानमंत्री, उनके मंत्री, पार्टी के नेता और समर्थक मीडिया तो लगातार इन कृषि कानूनों के फायदे ही गिनाते घूम रहे थे.

अब उनके सम्पूर्ण यू-टर्न के बावजूद अविश्वास की गांठें नहीं खुल रहीं और किसान उनकी घोषणा पर विश्वास करके घर वापस नहीं जा रहे तो इसके कारण भी कहीं और नहीं, उनकी घोषणा में ही हैं. प्रधानमंत्री ने अभी भी कृषि कानूनों में कोई खामी नहीं मानी है. वापसी का कारण भी यह नहीं बताया है कि देर से ही सही, उन्हें उनमें कुछ काला या किसानविरोधी दिख गया है. इतना भर कहा है कि वे कुछ किसानों को इन कानूनों की अच्छाइयां नहीं समझा सके.
क्या अर्थ है इसका? यही तो कि पहले उन्होंने किसानों को विश्वास में लिये बिना उनके जीवन मरण से जुड़े ये कानून बनाये, फिर उनके अप्रतिम जीवट से यू-टर्न के लिए विवश हुए तो भी उनके आन्दोलन को कुछ नासमझ किसानों का आन्दोलन ही मान रहे हैं. फिर क्यों न किसान नेता राकेश टिकैत ‘जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं हो जाये’ की तर्ज पर एहतियात बरतते हुए कह दें कि किसान अपने घर तभी वापस जायेंगे, जब विवादित कृषि कानूनों को बाकायदा संसद के रास्ते वापस ले लिया जायेगा. संयुक्त किसान मोर्चे का दृष्टिकोण भी यही है कि प्रधानमंत्री की घोषणा का स्वागत करते हुए उस पर अमल का इंतजार किया जाये. प्रधानमंत्री चाहते तो उसका इंतजार खत्म करने के लिए अध्यादेश लाकर कृषि कानूनों को फौरन रद्द कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

दूसरे पहले से देखें तो साफ दिखता है कि प्रधानमंत्री के यू-टर्न के पीछे उनकी और साथ ही उनकी पार्टी की अलोकप्रियता का वह डर है, जो किसानों के आन्दोलन के चलते लगातार बड़ा होता जा रहा था. बताया तो यहां तक जाता है कि भाजपा द्वारा कराये गये आंतरिक सर्वेक्षणों में भी इस बात की ताईद की गयी है कि उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के अगले बरस होने वाले विधानसभा चुनावों में किसानों की नाराजगी पार्टी की न सिर्फ 2022 किंतु 2024 की संभावनाओं पर भी भारी पड़ सकती है. लोकसभा और विधानसभाओं के गत उपचुनाव में हिमाचल व हरियाणा समेत कई सूबों में भाजपा की हार में भी इसके संकेत मिले ही थे.


यह भी पढ़े: क्या ममता की आगे की राजनीति 2024 में ‘मोदी नहीं तो कौन’ का जवाब देंगी


इस डर के अलावा और क्या वजह हो सकती है कि किसानों की जिस अनसुनी को विपक्षी दल ‘प्रधानमंत्री का अहंकार’ और ‘भाजपा की क्रूरता’ कहते आ रहे थे, वह अचानक इस कदर विगलित हो जाये कि प्रधानमंत्री के मुंह से फूल झड़ने और माफी जैसे शब्द निकलने लगें. लेकिन चुनाव में हार के डर से ऐसा हुआ है तो भी इसे लोकतंत्र की शक्ति के रूप में ही देखा जायेगा. कहा जायेगा कि अंततः किसानों की जनादेश को प्रभावित करने की शक्ति उनके काम आई.

फिर भी इस सवाल को जवाब की दरकार रहेगी कि पांच राज्यों के चुनाव सिर पर न होते तो प्रधानमंत्री को अपनी ‘तपस्या में कमी’ महसूस कराने के लिए किसानों को अभी कितना और लम्बा संघर्ष करना पड़ता? इसके जवाब के लिए भी बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं. उच्चतम न्यायालय में विभिन्न सुनवाइयों के दौरान सरकार द्वारा उनके आन्दोलन के विरुद्ध दी गई नाना प्रकार की संवेदनहीन दलीलों से ही इसे समझा जा सकता है. इससे भी कि पहले उसकी पुलिस ने किसानों को दिल्ली में न घुसने देने के लिए खुद सड़कें ब्लॉक कीं, फिर रास्ता रोकने से नागरिकों को परेशानी की तोहमत किसानों पर ही मढ़ने लगी. यह भी गौरतलब है कि किस तरह उसने कोरोना की आपदा को अपने अवसर में तब्दील कर पर्याप्त बहस मुबाहिसे के बिना और विपक्ष की सेलेक्ट कमेटी को भेजने की मांग की अनसुनी कर अपने बहुमत की निरंकुशता के बूते तीनों कृषि बिलों को पारित कराया था. राज्यसभा में तो विपक्ष मतविभाजन की मांग करता रह गया था और उन्हें ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिया गया था.

तब सरकार ने इस एतराज की भी अनसुनी कर दी थी कि उसे ऐसे कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार ही नहीं है. दुःखद यह कि इन कानूनों की संवैधानिकता के परीक्षण का मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो वहां भी समय रहते उस पर फैसला नहीं हो पाया और बात अमल पर रोक लगाने तक सिमट गई. बहरहाल, अब सरकार ने विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ही सही, अपने ‘आत्मसमर्पण’ के संकेत दिये हैं तो उसके कम से कम दो नतीजे अवश्यंभावी हैं. पहला यह कि किसान लोहा गरम देखकर उस पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी समेत अपनी दूसरी मांगों के लिए भी दबाव बढ़ा दें और दूसरा यह कि संशोधित नागकिता कानून की दबी हुई चिनगारी फिर से फूट पड़े. दोनों ही स्थितियों में सरकार की मुश्किलें बढ़नी ही हैं.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)


यह भी पढ़े: हिन्दुत्व तो एक राजनीतिक विचारधारा है, उसका हिन्दू धर्म से क्या लेना-देना


share & View comments