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Monday, 15 April, 2024
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हिन्दुत्व तो एक राजनीतिक विचारधारा है, उसका हिन्दू धर्म से क्या लेना-देना

सावरकर ने बहुत सोच-समझकर अपनी राजनीतिक विचारधारा को हिन्दुत्व का नाम दिया, ताकि जब भी उसकी आलोचना की जाये, हिन्दुओं को लगे कि हिन्दू धर्म की आलोचना की जा रही है. वे यह न समझ सकें कि हिन्दुत्व वास्तव में हिन्दू धर्म का नहीं, हिन्दू राष्ट्रवाद का दस्तावेज है, जिसे किसी भी लोकतांत्रिक संविधान के तहत स्वीकार नहीं किया जा सकता.

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नि:स्संदेह, इसे विडम्बना छोड़ कुछ नहीं कहा जा सकता कि जहां इस समय हिन्दू धर्म को अपने समाज सुधार के लिए व्यापक आन्दोलन की दरकार है, उसे हिन्दुत्व नाम की उस राजनीतिक विचारधारा से उलझना पड़ रहा है, जिसके प्रवर्तक हिन्दू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर अपनी किताब हिंदुत्व- हू इज ए हिन्दू में खुद लिख गये हैं कि उसका हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं है और जो न सिर्फ खुद को हिन्दू धर्म से ऊपर मानती आई है बल्कि उसे भूगोल, रक्त, देश और इतिहास वगैरह से जोड़कर सीमित व हीन भी बनाती रही है.

बात को ठीक से समझने के लिए उसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी की हिन्दू धर्म व हिन्दुत्व में फर्क या सलमान खुर्शीद द्वारा अपनी ‘सनराइज ओवर अयोध्या’ शीर्षक पुस्तक में हिन्दुत्व की आईएसआईएस व बोकोहरम जैसे अतिवादी संगठनों से तुलना वाली टिप्पणियों से अलग करना और इस मर्म तक जाना होगा कि जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं, वह अतीत में उसे जड़ बना डालने की तमाम कोशिशों के बावजूद सतत प्रवहमान रह सका तो सामाजिक सुधार के आन्दोलनों की लम्बी परम्परा के ही कारण. यह परम्परा नहीं होती तो हिन्दू धर्म में पैठ बना चुकी सती और कन्या वध जैसी अनेक दारुण कुरीतियों का उन्मूलन संभव ही नहीं होता और वे उसके पांवों की चक्की बनी रहतीं.

ऐसे आन्दोलनों के अवसान का ही कुफल है कि विविधता को सहजतापूर्वक स्वीकार करने की हिन्दू धर्म की परम्परा आज जीवन्त के बजाय जड़ होती दिखाई देने लगी है और उसकी जगह पदानुक्रम व असमानता जैसे तत्व संस्थागत रूप पा गये हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो यही कारण है कि उसके अनेक अनुयायी 21वीं सदी में भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर नहीं समझते, उन्हें अपनी पसन्द का जीवन साथी चुनने तक के अधिकार से वंचित रखना चाहते हैं, साथ ही पुरुषों को पितृसत्तावादी मान्यताएं व विचार नहीं बदलने देते, संविधान के शासन के सात दशकों बाद भी कई जातियों को अनौपचारिक तौर पर दलित, वंचित और अछूत बनाये हुए हैं और जब भी चुनाव आते हैं, उन्हें हर हाल में जातियों के युद्ध में बदल देते हैं. इतना ही नहीं, कुछ जातियों को हमेशा बाकियों से ज्यादा महत्व देकर सिर पर बैठाये रखते हैं और शेष को हाशिये पर डाले रखते हैं.


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ऐसे में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को यह देखकर दुःख ही होगा कि इस स्थिति को बदलने के लिए हिन्दू धर्म या समाज के भीतर से किसी पहल के दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आते. फिर भी उसकी खुशी का कम से कम एक वायस (वजह) है कि इस धर्म ने अभी भी बहुत हद तक अपने उन तत्वों को बचाए रखा है, जिनके मद्देनजर कई विचारक उसे धर्म के बजाय जीवन पद्धति के रूप में देखते हैं. इसकी सबसे बड़ी मिसाल यह है कि उसका हिन्दू नाम भी ‘दूसरों’ का दिया है और उसको अंगीकार किये रखने में उसे कभी कोई परेशानी नहीं होती.

अलबत्ता, आज नये जमाने के कई हिन्दुत्ववादी अपनी राजनीति की सुरक्षा के लिए यह तो चाहते हैं कि सारे हिन्दू गर्व से अपने हिन्दू होने का ऐलान किया करें, लेकिन खुद को उसके ‘बड़प्पन’ का वारिस नहीं सिद्ध कर पाते. उलटे अपने देवताओं व पूजा-पद्धतियों के चुनाव की हिन्दुओं की स्वतंत्रताएं छीन लेना चाहते हैं और एक संस्था के आदेशों के अनुपालन व अनुशासन के प्रति समर्पण की अपनी खास कसौटियों के तहत हिन्दुत्ववादी बना देना चाहते हैं.

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प्रसंगवश, हिन्दू धर्म की प्राचीनता या सनातनता के विपरीत हिन्दुत्व की अवधारणा अभी शताब्दी भर भी पुरानी नहीं पड़ी है. हिन्दू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर ने अपने सुनहरे दिनों में अपनी राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इसका प्रवर्तन किया तो उसके पीछे ‘हिन्दू सभ्यता की पराजयों, आक्रांताओं के हाथों उसे मिलती रही गुलामियों और अपमानों’ जैसे ऐतिहासिक कारकों से पैदा हुई कुंठाएं थीं. नि:स्संदेह, ये कुंठाएं हिन्दुओं में परम्परा से चली आती ‘भूल जाओ और क्षमा कर दो’ जैसी उदात्त भावनाओं का विलोम थीं और भारत के हिन्दूकरण और हिन्दुओं के सैन्यीकरण में विश्वास करती थी.

सावरकर के निकट उनकी हिन्दुत्व की अवधारणा न सिर्फ राजनीतिक बल्कि हिन्दू धर्म से ऊपर भी थी. इसे यों समझ सकते हैं कि हिन्दू रहते हुए तो कोई व्यक्ति किसी भी देवी-देवता की किसी भी रूप में पूजा-अर्चना कर सकता और ‘सबै भूमि गोपाल की’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ या ‘हिन्द देश के निवासी सब जन एक हैं’ जैसे विचारों को अपने आचरण में उतार सकता है, लेकिन उसके हिन्दुत्ववादी होने की सबसे पहली और अनिवार्य शर्त यह है कि वह भारत पर पहला हक उनका ही माने, जिनकी वह पितृभूमि भी है, मातृभूमि भी और पुण्यभूमि भी. यानी जिनकी भारत भूमि के प्रति प्रतिबद्धता अखंड है.

गौरतलब है कि इस मान्यता के तहत मुसलमान और ईसाइयों जैसे अल्पसंख्यक तो क्या, विदेश में पैदा हुए और पले-बढ़े हिन्दू भी पितृभूमि, कर्मभूमि और पुण्यभूमि वालों जितने भारतीय नहीं रह जाते. मुसलमान और ईसाई तो अपने सारे नागरिक अधिकारों का विसर्जन की शर्त पर ही देश में रह सकते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि हिन्दुत्व की इस राजनीतिक अवधारणा में वैसी असहमतियों और बहसों की भी गुंजायश नहीं है जो अतीत में सनातन या हिन्दू धर्म के अलग-अलग मतों में चलती रही है.

जाहिर है कि यह अवधारणा न हिन्दू सम्मत है और न संविधान सम्मत. फिर भी एक राजनीतिक सम्प्रदाय के अनुयायी, जिनमें हमारे आज के सत्ताधीश भी शामिल हैं, इस तर्क के साथ इसको हिन्दू धर्म का पर्याय बनाना चाहते हैं कि वह सावरकर के वक्त में ही नहीं रुकी हुई और समय के साथ खुद को अनुकूलित, विकसित और परिवर्धित करती रही है. उनके अनुसार इससे वह वहां तक पहुंच गई है, जहां राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत कहते हैं कि सारे भारतीयों का डीएनए एक है. लेकिन वे इस सवाल का जवाब नहीं देते कि क्या इस डीएनए एक होने की बिना पर वे अल्पसंख्यकों की कथित रूप से हिन्दुओं से ज्यादा तेजी से बढ़ती आबादी की ‘चिन्ता’ से मुक्त होने को तैयार हैं?

अगर नहीं तो क्या यह भ्रम पैदा कर उसका लाभ उठाने की वैसी ही रणनीति नहीं है, जिसके तहत सावरकर ने बहुत सोच-समझकर अपनी राजनीतिक विचारधारा को हिन्दुत्व का नाम दिया, ताकि जब भी उसकी आलोचना की जाये, हिन्दुओं को लगे कि हिन्दू धर्म की आलोचना की जा रही है. वे यह न समझ सकें कि हिन्दुत्व वास्तव में हिन्दू धर्म का नहीं, हिन्दू राष्ट्रवाद का दस्तावेज है, जिसे किसी भी लोकतांत्रिक संविधान के तहत स्वीकार नहीं किया जा सकता.

सच पूछिये तो हिन्दुत्व का दस्तावेज हिन्दू धर्म को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर उसकी सारी उदात्त अपीलों को संकुचित करता और अपना स्थान उससे ऊपर कर लेता है. अकारण नहीं कि धर्म की राजनीति वाले उसके पोस्टरों में कृष्ण राधा से, राम सीता से तो शिव पार्वती से अलग कर दिये जाते हैं.

उसके समर्थकों को वेलेटाइन डे तो नहीं ही बर्दाश्त होता, प्रेम, श्रृंगार और माधुर्य की हिन्दू भक्ति परम्परा से भी उसका कोई लेन-देन नहीं होता. क्या आश्चर्य कि हिन्दुत्व के आलोचकों को लगता है कि वह उस हिन्दू धर्म को ही नष्ट करने में लगा है जिसे बचाने का दावा करता है और उनके संकीर्ण राष्ट्रवाद में किसी को भी इत्मीनान या सुकून नहीं हासिल होने वाला.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)


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