चर्चा भगत सिंह की जयंती (28 सितम्बर, 1907) से जुड़ी हो या शहादत दिवस (23 मार्च, 1931) से, वह चलती है तो जैसे भी मुमकिन हो, इस बात पर हैरत और अफसोस जताया ही जाता है कि देश का सत्ता तंत्र उनकी शहादत का सिला उनके अरमानों से मुंह मोड़कर और उनके परिजनों से कृतघ्नता बरत कर देता रहा है. इस बात पर भी कि आज की तारीख में उनके अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने का नारा लगाने वालों ने भी अपनी सुविधा के अनुसार उनके ऐसे फिल्मी, गैर-फिल्मी या कि अवास्तविक रूप गढ़ लिए हैं कि उनके बीच वे भगत सिंह कहीं गुम से होकर रह गये हैं, जिन्होंने बहुचर्चित असेम्बली बम कांड के सिलसिले में जनवरी 1930 में अपनी अपील में वह ऐतिहासिक बयान दिया था कि ‘पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे.’
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हां, तीन साल पहले 2017 में प्रसिद्ध इतिहासकार स्वर्गीय विपिन चंद्रा द्वारा लिखी और मानव संसाधन मंत्रालय के सहयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ शीर्षक पुस्तक में भगत सिंह को ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ बताये जाने को लेकर विवाद हुआ तो देश ने इस बात को गहरी निराशा के साथ समझा कि जब हमारा सत्ता तंत्र गृह मंत्रालय की अंग्रेजों के वक्त से चली आ रही आतंकवादियों की काली सूची से भगत सिंह का नाम हटाने को लेकर भी अपनी जिम्मेदारी का सबूत नहीं दे पाया तो उससे यह अपेक्षा व्यर्थ ही है कि वह उनकी शहादत को उपयुक्त सम्मान देगा.
यहां जानना जरूरी है कि भगत सिंह और उनके साथी स्वतंत्रता-युद्ध में जूझ रहे थे, तब भी उनकी क्रांतिकारिता को लेकर सर्वानुमति नहीं ही थी. एक ओर उनके द्वारा ऐलान किया जा रहा था कि उन्हें इस युद्ध के लिए ऐसे नौजवान चाहिए जो आशा की अनुपस्थिति में भी भय व झिझक के बिना युद्ध जारी रख सकें और आदर-सम्मान की आशा रखे बिना ऐसी मुत्यु के वरण को तैयार हों, जिसके लिए न कोई आंसू बहे और न स्मारक बनें, तो दूसरी ओर उन्हें महात्मा गांधी और उनके ‘अहिंसक’ समर्थकों के साथ ‘बम की पूजा’ और ‘बम के दर्शन’ के विवाद में उलझना पड़ रहा था.
गौरतलब है कि इन क्रांतिकारियों ने 23 दिसम्बर, 1929 को दिल्ली आगरा रेल लाइन पर वायसराय लार्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन को बम से उड़ाने वाली कार्रवाई की, तो महात्मा गांधी ने वायसराय की रक्षा के लिए ईश्वर को धन्यवाद देते हुए ‘यंग इंडिया’ में ‘बम की पूजा’ शीर्षक लेख लिखकर क्रांतिकारियों की तीखी आलोचना की थी. तब क्रांतिकारियों के सिद्धांतकार भगवतीचरण वोहरा ने भगत सिंह से सलाह-मशिवरा करके ‘बम का दर्शन’ लिखा और उन्हें जवाब दिया था.
ये क्रांतिकारी कभी इस बात को छिपाते नहीं थे कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से इसलिए युद्धरत हैं कि समाजवादी समाज व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं. इसीलिए चाहते थे कि गिरफ्तार किये जाने के बाद उनसे युद्धबंदियों जैसा बर्ताव किया जाये. उनका एलान था: ‘दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उलफत’ और उनकी ‘मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी’. इसके साथ ही उन्हें उम्मीद थी कि ‘हवाओं में रहेगी मेरे खयालों की बिजली, ये मुश्तेखाक है फानी, रहे रहे न रहे.’ भगत सिंह प्रायः कहा करते थे कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले या भूरे साहबों के आ जाने भर से देश और देशवासियों की नियति नहीं बदलने वाली. दुर्भाग्य से आजादी के बाद जहां सत्तातंत्र द्वारा देश और देशवासियों की इस नियति को बदलने के प्रयत्न जरूरी नहीं समझे गये, वहीं खुद को भगत सिंह के अधूरे अरमानों को लेकर चिंतित बताने वालों ने भी खुद को उनकी मान रक्षा के बेहिस प्रतीकात्मक प्रयत्नों में मुब्तिला कर लेना ही ठीक समझा.
वे इतनी-सी बात को लेकर खुश होने को तैयार हो गये कि पंजाब में हुसैनीवाला बार्डर के उस पवित्र स्थान पर, जहां गोरे हुक्मरानों ने 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु के पार्थिव शरीरों को बेहद अपमानपूर्वक जलाने की कोशिश की थी, राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट पर लगातार प्रज्ज्वलित ‘अमर जवान ज्योति’ की तर्ज पर ‘अमर ज्योति’ प्रज्ज्वलित की जा रही है.
हम जानते हैं कि जनाक्रोश भड़कने के डर से लाहौर सेन्ट्रल जेल में इन तीनों को फांसी की निश्चित तारीख 24 मार्च से एक दिन पहले ही सारे नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए शहीद कर दिया गया था. लेकिन ऐसी कोई ज्योति जलाने से उनकी शहादतों की प्रतीकात्मक सम्मान रक्षा ही सम्भव है, जबकि सच्ची श्रद्धांजलि उनको अभीष्ट इंकलाब का रास्ता हमवार करके ही दी जा सकती है, जो अभी भी इस देश पर उधार है और जिसका जिम्मा लेने या सूद चुकाने को कोई तैयार नहीं दिखायी देता.
प्रसंगवश, ये तीनों ही शहीद 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में हुए भयावह नरसंहार से विचलित और गोरों के प्रतिरोध के अहिंसक या गांधीवादी तरीकों से निराश होकर क्रांतिकारी बने थे. 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन में पंजाब केसरी लाल लाजपत राय गोरी पुलिस की लाठियों से घायल हुए और मर्मान्तक तकलीफें झेलकर 17 नवम्बर, 1928 को उन्होंने अंतिम सांस ली, तो इन तीनों ने ठीक एक महीने बाद 17 दिसम्बर को उक्त लाठीचार्ज के जिम्मेदार अंग्रेज अधिकारी जाॅन पी. सांडर्स को योजनाबद्ध ढंग से गोलियों से भून डाला.
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ऐसा करके उन्होंने जताया कि काकोरी कांड के नायकों की शहादतों के बावजूद देश के नौजवानों का खून ठंडा नहीं पड़ा है. बाद में आठ अप्रैल, 1929 को भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम और पर्चे फेंके तो उनका उद्देश्य था-दो अत्यधिक दमनकारी कानूनों के विरोध की देश की आवाज को बहरी सरकार के कानों तक पहुंचाना. इस उद्देश्य की पूर्ति के बाद वे भागे नहीं, वहीं खुद को गिरफ्तार करा लिया और अपने खिलाफ चली समूची अदालती कार्रवाई को अपनी अनूठी क्रांतिकारी चेतना और विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल किया.
28 सितम्बर, 1907 को पंजाब के लायलपुर जिले के एक गांव में, जो अब पाकिस्तान में है, भगत सिंह का जन्म हुआ तो उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह व स्वर्ण सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों के सिलसिले में जेलों में थे. तीनों को उसी दिन रिहाई मिली तो माना गया कि नवजात शिशु अच्छा भाग्य लेकर आया है. उसका नाम भगत रखा गया, पंजाबी में जिसका अर्थ भी है-भाग्यशाली. माता विद्यावती उसको प्यार से भगता बुलाती थीं- भगता यानी भागों वाला. लेकिन बाद में अनीश्वरवादी भगत सिंह को न भाग्य में और न ही भगवान में भरोसा रह गया.
1925-26 में उन्होंने बलवंत सिंह नाम से अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की और जल्दी ही उसके कई आयाम विकसित कर लिये. क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाने के प्रयत्नों के क्रम में लखनऊ के पास काकोरी में ट्रेन पर ले जाये जा रहे सरकारी खजाने की लूट के ऐतिहासिक कांड में मृत्युदंड प्राप्त रामप्रसाद बिस्मिल को छुड़ाने की जद्दोजहद में असफलता के बावजूद वे निराश नहीं हुए और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के (जो बाद में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में बदल गया) ‘पीले पर्चे’ यानी संविधान में एक ऐसे समाज के निर्माण का संकल्प दोहराया, जिसमें एक मनुष्य द्वारा दूसरे का शोषण संभव न हो.
अपने दो साल के जेल जीवन का तो उन्होंने पढ़ने और लिखने में ऐसा सदुपयोग किया कि कई लोग उन्हें भारत का लेनिन कहने लगे. कहते हैं कि शहादत के लिए ले जाये जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. कम ही लोग जानते हैं कि उन्हें दिल्ली से मियांवाली सेंट्रल जेल स्थानांतरित किया गया तो उन्होंने वहां कैदियों से भेदभाव के खात्मे और उनके अधिकार उन्हें दिलाने के लिए लम्बी भूख हड़ताल की थी.
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प्रसंगवश, भगत सिंह की शहादत के बाद उनकी माता विद्यावती को ‘पंजाब माता’ की उपाधि दी गई तो पंजाबी के लोकप्रिय कवि संतराम ‘उदासी’ ने अपनी एक कविता में सवाल उठाया था कि क्या भगत सिंह ने सिर्फ पंजाब के लिए जान दी थी? देश के लिए दी थी तो उनकी माता को ‘देशमाता’ का खिताब क्यों नहीं? लेकिन किसी ने भी उनकी बात नहीं सुनी.
सवाल है कि इस कृतघ्नता के रहते उन्हें अभीष्ट इंकलाब की राह कैसे हमवार होगी? जवाब क्या दिया जाये, देश के सत्तातंत्र के रंग ढंग तो अभी भी लगभग वैसे ही हैं, जैसे गीतकार शंकर शैलेन्द्र को आजादी के तुरंत बाद के वर्ष 1948 में दिखे थे और जिनके चलते उन्होंने भगत सिंह को संबोधित अपनी एक कविता में उनसे कहा था: भगत सिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी, सजा मिलेगी फांसी की! यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे, बम्ब-सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया तो पकडे जाओगे, निकला है कानून नया, चुटकी बजाते बंध जाओगे, न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे!
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)