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Monday, 9 December, 2024
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क्रांति और विद्रोह के कवि ‘पाश’ सपनों के मर जाने को सबसे खतरनाक मानते थे

अवतार सिंह संधू 'पाश' उस सामाजिक और राजनीतिक आजादी के पैरोकार थे जिसके लिए उनके आदर्श रहे भगत सिंह ने अपनी शहादत तक दे दी थी.

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सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

पंजाब के जालंधर ज़िले के तलवंडी सलेम गांव में 9 सितंबर 1950 को जन्मे अवतार सिंह संधू उर्फ पाश अपनी क्रांतिकारी कविताओं को रचने और व्यवस्था पर सवाल खड़े करने वाले कवि के रूप में जाने जाते हैं. कम उम्र से ही उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थी. नक्सलवादी आंदोलन ने उन्हें काफी प्रभावित किया था. उनकी रचनाओं में इसका प्रभाव साफ झलकता हुआ दिखाई पड़ता है.

जिस दौर में पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन अपने चरम पर था उस समय साहित्य जगत से निकला एक शख्स इस आंदोलन की मुख़ालफत अपनी कविताओं के माध्यम से और पत्रिकाएं निकालकर करता है.

कविताओं के माध्यम से पाश लगातार सामाजिक-राजनीतिक विमर्श की चेतना को जनता के बीच ला रहे थे. उनकी कविताओं में विद्रोह और बदलाव का स्वर इतना प्रखर था कि उनके हर एक शब्द सत्ता और व्यवस्था को चुनौती दे रहे थे. इस बात को लेकर उनका खूब विरोध भी हुआ लेकिन बचपन से जिस परिवेश को देखते हुए पाश बड़े हुए थे उसे शब्दों के द्वारा रचने का साहस उन्होंने बखूबी किया.

खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ थे पाश

पाश की कविताओं को हिंदी में अनुवाद करने के लिए साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर चमन लाल ने दिप्रिंट से बातचीत में बताया, ‘खालिस्तानी लोगों से धमकियां मिलने के कारण पाश अपने परिवार के साथ अमेरिका चले गए थे लेकिन कुछ समय बाद वो वापस भारत लौट आए थे. खालिस्तानियों को उनके आने की खबर मिल चुकी थी. जिस दिन पाश दोबारा वापस अमेरिका जा रहे थे उसी दिन उन लोगों ने उसकी हत्या कर दी थी.’ चमनलाल कहते हैं, पाश अपने साथी हंसराज के साथ अपने गांव के खेतों में लगे ट्यूबवेल के पास नहा रहे थे तभी खालिस्तानियों ने उन पर गोलियों से हमला कर दिया जिसमें पाश और अनके साथी दोनों की मौत हो गई.

चमन लाल पाश की हत्या के पीछे के कारणों को सिर्फ उनकी आलोचनात्मक और विरोधात्मक कविताओं को नहीं मानते हैं. उनका मानना है कि जब पाश पंजाब के एक स्कूल में शिक्षक थे उस समय उन्होंने एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली जो खालिस्तान के खिलाफ मुखर थी. पत्रिका थी ‘दीवार’ जिसमें पाश खालिस्तानियों को एक्सपोज करने का काम करते थे. पाश लगातार पंजाब के लोगों को गुरबानी के उदाहरणों का ज़िक्र करके बताते थे कि खालिस्तानियों की मांगें गुरु नानक की शिक्षाओं के खिलाफ हैं.

इसके बाद पाश को लगातार धमिकयां मिलने लगीं जिसके चलते उन्हें देश छोड़कर अमेरिका जाना पड़ा. लेकिन वहां जाकर भी पाश ने खालिस्तानियों पर लिखना बंद नहीं किया. हाथ से लिखी पत्रिका को वो लोगों के बीच पहुंचाते रहे जिसके कारण खालिस्तानी लोग उनके खून के प्यासे हो गए.

भगत सिंह और पाश के बीच समानताएं

जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर चमन लाल का कहना है कि भगत सिंह और पाश के बीच कई समानताएं हैं. दोनों की मृत्यु का दिन (23 मार्च) भी एक ही है और दोनों सितंबर के महीने में ही पैदा भी हुए थे. वो कहते हैं जिस दिन भगत सिंह को फांसी दी जानी थी उस दिन वो लेनिन की किताब पढ़ रहे थे. पढ़ते हुए उन्होंने किताब के पन्ने को मोड़ कर रख दिया था. इस बात का ज़िक्र पाश अपनी कविता में करते हैं और कहते हैं – भगत सिंह ने शहादत से पहले किताब के जिस पन्ने को मोड़ा था, पंजाब के युवाओं को उसके आगे पढ़ने की ज़रूरत है. अपने आदर्श भगत सिंह की शहादत पर पाश अपनी कविता 23 मार्च में लिखते हैं – शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था, ईश्वर की तरह लेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज़ न था.


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चमन लाल कहते हैं, ‘भगत सिंह लेनिन को अपना आदर्श मानते थे और पाश भगत सिंह को. दोनों में एक और समानता खोजते हुए वो कहते हैं – दोनों की मृत्यु फासिस्टों द्वारा ही की गई, एक तरफ भगत सिंह को ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने मारा तो पाश को खालिस्तानी फासिज़्म ने.’

नक्सलवादी होने के आरोप में जेल में बंद किया गया

पाश पर नक्सलवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोपों में मुकदमा चलाया गया और जेल में डाल दिया गया. उस समय उनकी उम्र महज 20 साल की थी. 20 साल की उम्र में अपनी पहली रचना लौह-कथा  से पाश काफी लोकप्रिय होने लगे थे. उसी दौरान उनपर नक्सलवादी होने के आरोप लगे और जेल में डाल दिया गया. चमन लाल उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ‘उस वक्त मैं जालंधर में ही मौजूद था. उन्हें झूठे आरोप में फंसाया गया था जिसका बाद में कोई प्रमाण नहीं मिला. जेल में रहते हुए ही उनकी पहली किताब छपी थी.’ पाश को इसके अलावा 1972 और 1974 में भी गिरफ्तार किया गया था.


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कश्मीर जाकर आपातकाल का किया विरोध

25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया था. लेकिन चमन लाल दिप्रिंट को बताते हैं, ‘कश्मीर में जिस अनुच्छेद-370 को हाल ही में हटाया गया है उसी के तहत तत्कालीन मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने राज्य में आपातकाल लगने नहीं दिया था. उसी समय जम्मू में एक पंजाबी लेखक सम्मेलन हुआ जिसमें पाश भी मौजूद थे. इस सभा में इंदिरा गांधी के तानाशाही फैसले का पाश ने पुरज़ोर विरोध किया था और आपातकाल के खिलाफ खूब बोला था. गौरतलब है कि आपातकाल का विरोध करने के चलते उन्हें गिरफ़्तार भी किया गया.

क्रांतिकारी रचनाओं का संसार

पाश अपनी एक कविता मैं घास हूं में लिखते हैं, मैं आपके हर किए धरे पर उग आऊंगा. इस कविता के जरिए वह सत्ता व्यवस्था को चुनौती देते हुए दिखाई देते हैं और बड़ी ठसक से कहना चाहते हैं कि एक नागरिक को अगर सत्ता मिटाना चाहेगी तो वो सफल नहीं हो पाएगी. नई मांगों के साथ जनता फिर से आवाज़ बुलंद करेगी.

पाश की सबसे प्रसिद्ध कविता ‘सबसे खतरनाक‘ पढ़ते हुए आप महसूस कर सकते हैं कि उस रचना में गढ़े गए शब्दों का अनुभव संसार काफी व्यापक है. पाश सामाजिक बुराइयों पर मनुष्य की चुप्पी को सबसे खतरनाक बताते हैं. पाश उस चांद को सबसे खतरनाक बताते हैं जो हर हत्याकांड के बाद वीरान हुए आंगन में चढ़ जाता है.

लोकतंत्र की असल खूबसूरती सहमतियों और असहमतियों के बीच होते द्वंद में है. इन्हीं द्वंदों को मज़बूत पाश की जन-चैतन्य कविताएं बनाती हैं. सड़क का संघर्ष हो, गरीबों-किसानों की इच्छा हो या आंदोलनों को स्वर देने का काम हो, सभी को अपनी कविताओं में रचते हुए पाश दिखाई पड़ते हैं.

उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई कविता ‘हम लड़ेंगे साथी‘ सर्वहारा के संघर्ष की बानगी है. जिसमें अन्याय, शोषण के खिलाफ और अधिकारों को पाने के लिए जूझते रहने और लड़ते रहने का आह्वान है. कई आंदोलनों में इस कविता को गाया भी जाता है.

भारत खेतों में बसता है

पाश अपनी कविता ‘भारत‘ में राष्ट्र के असल मायने को समझाते हैं. वे कहते हैं, ‘जब भी कोई राष्ट्रीय एकता की बात करता है तो मेरा दिल चाहता है उनकी टोपी उछाल दूं. उसे बताऊं भारत का अर्थ ‘दुष्यंत’ से नहीं बल्कि यहां के खेतों से है, जहां अन्न उगता है.


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पाश उस सामाजिक और राजनीतिक आज़ादी के पैरोकार थे जिसके लिए उनके आदर्श भगत सिंह ने अपनी शहादत तक दे दी थी. पंजाब के क्रांतिकारी संघर्ष के बीच उन्होंने राजनीतिक-सामाजिक बदलाव और विद्रोह के लिए अपनी आवाज़ बुलंद की जिसका खामियाज़ा उन्हें अपनी जान देकर देनी पड़ी. धार्मिक संकीर्णता और कट्टरता के विरोधी पाश एक ऐसे समाज की कल्पना कर रहे थे जो सर्वहारा के साथ-साथ मध्यम वर्ग के लिए भी एक सुकून भरा आशियाना हो.

अगर पाश की कविताओं के मर्म और निहितार्थों को समझें तो मौजूदा समय में वे भी देश विरोधी कहलाए जा सकते थे. जिस तरह से पाश की रचनाओं ने आंदोलनों में नारों का रूप लिया उस तरह उन्हें आज के समय में भारत के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाला करार दिया जा सकता है. प्रगतिशील विचारों वाला यह नायाब शख़्स 4 दशकों से भी कम का जीवन बिता कर हमारे बीच से चला गया.

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