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Thursday, 5 December, 2024
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‘भगत सिंह के असेंबली में बम फेंकने के बाद क्या ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट बिल की मौत हो गई’

ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट बिल के विरोध में भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंका, उस समय हालात क्या थे?

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शहीदे आजम भगत सिंह की शिक्षा को आज कई चुनौतियों से निपटने के लिए याद किया जा रहा है. लेकिन एक बात हर जगह अछूती सी नजर आ रही है. भगत सिंह के जीवन को समझने वाले लोग ये तो जानते हैं कि उन्होंने असेंबली में बम ‘बहरी सरकार को सुनाने के लिए’ फेंका, पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट बिल वजह बने. हालांकि इस बात पर शायद ही चर्चा होती हो कि उन अध्यादेशों में आखिर क्या था? खासतौर पर ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट बिल में क्या था? क्या आजादी मिलने के बाद उस बिल की कोई अहमियत नहीं रही? जिस तरह की दिक्कतें उस समय आने वाली थीं, क्या उससे आज ट्रेड यूनियनें और मजदूर वर्ग निजात पा चुके हैं?

जिस समय ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट बिल के विरोध में भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंका, उस समय हालात क्या थे? सन् 1927 में दुनिया आर्थिक मंदी की चपेट में आ गई थी और मजदूर वर्ग के अधिकारों को छीना जा रहा था. भारत पर राज करने वाले इंग्लैंड में जब ट्रेड यूनियन बिल पास हो रहा था, तब अज्ञात लेखक का ‘किरती’ नाम की पत्रिका में लेख छपा. शायद ये लेख भगत सिंह का ही था. इस लेख में भगत सिंह के क्रांतिकारी संगठन की सोच साफ झलक रही थी, जो बाद में असेंबली बम केस के समय जाहिर हुई.

भारत में ट्रेड डिस्प्यूट बिल 1929 में लाया गया. आज 92 साल बाद इस लेख को पढ़ते समय ऐसा लग सकता है, जैसे ये आज ही की परिस्थितियों में लिखा गया हो, सत्ता में मौजूद रूढ़िवादी दल भाजपा हो, जो एक ट्रेड यूनियन अमेंडमेंड बिल कैबिनेट से पास करा चुकी हो और संसद में पेश करने को बेताब हो. एक ऐसी सरकार जो पूंजीपतियों की सहूलियत के लिए पलक-पांवड़े बिछाए हुई हो और मजदूरों के अधिकार छीनती चली जा रही हो. जिसे ये गुमान हो कि वह हमेशा सत्ता में रहने वाली है और चुनौती देने वालों को नेस्तनाबूद कर देगी. लिबरल पार्टी की भूमिका में कांग्रेस हो. मजदूर वर्ग को इस चुनौती को अपने सिर लेकर सभी को एकजुट करना हो.


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किरती का ये लेख ‘विविध सामाजिक राजनीति प्रश्र: कुशाग्र विश्लेषक दृष्टि ’ पुस्तक में प्रकाशित हुआ, जिसकी प्रति क्रांतिकारियों पर लेखन करने वाले साहित्यकार सुधीर विद्यार्थी पर सुरक्षित है. लेख के अनुसार, उस समय इंग्लैंड की हुकूमत में रूढ़िवादी दल ताकत में था और इस ताक में था कि कैसे मजदूरों की बढ़ती ताकत को रोका जाए. इसकी एक वजह ये भी थी कि तब तक रूस में मजदूरों की बोल्शेविक पार्टी ने क्रांति कर सत्ता पर कब्जा कर लिया था, जिसका असर पूरे विश्व के मजदूर आंदोलन पर पड़ा.

ऐसे में सभी देशों की सरकारों को को लग रहा था कि मजदूरों की संगठित ताकत को नहीं बिखेरा गया तो वे हर जगह रूस की तरह अपना राज कायम करने पर उतारू हो जाएंगे. इंग्लैंड के रूढि़वादी नेताओं को इसका भी एहसास था कि लिबरल पार्टी जल्द सत्ता में नहीं आने वाली इसलिए खतरा मजदूर ही हैं, लिहाजा उन्हें ही सबसे पहले ठिकाने लगाया जाए. इसी मकसद को हासिल करने के लिए ट्रेड यूनियन बिल लाया गया.

मजदूरों ने भी इस बिल के खिलाफ जोरदार आवाज बुलंद की. उन्होंने कहा कि यह बिल एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग को मटियामेट करने के लिए लाया गया है. मजदूर नेता रैमजे मैकडानल्ड ने बिल को वर्ग युद्ध की घोषणा बता दिया. ब्रिटिश हुकूमत विश्व के कई देशों में फैली थी इसलिए उन सभी देशों तक इस बिल की आंच पहुंची और विरोध की लहर उठी. ‘किरती’ में लिखा गया, ‘ मजदूर एक दिन की बड़ी आम हड़ताल करने की सोच रहे हैं, विरोध की मीटिंगें कर रहे हैं.

ख्याल किया जाता है कि संसद में इस बिल पर घमासान बहस होगी, मजदूर नेता खरीद न लिए गए तो जी तोड़कर लड़ेंगे. ’लेख में ये भी बताया गया कि मजदूरों को लग रहा था कि बाल्डविन की सरकार ने उनके बुनियादी अधिकारों पर हमला बोल दिया है. दैनिक अखबार ‘डेली हेराल्ड’ ने लिखा कि यह बिल मजदूरों को मानसिक रोगी समझता है और सख्त अपराधियों के लिए इसने सजा भी तय कर दी है. एक मजदूर नेता ने इसे मुसोलिनी का कानून बताया.

मजदूर आंदोलन को कुचलने की साजिश

आम हड़ताल के समय से ही रूढ़िवादी दल के लोग मांग कर रहे थे कि सरकार कोई बिल संसद में पेश करे, जिससे सबके सब मजदूर हड़ताल न कर सकें. अगर एक यूनियन दूसरी यूनियन के समर्थन में हड़ताल करे तो वह गैरकानूनी मानी जाए. मजदूरों से समर्थन लेने की कोशिशों को अपराध की श्रेणी में रख दिया जाए, जिससे सजा दी जा सके. सिविल सर्विस के कर्मचारियों को किसी भी पार्टी में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

मजदूरों की पार्टी के किसी भी राजनीतिक काम के लिए मजदूर चंदा नहीं दे सकते, न ही मजदूर दल चंदा इक्ट्ठा कर सकता था. यहां तक कर दिया गया कि जो लोग चंदा नहीं देना चाहते, उनको लिखकर भी देना होगा. मजदूरों की पार्टी को ट्रेड यूनियनों के मार्फत चंदा मिलता था, जिसको बंद कराके आंदोलन का गला घोंट देने का काम बिल में किया गया. इसका मकसद सीधा ये था कि मजदूर संगठन दो फाड़ होकर कमजोर हो जाएं और उनकी आंदोलनात्मक गतिविधियां थम जाएं.

किरती के लेख में किया गया आह्वान

किरती के लेख में अंत में आह्वान किया गया. कहा गया कि यह बिल पास हो गया तो मजदूर बुरी तरह जंजीरों में जकड़े जाएंगे और उन जंजीरों को तोड़ना आसान नहीं होगा. इसलिए श्रमिकों को वक्त रहते संभलना चाहिए और ऐसा जोरदार आंदोलन करना चाहिए कि इस पूंजीपति गुट को, जो मजदूरों को गुलामी से छूटने नहीं देना चाहता, नानी याद आ जाए. पर यह नानी भी तभी याद आ सकती है, यदि आने वाली संसद में इनकी हार हो, कि याद कर करके आंखें मला करें. इस समय संसद में इन पूंजीपतियों का बहुमत है. इस बहुमत के अभियान में ही अकड़े फिर रहे हैं और मजदूरों को नजरों में भी नहीं लाते.

हम चाहते हैं कि मजदूर नाममात्र स्वतंत्र लिबरल गुट में भी प्रचार करें और उनमें से बहुत से सदस्यों को अपनी ओर कर लें, ताकि यह बिल पास ही न हो सके. और न सिर्फ ये बिल ही असफल करा दें, वरन इस मौजूदा सरकार को भी उलट दें. इसने यह कानून पेश कर राज करने के सभी अधिकार गंवा दिए हैं. इस समय जरूरत है कि मजदूरों के अपने घर में भी किसी तरह की फूट न हो ओर मजदूरों के नरम और गरम गुटों के सब लोग एकजुट हो जाएं ताकि साझे जोर से इस मौजूदा सरकार का डटकर मुकाबला किया जा सके और इसे ऐसे चने चबाए जाएं कि सारी उम्र ही इस वक्त को याद कर करके हाथ मला करें.

आज के हालात, जैसे इतिहास लौट आया हो

ट्रेड यूनियन अमेंडमेंड बिल आने के बाद श्रमिक महासंघ दो खेमों में सिमटते दिखाई दे रहे हैं. एक का नेतृत्व आरएसएस की विंग भारतीय मजदूर संघ कर रहा है, जिसके साथ इंटक का भी एक धड़ा आ गया है. दूसरी ओर बाकी हैं, जिनका नेतृत्व अभी स्पष्ट नहीं है. तीसरा खेमा ऐसा भी हो सकता है, जिसकी सरकारी मान्यता से कोई मतलब न हो, मतलब शुद्ध आंदोलनकारी जिन्हें गैरकानूनी दायरे में लाया जा सकता है. ये सब क्यों हो रहा है, इसका क्या नतीजा हो सकता है. जनवरी 2019 में केंद्र की मोदी सरकार के मंत्रीमंडल ने ट्रेड यूनियन संशोधन विधेयक 2018 के जरिए 1926 के एक्ट में प्रस्तावित बदलाव को मंजूरी दे दी है. संसद के बजट सत्र में तो इसे पेश नहीं किया जा सका, अलबत्ता इरादा पूरा था. केंद्र में भाजपा सरकार फिर बनी तो इस बिल का संसद में पेश किया जाना सुनिश्चित है.

प्रस्तावित संशोधन में ट्रेड यूनियन की मान्यता, उसके फेडरेशन की मान्यता और सेंट्रल ट्रेड यूनियनों में किसको मान्यता दी जाएगी ये सरकार और संबंधित नियोक्ता के विवेक पर निर्भर करेगा. फिलहाल तक, बिल में प्रक्रिया या पात्रता मानदंड या किसी अन्य विवरण का उल्लेख नहीं है कि ट्रेड यूनियनों को कैसे मान्यता दी जानी है.

दो ध्रुवों में बंट गए ट्रेड यूनियन महासंघ

दूसरी ओर आरएसएस का घटक व भाजपा का सहयोगी बीएमएस (भारतीय मजदूर संघ) कन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल ट्रेड यूनियंस (कंसेंट) बना चुका है. जिसमें कांग्रेस का ट्रेड यूनियन महासंघ का एक धड़ा शामिल हो चुका है. इसके अलावा ट्रेड यूनियन कोऑर्डिनेशन सेंटर का प्रमुख धड़ा, नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन समेत छह ट्रेड यूनियन महासंघ साथ आ गए है. कांग्रेस का सहयोगी इंटक (जी संजीवा रेड्डी धड़ा) को कोयला मजदूरों की समझौता वार्ता में इसी वजह से शामिल नहीं किया गया.


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केंद्रीय श्रम व रोजगार राज्यमंत्री इस बात को पहले ही कह चुके हैं कि चार ही सेंट्रल ट्रेड यूनियनें रह जाएंगी. कयास बतौर कहा जा सकता है कि बीएमएस के अलावा टीयूसीसी, इंटक (केके तिवारी धड़ा) और वामपंथी ट्रेड यूनियनों की साझी सेंट्रल ट्रेड यूनियन ही बचेगी. मतलब सेंट्रल ट्रेड यूनियनों के दो ध्रुव साफ नजर आएंगे. एक कंसेंट और दूसरा वामपंथी मोर्चा. संशोधन विधेयक के विरोध में जब दस ट्रेड यूनियन संघों ने आठ व नौ जनवरी 2019 में आम हड़ताल भी की, तो उसे तोड़ने के लिए बीएमएस के नेतृत्व वाला कंसेंट सामने आया था.

आज की सच्चाई क्या है

ट्रेड यूनियनों को मान्यता नहीं देने वाले नियोक्ता हेकड़ी पर उतर आए हैं. निजी क्षेत्र में श्रमिकों की हालत नरक बना दी गई है. ट्रेड यूनियनों के गठन या भाग लेने के लिए श्रमिकों को कठोरता से दंडित किया गया है. उदाहरण के लिए, हरियाणा के मानेसर में मारुति-सुजुकी संयंत्र, तमिलनाडु में प्राइसोल और यामाहा कारखानों में देखा जा सकता है. ट्रेड यूनियनों की मान्यता के लिए श्रमिकों द्वारा संघर्ष अधिकांश राज्यों में किया जा रहा है.

हालात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों उत्तराखंड के पंतनगर स्थित सिडकुल इंडस्ट्रियल एरिया में स्पार्क मिंडा नाम की कंपनी के युवा महिला व पुरुष कामगारों को यूनियन पंजीकरण के लिए सौ से ज्यादा दिनों तक भूख हड़ताल करना पड़ी, लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए और नौकरी से हाथ धोना पड़ा. ऐसा तब हुआ जब उनका नेतृत्व भाजपा के सहयोगी माने जाने वाले भारतीय मजदूर संघ के नेता कर रहे थे.


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सोचने की बात है, ट्रेड यूनियन संशोधन बिल में बीड़ी श्रमिक, घरेलू कामगार, प्रवासी श्रमिक, कृषि श्रमिक, संविदा श्रमिक के लिए तो कोई जगह ही नहीं है. वहां किसी एक यूनियन को पहचानने तक की कोई व्यवस्था नहीं है, तो मान्यता का तो सवाल ही नहीं उठता. सीटू महासचिव तपन सेन कहते हैं, यह संशोधन मोदी सरकार के ‘श्रम कानूनों में सुधार’ का हिस्सा है, जिसमें मौजूदा 44 श्रम कानूनों को बदलने के लिए चार कोड बिल शामिल हैं, जो साफतौर पर श्रमिक विरोधी और नियोक्ता के लिए अमृत समान हैं.

इसका मकसद मजदूर वर्गों पर दासता की स्थितियां थोपना और ट्रेड यूनियन अधिकारों को समाप्त करना है. उस ट्रेड यूनियंस एक्ट, 1926 को भी खत्म करना है जो यूनियन पंजीकरण मजदूरों के लिए मामूली अधिकार देता है. प्रस्तावित संशोधन के लिए मंत्रालय ने धारा 29 (2) के प्रावधान के लिए अधिनियम में नए खंड 28 ए और उप-धारा (2 ए) के जरिए इस काम को अंजाम देने की कोशिश की है.

(आशीष सक्सेना स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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