बीती 27 जून को भोपाल में भाजपा कार्यकर्ताओं को अपने संबोधन में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों तक पार्टी की पहुंच और उनके कल्याण के लिए किए गए कार्यों को ले जाने की बात को रेखांकित किया. यही नहीं इस दौरान उन्होंने पसमांदा मुसलमानों और मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा के बारे में भी बात की.
भारतीय मुस्लिम समुदाय के साथ भाजपा का रिश्ता स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में सबसे विवादास्पद रहा है. हालांकि, हाल ही में, राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश (यूपी) में भाजपा की चुनावी सफलता से चिह्नित मुस्लिम वोटिंग का उभरता पैटर्न एक महत्वपूर्ण मोड़ का संकेत भी देता है.
मुसलमानों के प्रति बढ़ता आकर्षण
हाल ही में हुए स्थानीय निकाय चुनाव में बीजेपी ने पहली बार यूपी के कई मुस्लिम बहुल इलाकों में जीत दर्ज की. शहरी निकाय चुनावों में, भाजपा ने 395 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा – पांच नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष, 32 नगर पंचायत के अध्यक्ष, 80 पार्षद और 278 सभासद पद हेतु – जिनमें से 61 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की. यानी 15 प्रतिशत स्ट्राइक रेट से थोड़ा अधिक. यह पिछले स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों के बिल्कुल विपरीत है, जिसमें पार्टी द्वारा मैदान में उतारे गए 180 में से केवल एक मुस्लिम उम्मीदवार विजयी हुआ था. फिर, पिछले महीने, भाजपा समर्थित मुस्लिम उम्मीदवार ने रामपुर जनपद में सुआर में विधानसभा उपचुनाव जीता– ये ऐसी सीट है जिसमें 70 प्रतिशत से अधिक मतदाता मुस्लिम हैं. इससे पहले पार्टी ने मुस्लिम बहुल रामपुर में लोकसभा और विधानसभा उपचुनाव में भी जीत हासिल की थी.
अतीत में मुसलमानों के साथ भाजपा की सफलता की कमी को ध्यान में रखते हुए, पार्टी भविष्य में और विस्तार की संभावना के साथ नई प्रवृत्ति को महत्वपूर्ण और आशाजनक मानती है.
मुस्लिम मतदाताओं की भाजपा के प्रति आकर्षण की यह उभरती प्रवृत्ति क्या बताती है? यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इन चुनावी सफलता से पहले पीएम मोदी और भाजपा द्वारा पसमांदा मुसलमानों को समायोजित करने के ठोस प्रयास किए गए थे – एक सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर लेकिन संख्यात्मक रूप से महत्वपूर्ण उपसमूह जो कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 85 प्रतिशत है.
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बदलता रवैया
भाजपा की पिछली दो राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठकों में – जनवरी 2023 में दिल्ली में और जुलाई 2022 में हैदराबाद में – पीएम मोदी ने पार्टी से अल्पसंख्यक समुदायों के भीतर हाशिए पर मौजूद वर्गों तक पहुंच बनाने का आह्वान किया. इसके बाद, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पसमांदा मुसलमानों को सम्मान और स्नेह देकर उन्हें शामिल करने के लिए यूपी में व्यापक आउटरीच कार्यक्रम शुरू किए. आश्चर्य की बात नहीं है कि यूपी स्थानीय निकाय चुनावों में पार्टी द्वारा मैदान में उतारे गए 395 उम्मीदवारों और सुआर विधानसभा उपचुनाव में 80 प्रतिशत उम्मीदवार पसमांदा थे.
चूंकि पसमांदा मुसलमानों के प्रति भाजपा का बदलता राजनीतिक रवैया मुसलमानों के बीच एक नए वोटिंग पैटर्न के साथ मेल खा रहा है, इसलिए दोनों के बीच एक कार्यात्मक संबंध प्रतीत होता है. चूंकि यह घटनाक्रम भारतीय राजनीति में व्यवधान की शुरुआत करता है, इसलिए भाजपा की राजनीतिक रणनीति के तर्क और मुस्लिम राजनीति पर इसके प्रभाव का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है.
हालांकि, यह सच है कि इस्लाम जाति-आधारित स्तरीकरण की परिकल्पना नहीं करता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह भारतीय मुसलमानों के बीच भारतीय धर्मों के सदियों पुराने प्रभाव के कारण मौजूद है. जाति-आधारित विभाजन के तीन रेखाओं में खींचा जा सकता है – अशराफ (उच्च जाति/आक्रमणकारियों के वंशज), अजलाफ (पिछड़े/धर्मांतरित) और अरजाल (सबसे पिछड़े/धर्मांतरित). “पसमांदा” शब्द का प्रयोग संचयी रूप से बाद की दो श्रेणियों को दर्शाने के लिए किया जाता है. अशराफ़ भारतीय मुस्लिम आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हैं जबकि पसमांदा शेष 85 प्रतिशत हैं.
दोनों समूहों के बीच विभिन्न स्तरों पर रिश्तों में खटास पैदा हो गई है. पसमांदा पहचान का अशराफ द्वारा इस आधार पर विरोध किया गया है कि यह जाति पर केंद्रित है, जो इस्लाम के विपरीत है. इसके अलावा, अशराफ, जो अल्पसंख्यक हैं, के भारतीय मुस्लिम राजनीति में प्रमुख शक्ति होने से एक विसंगति पैदा हो गई है.
दरअसल, मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में मुस्लिम नेतृत्व अशराफ के हाथों में केंद्रित हो गया है. इसके अलावा, भावनात्मक राजनीतिक मुद्दे जो अशराफ से जुड़े हैं – जैसे पहचान, व्यक्तिगत कानून और बाबरी मस्जिद – पसमांदा के मुद्दों से अलग हैं, जो कल्याण और सामाजिक-आर्थिक न्याय के आसपास केंद्रित हैं. इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अशरफ-प्रमुख राजनीतिक दल मुस्लिम समुदाय को एक अखंड के रूप में देखते हैं, जिससे पसमांदा मुद्दों और प्रतिनिधित्व को दरकिनार कर दिया जाता है.
पसमांदाओं और उनके मुद्दों को समायोजित करने में गैर-भाजपा दलों की विफलता ने भाजपा को इस बहिष्कृत मुस्लिम उप-समूह को समायोजित करने की इच्छा व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया है. दूसरों की तुलना में, भाजपा ने न केवल मुसलमानों की विविधता की बेहतर समाजशास्त्रीय समझ का प्रदर्शन किया है, बल्कि पसमांदा राजनीति के आसपास के शून्य को भरने की पेशकश में राजनीतिक योग्यता भी प्रदर्शित की है. इसके अलावा, यह पीएम मोदी के “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास” मॉडल पर काम करने वाली एक समावेशी पार्टी होने के भाजपा के दावे को बल देता है. पार्टी के प्रयासों को इस तथ्य से बल मिलता है कि पसमांदा मुसलमान मोदी सरकार की उज्ज्वला योजना, मुद्रा योजना आदि जैसी कल्याणकारी योजनाओं के बड़े पैमाने पर लाभार्थी हैं.
भाजपा की भागीदारी पसमांदाओं को अशराफ की तरह अपनी भागीदारी की शर्तों पर फिर से बातचीत करने का अवसर भी प्रदान करती है. सबसे पहले, यह पहचान के मुद्दों के विपरीत कल्याण और सामाजिक-आर्थिक न्याय के मुद्दों पर प्रकाश डालता है. दूसरे, यह मुस्लिम प्रतिनिधित्व में अधिक लोकतंत्रीकरण और समावेशिता की पसमांदा की मांग को बल देता है. तीसरा, यह पसमांदाओं को खुद को फिर से जीवंत और संगठित करने के लिए एक राजनीतिक विकल्प प्रदान करता है.
समुदाय जो भी विकल्प चुनें इससे न केवल राष्ट्रीय राजनीति पर बल्कि आने वाले समय में उसके भाग्य पर भी महत्वपूर्ण असर पड़ेगा.
(संपादन- आशा शाह)
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य हैं और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं. )
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