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Saturday, 4 May, 2024
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UCC की आलोचना करने वालों से एक सवाल- आप मुस्लिम क्रिमिनल्स के लिए शरिया क्यों नहीं चाहते

मुसलमानों को अलगाववाद के हाशिए से निकालकर राष्ट्रवाद की मुख्यधारा में लाने के लिए यूसीसी से बेहतर कोई तरीका नहीं है.

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पृथक निर्वाचन की जगह मुस्लिम पर्सनल लॉ ने ले ली है. इसलिए, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत तब तक जीवित और सक्रिय रहेगा जब तक इसे दफनाने के लिए समान नागरिक संहिता नहीं लाई जाती. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स करने वाले कट्टरपंथी अत्यधिक धार्मिक कट्टरता के साथ इसका विरोध करते रहे हैं. और उनके उदारवादी गुरु धर्मनिरपेक्षता की धुंध पैदा करने के लिए ढेर सारे संवैधानिक तर्क दे रहे हैं. लेकिन यह स्पष्ट है कि सापेक्षवाद, बहुलवाद, बहुसंस्कृतिवाद और उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में उनके फैंसी सिद्धांत इस्लामी कट्टरवाद की वकालत करते हुए नज़र आते हैं.

यूनिफॉर्मिटी, आइडेंटिटी के लिए अभिशाप है, और राष्ट्रीय एकता पहचान की राजनीति (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स) के बिल्कुल विपरीत है. यह एकता की कीमत पर विविधता को महत्व देता है, और क्षेत्रीय व सांस्कृतिक विविधताओं के बीच मौजूद सामान्य सूत्र की उपेक्षा करता है. इसके बजाय, यह समानताओं के बीच असमानता को उजागर करता है, लोगों के बीच दरार बढ़ाता है, और विभाजनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है. विविधता पर अत्यधिक मोटिवेटेड जोर देने की वजह से व्यावहारिक रूप से हमारी पुरानी राष्ट्रवादी कहावत, अनेकता में एकता खत्म हो गई है.

कानून की एकरूपता या भेदभाव की विविधता?

चूंकि यूसीसी के विरोधी विविधता की नैतिक श्रेष्ठता का दिखावा करते हैं, इसलिए यह स्पष्ट कर दें कि प्रस्तावित संहिता न्याय की एकरूपता के बारे में है, न कि पारिवारिक समारोहों के संस्कारों और रीति-रिवाजों के बारे में. यह महिलाओं को पुरुषों के बराबर मान्यता देने और विवाह, तलाक और विरासत में उनके अधिकारों की रक्षा के लिए एक समान कानून के बारे में है.

विविधता से हमारा तात्पर्य संस्कारों और रीति-रिवाजों, भाषाओं और साहित्यों, गीतों और नृत्यों, खान-पान और पहनावे में भिन्नता से है. भेदभाव और अन्याय विविधता के प्रदर्शन का हिस्सा नहीं हैं. किसी मुस्लिम महिला के साथ अन्य समुदायों में उनकी बहनों से अलग व्यवहार करना भेदभाव है, विविधता नहीं. यह सबसे खराब प्रकार का धार्मिक भेदभाव है यदि किसी मुस्लिम लड़की की शादी कानूनी उम्र प्राप्त करने से पहले की जा सकती है; यदि उसकी शादी पंजीकृत नहीं हुई थी; यदि उसे एक ऐसे पुरुष के साथ रहना पड़े जिसके पास पहले से कई बीवियां हैं; यदि उसे एकतरफा तलाक दिया जा सकता है; अगर उसे गुजारे भत्ते का कोई अधिकार नहीं है; अगर वह अपने बच्चों को अपने पास नहीं रख सकती; और, यदि संपत्ति में उसका हिस्सा पुरुष का केवल आधा होता है. अगर किसी मुस्लिम पुरुष को हिंदू पुरुषों को मिलने वाले अधिकारों से वंचित कर दिया जाए तो कैसा लगेगा? क्या यह घोर अन्याय और अचेतन धार्मिक भेदभाव नहीं होगा? फिर, दुनिया में, एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य में, जिसका संविधान अपने सभी नागरिकों को न्याय और समानता सुनिश्चित करने का वादा करता है, एक मुस्लिम महिला को अपनी हिंदू बहन के समान अधिकार न होना धार्मिक भेदभाव के रूप में कैसे नहीं गिना जाएगा?

ऐसी स्थिति 73 वर्षों से बनी हुई है, यह विचित्र है. यह संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य को अपने सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने के निर्देश के बावजूद हुआ है, और अनुच्छेद 13 के बावजूद, जो मौलिक अधिकारों के साथ असंगत सभी संविधान-पूर्व कानूनों को निरस्त करने की बात करता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अधिनियम 1937, जेंडर को लेकर अपने पक्षपातपूर्ण रेवैये की वजह से, संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करता है, जो धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है.

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अलग-अलग कानून या सांप्रदायिकता?

कोई भी कानून संसद के अधिकार क्षेत्र से परे नहीं हो सकता, जिसके पास न केवल एमपीएल (मुस्लिम पर्सनल लॉ) में सुधार या निरस्त करने का अधिकार है, बल्कि जिसका कर्तव्य मुस्लिम महिलाओं को पुरुषों के साथ बराबरी का दर्ज़ा दिलाना भी है, और मुस्लिम समुदाय के प्रति एक और कर्तव्य है कि इसे हटाकर बेहतर ढंग से बांटने वाली इस रेखा को एकीकृत किया जाए. जो लोग एमपीएल में सुधार और इसके कोडिफिकेशन की मांग करते हैं, लेकिन यूसीसी के खिलाफ हैं, वे कपटपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं. वे भेदभाव की वैचारिक सीमा को जीवित रखना चाहते हैं.

उन्होंने मान लिया है कि एमपीएल शरिया नहीं है, और शरिया ईश्वरीय नहीं है, लेकिन उन्हें अभी भी द्वि-राष्ट्र (Two-Nation) की मानसिकता से छुटकारा पाना बाकी है. वे कानूनी बहुलवाद या अलग-अलग कानूनों की बात करते हैं ताकि उनकी पहचान की राजनीति (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स) फलती-फूलती रहे. कानूनी बहुलवाद का आदर्श विविध राष्ट्रीयताओं से बने साम्राज्यों के लिए आदर्श था. भारत एक राष्ट्र राज्य है, जो सभी लोगों की समानता में विश्वास रखता है. बहुसांस्कृतिक मॉडल में, विदेशी समुदायों को मुख्यधारा से अलग-थलग रहने के लिए कहा जाता है. बहुसंस्कृतिवाद अल्पसंख्यकों के एक साथ रहने का एक आकर्षक नाम मात्र है. सांस्कृतिक मेलजोल के बजाय, यह बहु एक-संस्कृतिवाद को बढ़ावा देता है जहां विभिन्न समुदाय एक साथ रहते हैं, लेकिन रात में एक-दूसरे से बगल से गुजरने वाले जहाजों की तरह एक-दूसरे से अनजान रहते हैं.

यदि कानूनी बहुलवाद के पैरोकार ईमानदार हैं, तो वे मुस्लिम दोषियों के लिए आपराधिक मामलों में शरिया कानून की मांग क्यों नहीं करते? क्या वे इस बात पर सहमत होंगे कि एक व्यभिचारी (कई स्त्रियों से शारीरिक संबंध रखने वाले) मुसलमान को पत्थर मारकर मार डाला जाए?

सुधार का डर

मुस्लिम पर्सनल लॉ की असंवैधानिक दृढ़ता, और मुख्य रूप से यूसीसी के लिए संवैधानिक निर्देश का पालन करने में राज्य की अनिच्छा, बल्कि पूरी तरह से, इसके मुस्लिम विरोध के कारण है. विभाजन और अलगाववादी राजनीति की कमज़ोरी के बावजूद, द्वि-राष्ट्र विचारधारा, जिसे पहचान की राजनीति का नाम दिया गया, अभी भी इतनी प्रबल है कि यहां तक कि किसी से न दबने वाले अंबेडकर भी, इस मुद्दे पर विचार करते हुए यूसीसी के बारे में कहना पड़ा: “कोई भी सरकार अपनी शक्ति का प्रयोग इस तरह से नहीं कर सकती कि मुस्लिम समुदाय को विद्रोह के लिए उकसाया जा सके. मुझे लगता है कि अगर उसने ऐसा किया तो यह एक पागल सरकार होगी.”

यूसीसी का विरोध मुख्य रूप से वैचारिक है, जो भारत को नागरिकों के राष्ट्र के बजाय धर्मों के संघ के रूप में देखता है. इसलिए, नागरिकों, विशेषकर अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित लोगों के साथ राज्य का संबंध केवल उसके रखवालों, पारंपरिक उलेमाओं, छद्म आधुनिक बुद्धिजीवियों और घोर सांप्रदायिक राजनेताओं के माध्यम से होना चाहिए. और, ये वे लोग हैं जिनको इस बात का गर्व है कि उन्होंने समुदाय के “आंतरिक मामलों” में कानून बनाने का काम किया है.

आंतरिक सुधार की झूठी दलील

विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल पारित होने – जिसे नेहरू अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे – के बाद भी मुसलमानों के लिए ऐसा नहीं किया गया – जिसे लेकर नेहरू सबसे ज्यादा निराश थे. मुस्लिम सांप्रदायिकों के सामने इसलिए झुकना पड़ा ताकि मुस्लिम वोट बैंक बना रहे. सत्तारूढ़ पार्टी के लिए वोट बैंक के रूप में काम करने के बदले में उन्हें समुदाय के “आंतरिक मामलों” को मैनेज करने की अनुमति दी गई थी.

इस प्रकार, आंतरिक मामलों में खुद से सुधार की झूठी दलील देकर एमपीएल के सुधार को हमेशा के लिए टाल दिया गया. एक समुदाय जिसका लक्ष्य सुधार के बजाय पुनरुद्धार था, और शरीयत के पालन को मुस्लिम शासन की बहाली का सूत्र मानता था, धार्मिक कानून के इस अंतिम अवशेष को जाने नहीं दे सकता था. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के स्वयंभू संरक्षक, एआईएमपीएलबी या किसी अन्य संगठन द्वारा आज तक सुधार का एक भी प्रस्ताव नहीं रखा गया है. आंतरिक तौर पर सुधार की बात करना सुधार न करने का एक बहाना रहा है. मुस्लिम संप्रदायवादी और उनके गुरु, हिंदू उदारवादी, दोनों ही इस साजिश में शामिल रहे हैं.

कोई पूछ सकता है, यदि आंतरिक तौर पर सुधार इतना अच्छा विचार था, तो इसे हिंदू समुदाय के लिए उपयुक्त क्यों नहीं समझा गया, और हिंदू कोड बिल को संसद द्वारा बलपूर्वक पारित क्यों किया गया? इस बात में संदेह है कि स्वतंत्रता के बाद की सरकार खुद को हिंदू समुदाय का “आंतरिक” मानती थी, और मुसलमानों के साथ विदेशी के रूप में व्यवहार करती थी, जिनके साथ हस्तक्षेप न करना ही बेहतर था? मुस्लिम नेतृत्व ने भी नए राज्य को सामरिक और तकनीकी निष्ठा से अधिक कुछ नहीं दिया और वफादारी के दिखावे के बावजूद, अपनेपन की भावना नदारद रही. अंदर ही अंदर दोनों पक्ष सच्चाई जानते थे. यह दोनों और से जीत वाली स्थिति थी जहां मुस्लिम लीडरशिप को वोट बैंक के बदले में तुष्टीकरण की सौगातें मिलती रहीं.

मुसलमानों के पारिवारिक मामलों में हस्तक्षेप करने से “विधायिका को रोकने” के बारे में अंबेडकर ने जो शिकायत की थी, उसके मूल में यह धारणा थी कि एमपीएल दैवीय है और, इस तरह, केवल उलेमा के पास ही इसके बारे में फैसला करने की क्षमता है; भारत जैसे किसी गैर-मुस्लिम विधायिका के पास इस मामले में कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं था. इसीलिए, इस तथ्य की अनदेखी करते हुए कि अधिकांश मुस्लिम देशों ने आधुनिक मानकों के अनुसार अपने पारिवारिक कानूनों में सुधार किया है, एआईएमपीएलबी भारतीय संसद के एमपीएल में सुधार या यूसीसी लाने के अधिकार का विरोध कर रहा है.


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एमपीएल इस्लामिक नहीं है

हालांकि, तथ्य यह है कि एमपीएल शरिया के समान नहीं है. अगर ऐसा था भी तो शरिया ईश्वरीय कानून नहीं है. यह एक कोड के बजाय एक अवधारणा है. इसका प्रभावी रूप न्यायशास्त्रीय पद्धति है जिसे फ़िक़्ह के नाम से जाना जाता है, यह इस तरह से फैसला करने की पद्धति है कि कुरान और सुन्नत के साथ सुसंगतता बनी रहे. इस्लामी कानून एक न्यायविद् फकीह द्वारा बनाया गया है. यदि यह काम एक पुरुष कर सकता है, तो दूसरा भी कर सकता है तो फिर एक महिला भी कर सकती है; खासकर जब पारिवारिक कानून को आधुनिक धर्मनिरपेक्ष मानकों के अनुसार अपडेट किया जा रहा हो.

यूसीसी मुसलमानों में सुधार करेगी

भारतीय राज्य को अपने मुस्लिम नागरिकों को अन्य लोगों की तरह पूरी तरह से अपनाना चाहिए और मुस्लिम महिलाओं को भी वही अधिकार प्रदान करने चाहिए जो दूसरों को उपलब्ध हैं. मुसलमानों को अलगाववाद के हाशिए से निकालकर राष्ट्रवाद की मुख्यधारा में लाने के लिए यूसीसी से बेहतर कोई तरीका नहीं है. यूसीसी न केवल कानून में सुधार करेगा, बल्कि मुस्लिम समुदाय में भी सुधार करेगा.

(इब्न खाल्दून भारती इस्लाम के छात्र हैं और इस्लामी इतिहास को भारतीय नज़रिए से देखते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @IbnKhaldunIndic है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

संपादक का नोट: हम लेखक को अच्छी तरह से जानते हैं और छद्म नामों की अनुमति तभी देते हैं जब हम चाहते हैं.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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