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Wednesday, 24 April, 2024
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कैसे गुजरात पिटाई मामले ने भारतीय राजनीति की ‘सेकुलर’ चुप्पी को सामने ला दिया

गुजरात में मुस्लिम युवाओं की कोड़े से पिटाई जैसी घटनाओं पर ही भारत जैसे बहुलतावादी, लोकतांत्रिक गणतंत्र से राजनीतिक आवाज़ उठाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन भाजपा के प्रतिद्वंद्वी मुसलमानों के साथ दिखने से भी डर रहे हैं.

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आज भारत के मुसलमानों के लिए कौन आवाज़ उठा रहा है? इस मामले में मुलायम सिंह यादव के आकार का भी जो खालीपन आ गया है उसे कौन भर रहा है? कोई नहीं. भाजपा के प्रतिद्वंद्वी मुसलमानों के वोट तो चाहते हैं मगर उनके नेता के रूप में दिखना नहीं चाहते.

मैं पहले ही साफ कर दूं कि इस सप्ताह का यह स्तंभ दिवंगत मुलायम सिंह यादव के लिए स्मृतिलेख, श्रद्धांजलि या उनकी समालोचना नहीं है. दरअसल, 1990 के दशक के बाद से वे भारतीय मुस्लिम समुदाय के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में उभरे थे और भाजपा तो उन्हें ‘मौलाना मुलायम’ कहकर उनका मखौल भी उड़ाती थी. उनकी मृत्यु वह अहम मौका है जब मुस्लिम नेतृत्व में जो शून्य उभर आया है उसका विश्लेषण किया जाए कि बंटवारे के बाद से भारत के मुसलमानों का नेतृत्व लगभग पूरी तरह हिंदुओं के हाथ में क्यों रहा है.

यह विश्लेषण खासकर इस सप्ताह इसलिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने हिजाब के मामले में बहस को वह दिशा दे दी है जो धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक है. और खासकर इसलिए भी कि गुजरात, जहां जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं, के खेड़ा जिले में मुस्लिम युवाओं को तालिबान या ‘इस्लामिक स्टेट’ (आईएस) शैली में कोड़ों से पीटा गया और इसके विरोध में उन लोगों की ओर से शायद ही कोई आवाज़ उठाई गई, जो नरेंद्र मोदी को हराने की ख़्वाहिश रखते हैं.

वह घटना ताली बजाते हिंदुओं की भीड़ के सामने घटी. इसकी वीडियो और फिल्म बनाई गई और व्यापक तौर पर शेयर किया गया. उन मुस्लिम युवकों का कथित अपराध यह था कि उन्होंने वहां हो रहे गरबा आयोजन पर ‘पत्थर फेंके’ थे.
अगर उन्होंने यह अपराध किया भी था तो संविधान के तहत चलने वाले भारत में किसी को इस तरह सज़ा नहीं दी जाती है. न ही खुले तौर पर कोड़े मारना हिंदू परंपरा में शामिल रहा है, चाहे यह परंपरा कितनी भी रूढ़िपंथी क्यों न रही हो. कम-से-कम ऐसी कोई घटना याद तो नहीं आती. यह अत्याचार हमारे राजनीतिक विकास को दिशा देने वाला साबित हो सकता है. इसकी तस्वीरें उसी तरह याद में बस जा सकती हैं जिस तरह पाकिस्तान में ज़िया-उल-हक़ की फौजी हुकूमत में पहली बार कोड़े मारे जाने की तस्वीरें बार-बार हमें यह याद दिलाती रहती थीं कि धार्मिक उग्रवाद कितना भयावह हो सकता है.


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युवा लेखक आसिम आली ने ‘दप्रिंट’ के लिए लिखे अपने लेख में यह उत्तेजक सवाल उठाया है कि हम कोड़े मारने की उस घटना को तालिबानी स्टाइल क्यों बता रहे हैं? इसे हिंदुत्व स्टाइल बताने से क्यों शरमा रहे हैं? यह सोचने वाली बात है, और इस पर कई हिंदू यह सवाल उठा सकते हैं कि मध्ययुग से भी पहले के हिंसक और अराजक इस्लामी तत्वों से हम हिंदुओं की तुलना करने की हिम्मत कोई कैसे कर सकता है?

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वैसे, पाकिस्तान में जब पुलिस ने कुछ अहमदियों को इस तरह कोड़े मारे थे और तहरीक-ए-लब्बैक स्टाइल की भीड़ इस पर तालियां बाजा रही थी तब हमने कभी इस पर सवाल नहीं उठाया था और न इस पर कोई चिंतन किया, न ही उससे उतने परेशान हुए जितना इसका दिखावा किया.

तब, हमारे सामाजिक, संवैधानिक, और नैतिक मूल्यों में आई गिरावट पर सवाल न उठाने के लिए क्या हम यानी हम बहुसंख्यक जिम्मेदार हैं? ऐसा कहना न केवल खुद को दोषी मानना होगा बल्कि बेमानी भी होगा, और इससे न तो मुस्लिम अल्पसंख्यकों को कोई राहत मिलेगी और न ‘लोगों’ को घटना की गंभीरता एहसास होगा और वे यह कहने लगेंगे कि बस, ‘अब और नहीं!’. ऐसे ही मौकों पर एक बहुलतावादी, लोकतांत्रिक गणतंत्र को राजनीतिक आवाज़ों की जरूरत पड़ती है. लेकिन ऐसी आवाज़ें इस सप्ताह नहीं सुनी गईं. 2022-24 में हरेक पार्टी के लिए सबसे अहम राजनीतिक परीक्षा यह होगी कि वह धर्मनिरपेक्षता के प्रति कितनी प्रतिबद्ध है.

अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ‘आप’ गुजरात पहुंच गई है क्योंकि उन्हें वहां अगले महीने होने वाले चुनाव में अपने लिए मौका नजर आ रहा है. पंजाब को जीतने के बाद वे अगर प्रधानमंत्री के राज्य में बड़ी जगह बना लेते हैं तो वे 2024 तक कई राज्यों में एक मजबूत ताकत बनकर उभर सकते हैं. इस तरह के साहस की अपेक्षा हम ‘आप’ से करते हैं. लेकिन क्या आपने इसके किसी नेता या प्रवक्ता को खेड़ा में पीड़ितों के परिवार के यहां जाते देखा? या प्रेस सम्मेलन करते? या इस शर्मनाक घटना पर ट्वीट करते?

सिर्फ केजरीवाल की ‘आप’ ही वह राजनीतिक ताकत नहीं है जिसे दोषी माना जा सकता है. हमने इसकी चर्चा सबसे पहले इसलिए की क्योंकि फिलहाल जमीनी स्तर पर भाजपा के खिलाफ यही सबसे मुखर राजनीतिक आवाज़ है. गुजरात में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मानी जाने वाली कांग्रेस भी, जो 2017 में उलटफेर करने की हद तक पहुंच गई थी, खामोश है. जिसे वह ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कह रही है उसके लिए वह सुर्खियां और फोटो खिंचवाने के मौके बटोर रही है. लेकिन अभी गुजरात से दूर ही दिख रही है.

उसकी यात्रा का ज़ोर इस बात पर है कि भाजपा ने भारत को बांट दिया है. अगर ऐसा है तो वह गुजरात में हिंदुओं और मुसलमानों को जोड़ने की कोशिश क्यों नहीं कर रही है? उसने अगर तथ्यों की जांच करने के लिए एक कमिटी भी भेजी होती तो भी बात बन सकती थी. जिग्नेश मेवाणी गुजरात से पार्टी के सबसे नुमाया चेहरे हैं, जिन्हें उसकी ताजा खोज और उपलब्धि कहा जाता है. सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता और आंदोलन के बूते उन्होंने अपना करियर बनाया है. लेकिन वे भी खेड़ा में नहीं नज़र आए. जेएनयू में हर सप्ताह अपने धुआंधार भाषणों से क्रांति करने के दावे करने वाले कन्हैया कुमार यूं तो यात्रा से अपनी तस्वीरें और वीडियो बड़े फख्र से पोस्ट कर रहे हैं लेकिन गुजरात का खेड़ा? वह कहां है?

युवाओं और बुजुर्गों, हिजाब पहने एक स्कूली बच्ची से मुस्कराते हुए गले लगते राहुल गांधी मोदी के विपरीत करुणा, साहस की मिसाल सामने रख रहे हैं और विविधता और समानता को अपनाने की तस्वीर पेश कर रहे हैं. अगर मकसद यही है तो क्या यह बेहतर नहीं होता कि वे खेड़ा के पीड़ितों के परिवारों के साथ भी नज़र आते?

चिदंबरम, मेवाणी, और केसीआर के बेटे केटीआर सरीखे नेताओं ने इस घटना पर या तो ट्वीट किया है या चलताऊ टिप्पणी करके रह गए हैं. ममता बनर्जी की टीएमसी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में शिकायत दर्ज की है. और गुजरात के एक प्रमुख ‘आप’ नेता ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए इंटरव्यू में, इस मामले की अनदेखी करने के बारे में कहा कि ‘गुजरात में कानून-व्यवस्था की स्थिति यूपी या बिहार से भी बदतर है. गुजरात किसी के लिए सुरक्षित नहीं है.’ इस मामले से पल्ला झाड़ने की प्रवृत्ति यही दिखाती है कि भाजपा का विरोध करने वाले नेता इतने सहमे और डरे हुए हैं कि वे मुसलमानों के हमदर्द (यानी हिंदू विरोधी) नहीं दिखना चाहते, इसलिए वे इसे कतराना ही बेहतर मानते हैं.

उनका मानना है कि उन्हें मुसलमानों के हक़ में कुछ बोलने की जरूरत नहीं है क्योंकि वे तो भाजपा के डर से वैसे भी उन्हें ही वोट देंगे. इसकी सबसे बड़ी मिसाल ‘आप’ की दिल्ली की सरकार ने शाहीन बाग आंदोलन और इसके बाद हुए दिल्ली दंगे से खुद को अलग-थलग करके पेश की थी. हमें मालूम है कि दिल्ली की पुलिस उसके नियंत्रण में नहीं है लेकिन दंगा पीड़ित इलाकों में अपनी आश्वस्तिदायक मौजूदगी जताने की न कोशिश की गई, न जख्मों पर मरहम लगाने का प्रयास किया गया, न दो साल से ज्यादा से जेलों में बंद लोगों के लिए कानून के तहत समान व्यवहार की मांग की गई.

इसे ही यथार्थपरक राजनीति कहते हैं, और यह कारगर रही है. क्या आप जानना चाहते हैं कि यह कैसे होता है? एक ओर तो खेड़ा या ऐसी ही स्थितियों से, जहां मुसलमानों का दमन किया जाता है, ‘आप’ नेताओं की अनुपस्थिति को देखिए; दूसरी ओर उसी सप्ताह में लोगों से उनका यह वादा करना देखिए कि वे उन्हें अयोध्या में बने नये राम मंदिर की मुफ्त यात्रा करवाएंगे.

जबकि यह बड़ा सियासी खेल खेला जा रहा है, इसके पीछे एक खतरनाक बात भी हो रही है— 20 करोड़ अल्पसंख्यक बेसहारा छोड़ दिए गए हैं. कुछ राज्यों को छोड़ बाकी जगह यही सच है. एक शून्य फैलता जा रहा है और कोई ‘सेकुलर’ ताकत उसे भरने के लिए आगे नहीं आ रही है. इस स्थिति का फायदा स्थानीय मुस्लिम नेता उठा रहे हैं— इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, ओवैसी की ‘एआईएमआईएम’, पीएफआई और उसके सहयोगी गुट. आज़ाद भारत में मुस्लिम सियासत की दिशा उलट गई है.

भारत के मुसलमान मोहम्मद अली जिन्ना के बाद किसी मुस्लिम को अगर अपने नेता के रूप में कबूल नहीं कर रहे थे तो इसकी एक वजह थी. जिन्ना न केवल भारत को बांट दिया बल्कि अपने समुदाय के भी बांट डाला. नहीं तो अविभाजित भारत की 180 करोड़ आबादी में 60 करोड़ मुसलमान एक मजबूत चुनावी ताकत होते. जिन्ना कोई दूरदर्शी नहीं थे, जो इस उपमहादेश में एक मुस्लिम ताकत का निर्माण कर सकते थे. उन्होंने इस ताकत को नष्ट कर दिया. इसलिए भारत के मुसलमानों ने कांग्रेस और गांधी परिवार पर अपनी दांव लगा दिया.

बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद दो यादवों, मुलायम और लालू ने हिंदी पट्टी के मुसलमानों को अपनी ओर मोड़ लिया. इतने वर्षों में उनकी राजनीति इसलिए कमजोर पड़ी है कि उनका राजनीतिक सोच अपनी पारिवारिक विरासत को बचाने पर केंद्रित हो गई. फिर भी, तेलंगाना के बाहरी इलाकों के मुसलमान ओवैसी तक को प्रायः वोट नहीं देते, जो अपने समुदाय के सबसे कुशल और बेबाक प्रवक्ता हैं.

मुसलमानों की नज़रों से यह छूट नहीं सकता कि अधिकांश ‘सेकुलर’ ताक़तें खेड़ा जैसे अत्याचार में उन्हें आश्वस्त करना तो दूर, उनके साथ खड़े होने से भी किस तरह डर रही हैं. किसी इंदिरा गांधी, किसी युवा लालू, या किसी मुलायम को ऐसा कोई डर नहीं था. इसलिए नयी मुस्लिम दक्षिणपंथी ताक़तें इस शून्य को भरने की कोशिश कर रही हैं. जरूरी नहीं कि वे सब लोकतांत्रिक ही हों. पीएफआई की कहानी खतरे की घंटी बजा रही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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