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Friday, 3 May, 2024
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क्या जनहित के नाम पर दायर याचिकाएं कोरोनावायरस की चुनौतियों से निपटने के प्रयासों में बाधक हैं

सरकार को कोरोनावायरस महामारी के संकट पर काबू पाने और देशवासियों को इसके प्रकोप से बचाने के प्रयास के दौरान दायर हो रही इस तरह की याचिकाओं पर आपत्ति है.

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कोरोनावायरस महामारी के प्रकोप के मद्देनजर उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में सामान्य कामकाज की बजाये सिर्फ ‘अत्यावश्यक महत्वपूर्ण मामलों’ की वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई की व्यवस्था के बीच अचानक ही जनहित याचिकाएं दायर होने का सिलसिला बढ़ गया. इन याचिकाओं में लॉकडाउन की वजह से दहशत में पलायन करने वाले कामगारों के खान-पान, आवास और स्वास्थ सुविधाओं की व्यवस्था से लेकर कोरोनावायरस से संक्रमित मरीजों का इलाज कर रहे चिकित्सकों, नर्सो, मेडिकल के सहायक कर्मचारियों से लेकर पुलिसकर्मियों तक को सुरक्षा परिधान उपलब्ध कराने और उचित कीमतों पर जनता को मास्क तथा सैनिटाइजर आदि मुहैया कराने जैसे विषय शामिल हैं.

इसी तरह, लॉकडाउन की वजह से आर्थिक गतिविधियां ठहर जाने की वजह से देश में संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत आर्थिक आपातकाल लगाने, कोरोनावायरस संक्रमण की मुफ्त जांच सुनिश्चित करने, पलायन करने वाले कामगारों के जीवन के अधिकार की रक्षा करने और मनरेगा के अंतर्गत पंजीकृत श्रमिकों को काम करने की अनुमति देकर उनके स्वास्थ्य को जोखिम में डालने जैसे मुद्दे भी जनहित याचिकाओं में उठाये गये हैं.

सरकार को कोरोनावायरस महामारी के संकट पर काबू पाने और देशवासियों को इसके प्रकोप से बचाने के प्रयास के दौरान दायर हो रही इस तरह की याचिकाओं पर आपत्ति है. उसका तर्क है कि इस तरह की याचिकाएं इस संकट से ल़ड़ने के प्रयासों में बाधक बन रही हैं और फिलहाल ‘पीआईएल की दुकाने’ बंद की जानी चाहिए.

हालांकि, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि ये जनहित याचिकाएं संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाती रही हैं. किसी विषय विशेष से संबंधित जनहित याचिकाओं पर न्यायिक हस्तक्षेप कई बार कार्यपालिका और नौकरशाही के रवैये पर अंकुश लगाने और अगर कोई जांच चल रही है तो उसकी प्रगति पर नजर रखने मे मददगार होता है.

ऐसे भी अनेक मामले हैं जिनका न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया और उन्हें जनहित याचिका मे तब्दील किया. कोरोनावायरस संक्रमण के संदर्भ में देश की जेलों में कैदियों की भीड़ और बाल सुधार गृहों की स्थिति जैसे मुद्दों का न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया.

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न्यायालय में दायर होने वाली पीआईएल की बढ़ती संख्या को देखते हुये शीर्ष अदालत ने बार बार आगाह किया है कि ‘पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशन’ को ‘पॉलिटिकल इंटरेस्ट लिटीगेशन’ या ‘प्रायवेट इंटरेस्ट लिटीगेशन’ बनाने का प्रयास नहीं किया जाये.

कॉमन कॉज, पीयूसीएल, सेन्टर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस, सिटीजंस फॉर पीस एंड जस्टिस, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स, सेन्टर फॉर अकाउन्टेबिलिटी एंड सिस्टेमेटिक चेंज, कमेटी ऑन ज्यूडीशियल अकाउन्टेबिलिटी, कैंपेन फॉर ज्यूडीशियल अकाउन्टेबिलिटी एंड रिफार्म्स, मजदूर किसान शक्ति संगठन जैसे अनेक संगठन हैं जो जनहित याचिकाओं के माध्यम से जनता के उत्पीड़न, पुलिस अत्याचार और मौलिक अधिकारों के हनन के साथ ही भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाते रहते हैं.

इनके अलावा पूर्व नौकरशाह और सैन्य अधिकारी, जनप्रतिनिधि, वकील और सामान्य जनता भी जनहित याचिका दायर करती रहती है. इनमें से अनेक मामलों में उन्हे सफलता मिली है लेकिन कुछ मामलों में न्यायालय ने उन पर अच्छा खासा जुर्माना भी लगाया है.


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उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने में कई बार जनहित याचिकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. जनहित याचिकाओं में देश में पुलिस सुधार से लेकर लोकपाल कानून का सृजन तक अनेक मुद्दों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायालय में पहुंचने और फिर देश की राजनीति को प्रभावित करने वाले मामलों में बोफोर्स तोप सौदे से लेकर राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद, 2जी स्पेक्ट्रम आबंटन और कोयला खदान आबंटन प्रकरण ही नहीं सुर्खियों में आया बल्कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को भ्रष्टाचार के आरोपों में सीबीआई जांच तक का सामना करना पड़ा.

देश की चुनाव प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने, लोकतांत्रिक प्रकिया को बाहुबल तथा धनबल से मुक्त कराने, अदालत से दोषी ठहराये जाने की तारीख से सांसदों-विधायको की सदस्यता खत्म होने जैसी व्यवस्थाएं भी इसी जनहित याचिकाओं की देन हैं.

पहली नजर में कोरोनावायरस महामहारी के संकट से उत्पन्न चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में दायर होने वाली जनहित की याचिकाओं में कुछ भी अनुचित नजर नहीं आता, लेकिन सरकार का नजरिया भिन्न है.

सरकार का तर्क है कि केन्द्र और राज्य सरकारें तथा निचले स्तर तक पूरा प्रशासन युद्धस्तर पर इस महामारी के संकट से निपटने में जुटा हुआ है और ऐसे समय में न्यायालय में दायर होने वाली इन जनहित याचिकाओं के जवाब की तैयारी करने में उसका कीमती समय बर्बाद हो रहा है. सरकार का मानना है कि जनहित की याचिकाएं इंतजार कर सकती हैं. लेकिन महामारी से देशवासियों की जिंदगी बचाने की चुनौती इंतजार नहीं कर सकती है.

इस महामारी के संदर्भ में मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिये जनहित याचिका दायर करने वाले नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों पर कटाक्ष करते हुये सरकार ने न्यायालय से कहा है कि की पर्याप्त जानकारी के बगैर ही वातानुकूलित कार्यालय मे बैठकर पीआईएल दायर करना ‘जन सेवा’ नहीं है.

सरकार ने कोरोनावायरस संक्रमण शुरू होने के बाद सक्रिय हुये नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये काम करने वाले हर्ष मंदर, अंजलि भारद्वाज और समाजसेवी स्वामी अग्निवेश द्वारा दायर जनहित याचिकाओं पर आपत्तियां की थीं. इसके बाद, एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता अरूणा राय और मजदूर किसान शक्ति संगठन ने इस महामारी के दौरान मनरेगा श्रमिकों से काम कराने के मुद्दे की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया.

जनहित याचिका के माध्यम से उठाये गये तमाम मसलों में उच्चतम न्यायालय के सख्त रूख ने कार्यपालिका और नौकरशाहों के सामने बहुत ही असहज स्थिति पैदा होने लगी तो उन्होंने इसे न्यायिक सक्रियता का नाम देना शुरू कर दिया.

जहां तक जनहित याचिकाओं का सवाल है तो 1980 के दशक में बिहार की जेलो में विचाराधीन कैदियों की अमानवीय स्थिति और भागलपुर जेल में बंदियों की आंख फोड़ने की घटनायें शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाये जाने के बाद इसकी शुरूआत हुयी थी.


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पिछले चार दशकों में इसका दायर बहुत ही व्यापक हो गया है. अब मौलिके अधिकारों की रक्षा के लिये कोई भी नागरिक प्रधान न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य नयायाधीश को पत्र लिखकर मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों से जुड़ी समस्याओं की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित कर सकता है.

कोरोनावायरस महामारी संकट के परिप्रेक्ष्य में सरकार जनहित याचिकाओं के औचित्य पर सवाल उठा रही है और इस वजह से बचाव कार्यो में बाधा पड़ने जैसी दलीलें दे रही है. लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन्हीं जनहित याचिकाओं पर न्यायालय ने गंगा यमुना जैसी महत्वपूर्ण नदियों, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, पर्यावरण संरक्षण, वन्यजीवों, वनों और समुद्री जीवों के संरक्षण से लेकर ताजमहल जैसी धरोहरों और पुरातत्व महत्व के स्मारकों के संरक्षण जैसे अनेक मामलों में भी महत्वपूर्ण फैसले सुनाकर कार्यपालिका को उसके दायित्वों का अहसास कराया है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस तरह की जनहित याचिकाओं के प्रति किसी प्रकार का दुराग्रह रखने की बजाये इनमें उठाये जा रहे मुद्दों पर गंभीरता से विचार करेगी ताकि कोरोनावायरस संक्रमण से निबटने की लड़ाई के दौरान चिकित्सकों, नर्सो, मेडिकल स्टाफ, सुरक्षाकर्मियों, आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति बनाये रखने में जुटे अधिकारियों और कर्मचारियों के हितों की रक्षा करने के साथ ही इससे प्रभावित समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा भी सुनिश्चित हो सके.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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