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Tuesday, 23 April, 2024
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सुप्रीम कोर्ट का कोविड-19 पर मीडिया संस्थानों को दिया निर्देश क्या अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करेगा

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी सोशल मीडिया पर अनर्गल और फर्जी खबरों का प्रवाह रोकना सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती रहेगी.

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कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी से देशवासियों को बचाने और इस संक्रमण से प्रभावित लोगों के उपचार के लिये युद्ध स्तर पर काम कर रही सरकार के सामने इस समय ‘फर्जी, अपुष्ट और निराधार खबरों’ का प्रवाह और इस पर अंकुश लगाना बहुत बड़ी चुनौती बन गया है. वैसे यह पहला मौका नहीं है जब हमारे देश की सरकार सोशल मीडिया पर तैर रही भ्रामक और फर्जी खबरों की चुनौती का सामना कर रही है. इससे पहले भी कई अवसरों पर अपुष्ट, फर्जी, निराधार और भ्रामक खबरों ने हमारे समाज और जनता को उद्वेलित किया है.

ऐसा लगता है कि अगर फर्जी, अपुष्ट, और निराधार खबरों का प्रवाह नहीं थमा तो कोरोनावायरस से बचाव के लिये देश के नागरिकों को अपने घरों की लक्ष्मण रेखा नहीं लांघने की सलाह देने वाली सरकार इसके लिये भी एक लक्ष्मण रेखा खींचने जैसा कदम उठा सकती है.

सरकार चाहे तो ऐसा कदम उठाकर संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को सीमित या नियंत्रित कर सकती है. सरकारी पुष्टि के बगैर कोरोनावायरस के बारे में कोई भी खबर प्रसारित नहीं करने का मीडिया संस्थानों को निर्देश देने का सरकार का न्यायालय से अनुरोध कुछ ऐसा ही संकेत देता है.

संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(क) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत ही मीडिया को प्रेस की आजादी का अधिकार प्राप्त है लेकिन यह अधिकार निर्बाध नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर अनुच्छेद 19 (2) के तहत इसे नियंत्रित किया जा सकता है. इस संबंध में उच्चतम न्यायालय कई फैसले भी दे चुका है.

परंतु, सोशल मीडिया के दौर में अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करना या फिर किसी भी खबर या तथ्य को छिपाना आसान नहीं है. यह सोशल मीडिया और ऐसे ही दूसरे स्रोतों से निकल रही जानकारियों के बोलबाले का समय है. हां, यह कोई नहीं जानता कि इस तरह से सामने आ रही खबरों या तथ्यों की सच्चाई क्या है.

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शायद यही वजह है कि केन्द्र सरकार ने कोरोनावायरस वैश्विक महामारी के बारे में सोशल मीडिया और दूसरे स्रोतों पर चल रहीं नाना प्रकार की खबरों की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया. केन्द्र ने न्यायालय से अनुरोध किया कि मीडिया प्रतिष्ठानों को कोरोनावायरस संबंधी तथ्यों की सरकारी तंत्र से पुष्टि कराये बगैर ही इससे संबंधित खबरों का प्रसारण या प्रकाशन नहीं करने का निर्देश दिया जाये.


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केन्द्र सरकार के इस कदम ने ही इस नतीजे तक पहुंचने के लिये बाध्य किया है कि अगर कोरोनावायरस के संक्रमण के फैलाव, इसकी जांच प्रक्रिया, उपचार, इससे निपटने के उपायों और संसाधनों तथा इससे प्रभावित मरीजों की संख्या आदि के बारे में अधिकृत सूचना के बगैर मीडिया या सोशल मीडिया अथवा दूसरे मंचों पर ऐसी खबरें साझा की गयीं तो ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है.

सरकार पहले ही, कोरोनावायरस के बारे में दहशत पैदा करने और भ्रामक खबरें प्रकाशित करने के आरोप में वाराणसी , पूंछ और हिमाचल प्रदेश के एक-एक अखबार के खिलाफ कार्रवाई करने के कदम उठा चुकी है.

सरकार ने न्यायालय में यह भी कहा था कि इस महामारी जैसी अभूतपूर्व स्थिति में जानबूझकर या अंजाने में ही प्रिंट , इलेक्ट्रानिक, सोशल मीडिया या वेब पोर्टलों पर किसी फर्जी या गलत खबर के प्रकाशन या प्रसारण से समाज के एक बड़े वर्ग में अनावश्यक रूप से दहशत फैलने जैसे हालात पैदा हो सकते हैं. यही नहीं, इस संक्रामक रोग की प्रकृति को देखते हुये इस तरह की रिपोर्टिंग के आधार पर समाज के किसी भी वर्ग में दहशत भरी प्रतिक्रिया से मौजूदा हालात को ही नहीं बल्कि समूचे राष्ट्र को नुकसान पहुंचेगा.

हालांकि, प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस बारे में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दिया, लेकिन उसने अपने आदेश में इस संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पणी की है.

न्यायालय ने कोरोनावायरस की रोकथाम के लिये केन्द्र सरकार द्वारा अभी तक उठाये गए कदमों पर संतोष व्यक्त किया. लेकिन साथ ही फर्जी खबरों से उत्पन्न दहशत का भी जिक्र अपने आदेश में किया. न्यायालय ने कहा कि कोरोनावायरस की वजह से घोषित लॉकडाउन तीन महीने से ज्यादा समय तक जारी रहने की फर्जी खबरों की वजह से शहरों में कार्यरत कामगारों में दहशत फैल गयी और बड़ी संख्या में उनका पलायन होने लगा.

न्यायालय ने कहा कि इलेक्ट्रानिक, प्रिंट या सोशल मीडिया से निकलने वाली इस तरह की फर्जी खबरों की समस्या को नजरअंदाज करना संभव नहीं है. इस संबंध में शीर्ष अदालत ने आपदा प्रबंधन कानून की धारा 54 का भी जिक्र अपने आदेश मे किया है.

आपदा प्रबंधन कानून 2005 की धारा 54 में प्रावधान है कि किसी आपदा या संकट के बारे में मिथ्या संकट सूचना देना दंडनीय अपराध है. अगर कोई व्यक्ति किसी आपदा या संकट या इसकी गंभीरता के संबंध में आतंकित करने वाली मिथ्य संकट-सूचना या चेतावनी देता है तो दोषसिद्धि होने पर उसे एक साल तक की कैद या जुर्माने की सजा हो सकती है.

न्यायालय ने कहा है कि उसकी मंशा इस महामारी के बारे में खुलकर होने वाली चर्चा में हस्तक्षेप करने की नहीं है लेकिन हम मीडिया को निर्देश देते हैं कि इससे संबंधित गतिविधियों के बारे में सरकारी विवरण का हवाला दिया जाये और उसका प्रकाशन किया जाये.

न्यायालय ने अपने आठ पेज के आदेश में कहा है, ‘खासकर, हम मीडिया (प्रिंट, इलेक्ट्रानिक या सोशल) से जिम्मेदारी का जज्बा बनाये रखने और यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा करते हें कि ऐसी कोई अपुष्ट खबर नहीं दें जो दहशत पैदा करने में सक्षम हो.’

न्यायालय ने अपने आदेश में सालिसीटर जनरल के इस कथन को भी शामिल किया है कि सरकार सोशल मीडिया और अन्य मंचों सहित सभी मीडिया स्रोतों के माध्यम से जनता की शंकाओं के समाधान के लिये दैनिक बुलेटिन देने की व्यवस्था 24 घंटे के अंदर सक्रिय करेगी.

ऐसा लगता है कि सभी को मानो बगैर किसी जवाबदेही के जो चाहें वह सोशल मीडिया पर लिखने और अपलोड करने की छूट मिल गयी है. सोशल मीडिया या डिजिटल युग में अभिव्यक्ति के नाम पर संयमित और मर्यादित भाषा का विलोप होने लगा है.


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ऐसी स्थिति में बेहतर होगा कि हमारे देश में सोशल मीडिया पर चल रही फर्जी और पुष्ट खबरों के प्रवाह के मामले में सरकार या न्यायपालिका को हस्तक्षेप का अवसर देने से पहले हम स्वंय अपने लिये एक लक्ष्मण रेखा खींचे और इसके ही भीतर रहने का भरसक प्रयास करें.

कोरोनावायरस महामारी की खबरों के बारे में उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों और निर्देश के बाद फर्जी, अपुष्ट और निराधार खबरों के प्रवाह पर अंकुश लगने की उम्मीद है . इसके बावजूद, सोशल मीडिया पर इस तरह की अनर्गल और फर्जी खबरों का प्रवाह रोकना सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती रहेगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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