हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के फौरन बाद झारखंड में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. नई विधानसभा का गठन इसी साल के अंत तक हो जाना है. प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता रघुवर दास का दावा है कि भाजपा इस बार 65 सीटों का आकड़ा पार करेगी. दूसरी तरफ हाल में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों बुरी तरह पराजित हुए महागठबंधन के घटक दल के नेता हार से किसी तरह का सबक हासिल नहीं कर, आपसी रस्साकशी में लगे हुए हैं.
पिछले विधानसभा चुनाव (2014) में भाजपा अपने दम पर झारखंड विधानसभा में बहुमत के करीब पहुंच चुकी थी. 81 सदस्यीय विधानसभा में बीजेपी को 35 सीटें मिली थीं, जबकि सहयोगी दल आजसू पार्टी के छह विधायक निर्वाचित हुए थे. बीजेपी अब कई और विधायकों को अपने अंदर समाहित कर विधायकों की संख्या को 43 तक बढ़ा चुकी है.
विपक्षी खेमे की खींचतान
राज्य के प्रमुख विपक्षी दल इस समय साझा रैली-प्रदर्शन करने के बजाय अलग-अलग शक्ति प्रदर्शन में लगे हुए हैं. ताकि जब वे महागठबंधन को अंतिम रूप देने के लिए बैठें तो अधिक से अधिक सीटों पर अपनी दावेदारी पेश कर सकें. झामुमो नेता हेमंत सोरेन बदलाव यात्रा पर निकले हुए हैं और पूरे राज्य का दौरा कर रहे हैं, तो जेवीएम नेता बाबूलाल मरांडी ने 25 सितंबर को रांची में जनादेश समागम रैली कर अपनी उपस्थिति दर्ज की. कांग्रेस कोई बड़ी रैली करने की स्थिति में तो नहीं है, लेकिन जगह-जगह कार्यकर्ता सम्मेलन आदि कर रही है. पूर्व पुलिस अधिकारी रामेश्वर उरांव के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद इसमें तेजी आयी है. 24 सितंबर को उनके गृह जिले डाल्टेनगंज में कार्यकर्ता सम्मेलन हुआ.
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अलग-अलग रैली या सम्मेलन करने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन इन रैलियों और अपनी-अपनी पार्टी के शक्ति प्रदर्शनों के बीच भी मुख्यमंत्री पद के चेहरे और सीटों की दावेदारी को लेकर जिस तरह के बयान आते रहते हैं, उससे जनता के बीच अच्छा संदेश नहीं जा रहा होगा.
बीजेपी की तैयारियां
इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी घोषणाओं के पिटारे के साथ रांची में एक विशाल सभा कर चुके हैं. गृहमंत्री अमित शाह का भी एक दौरा हो चुका है और रघुवर दास संथाल परगना को टारगेट बना कर लगातार रैलियां और सभाएं कर रहे हैं. गैर-आदिवासी इलाकों में बीजेपी लगातार अच्छा प्रदर्शन करती आई है. उसकी कमजोरी आदिवासी इलाकों में है. इसलिए भाजपा के स्थानीय नेताओं ने इस बार आदिवासी इलाकों में अपनी ताकत झोंक दी है.
बीजेपी की योजनाबद्ध तैयारियों का एक पूरा तंत्र झारखंड में सक्रिय है. इसके मुकाबले विपक्षी खेमे में अफरातफरी है. पुलिस सेवा से राजनीति में आये अजय कुमार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे. लेकिन पुराने कांग्रेसियों से उनकी पटी नहीं और उन्हें मजबूरन कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा. उन्होंने खुल आम आरोप लगाया कि कांग्रेस में टिकट बिकता है. वे हाल में आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए. हालांकि, इसके बाद झारखंड में उनकी कोई गतिविधि नहीं है. लेकिन वे जब भी सक्रिय होंगे, महागठबंधन के लिए ही समस्याएं पैदा करेंगे.
मुख्यमंत्री पद के लिए विपक्ष का साझा उम्मीदवार कौन?
कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनते ही रामेश्वर उरांव ने इस बात को नकारना शुरू कर दिया है कि लोकसभा चुनाव के समय इस तरह का कोई समझौता झामुमो के साथ हुआ था, जिसके तहत विधानसभा चुनाव में महागठबंधन हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में सामने रख कर चुनाव लड़ेगा. जब झामुमो ने इसका विरोध किया, तो उन्होंने यह कहना शुरू किया कि सीटों का समझौता होने के बाद इस बात पर अंतिम फैसला लिया जायेगा.
बाबूलाल मरांडी के समर्थकों ने भी कहना शुरु कर दिया है कि मुख्यमंत्री के रूप में बाबूलाल का चेहरा आगे कर चुनाव लड़ना फायदेमंद होगा, क्योंकि बाबूलाल जनता के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं.
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झामुमो को लगता कि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते मुख्यमंत्री पद पर उसकी स्वाभाविक दावेदारी है. वह इस मुद्दे पर समझौता करने के मूड में नहीं है और बात न बनने पर अकेले चुनाव लड़ने की हद तक जा सकता है. दूसरी तरफ अन्य विपक्षी दलों की मंशा इस प्रश्न को विवादित कर अधिक से अधिक सीट प्राप्त करने भर की है. पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए मुख्यमंत्री पद पर झामुमो की दावेदारी को चुनौती देने की स्थिति में कोई अन्य विपक्षी दल नहीं है.
गत विधानसभा चुनाव में झामुमो ने 17 सीटें प्राप्त की थी. कांग्रेस ने महज 6 सीटें और बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम ने सिर्फ 8 सीटें जीती थीं. जेवीएम के आठ में से छह विधायक पार्टी छोड़ कर भाजपा में चले गये थे. पिछली कई घटनाएं इस बात की तरफ संकेत करती हैं कि प्रत्याशी बाबूलाल की पार्टी का इस्तेमाल कर राजनीति में प्रवेश तो करते हैं, लेकिन बाद में उनका दामन छोड़ जाते हैं. अजय कुमार भी बाबूलाल की पार्टी के मार्फत ही राजनीति में आये थे. वहां से कांग्रेस में गये और अब आप में.
इस बीच एमआईएम के नेता असदुद्दीन औवैसी रांची में एक बड़ी जनसभा कर चुके हैं. ओवैसी भाजपा की आलोचना करेंगे और उसे हराने के लिए वोट मांगेंगे लेकिन उनके चुनाव लड़ने से विपक्षी वोटों में ही बंटवारा बढ़ेगा. वैसे चुनाव में ही इस बात की परीक्षा होगी कि उनको सुनने आयी भीड़ उनकी पार्टी को वोट देती है या नहीं.
इन शक्ति प्रदर्शनों के बाद प्रमुख विपक्षी दल महागठबंधन को अंतिम रूप देने के लिए बैठेंगे. लेकिन उनके सामने कई अड़चनें हैं. झामुमो अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना चाहता है. उसका दावा कम-से-कम चालीस सीटों का है. शेष सीटों को कांग्रेस, जेवीएम, राजद के बीच बंटना है. कुछ लोगों का कहना है कि बाबूलाल मरांडी के पिछले आठ विधायकों में से चूंकि छह विधायक उन्हें छोड़ कर भाजपा में चले गये, इसलिए उनकी दावेदारी अब सिर्फ बची दो सीटों पर बनती है. बाबूलाल इस तरह की बातों से भड़क उठते हैं. उन्होंने कहा कि यदि इस तरह की बातें होंगी तो उनकी पार्टी अकेले तमाम सीटों पर चुनाव लड़ेगी. वैसी स्थिति में एक संभावना यह भी है कि वे नीतीश कुमार की जदयू के साथ मिल कर चुनाव लड़ें क्योंकि झारखंड में बीजेपी और जेडीयू का तालमेल होता नहीं दिख रहा है.
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इस बार वामदलों को भी विपक्षी गठबंधन में शामिल करने पर गंभीरता से विचार होगा. इस बात के संकेत झामुमो ने दिये हैं. वजह भी साफ है. वामदल जीतने की स्थिति में भले ही न हों, लेकिन कुछ जगहों पर खेल बिगाड़ने की स्थिति में हैं. लोकसभा चुनाव में दुमका सीट पर झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन की हार की एक प्रमुख वजह भाकपा प्रत्याशी सेनापति मुरमू की उपस्थिति भी रही, जिन्होंने 16,157 वोट प्राप्त किये थे. जन आंदोलनों के कुछ नेता भी विधानसभा चुनाव में शिरकत करना चाहते हैं. हालांकि उनकी महत्वाकांक्षा गिनी चुनी सीटें ही हैं.
कुल मिला कर विपक्षी दलों के गठबंधन का रास्ता बहुत आसान नहीं. क्योंकि सभी दलों के नेता भाजपा विरोधी मतों का विभाजन रोकने की बात तो कर रहे हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा और दलीय हितों को ऊपर रखकर चल रहे हैं.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है, यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)