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Thursday, 25 April, 2024
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झारखंड की राजनीति के केंद्र में क्यों है शिबू सोरेन

सरकार किसी की भी हो, लेकिन झारखंड की राजनीति के केंद्र में शिबू सोरेन ही हैं. अगला चुनाव भी इसका अपवाद नहीं होगा. आखिर क्या है इस नेता में खास?

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झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी झामुमो के सुप्रीमो शिबू सोरेन दुमका से 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुके हैं. राजनीति के खुले रंगमच पर वे अब खास-खास अवसरों या बैठकों में ही दिखाई देते हैं. कई लोग मानते हैं कि वे अब राजनीति के हाशिये पर चले गये हैं. झारखंड में विधानसभा चुनाव आने वाले हैं और ऐसे मौके पर ये जान लेना महत्वपूर्ण होगा कि ये शख्स पिछले चार दशकों से झारखंड की राजनीति पर इतना गहरा असर क्यों रखता है और अपने जीवन के संध्या काल में भी क्या वह अपनी अहमियत बनाए रख पाएगा?

शोषण के विरुद्ध लड़ाई से बनी पहचान

नई पीढ़ी को तो शायद यकीन भी नहीं होगा कि एक जमाने में शिबू सोरेन (जन्म -11 जनवरी, 1944) व्यवस्था और प्रभु वर्ग के लिए आतंक का पर्याय और सबसे बड़ी चुनौती थे. आदिवासियों के महाजनी शोषण के खिलाफ उन्होंने एक उग्र आंदोलन चलाया था, जिसमें माओवादियों जैसी संगठित हिंसा तो नहीं, लेकिन भीषण आक्रमकता थी. चूंकि व्यवस्था को चुनौती देना वाला हर शख्स सरकार की नजर में बागी होता है, इसलिए वे भी सरकार की नजर में बागी थे.

शिबू सोरेन आज संसदीय राजनीति में हैं. उस संसदीय राजनीति में जो काजल की ऐसी कोठरी में तब्दील हो चुकी है, जिसमें प्रवेश कर शायद ही कोई बेदाग रहा है. शिबू सोरेन भी अपवाद नहीं रहे. एक बागी जननेता से बाकी तमाम नेताओं की तरह राजनेता बनने की यात्रा शिबू सोरेन ने संसदीय लोकतंत्र में ही की. जनसंघर्षों के दौरान उनकी कमीज आज से कहीं ज्यादा उजली थी. लेकिन आज भी वे प्रभु वर्ग की आंखों में खटकते हैं. झारखंड के नेता के तौर पर प्रभु वर्ग को आदिवासी नेताओं में अर्जुन मुंडा स्वीकार्य हैं, मधु कोड़ा भी स्वीकार्य हैं, बाबूलाल मरांडी तो एक जमाने में उनके सबसे प्रिय आदिवासी मुख्यमंत्री थे, लेकिन शिबू सोरेन किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं हैं.

कांग्रेस में शामिल होने का प्रस्ताव और गुरुजी का इनकार

यहां इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि उन्हें गुरुजी की संज्ञा अपने समय के ईमानदार आईएएस अफसर केबी सक्सेना ने दी थी. इमरजेंसी के दौरान वे धनबाद जिले के उपायुक्त थे. बिहार की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने शिबू सोरेन को आत्म समर्पण करा कर संसदीय राजनीति में लाने का जिम्मा उन्हें ही सौंपा था. जानकारों के मुताबिक, इंदिरा गांधी इमरजेंसी के बाद होने वाले चुनाव के पहले आदिवासियों के उभरते नेता शिबू सोरेन को अपने पक्ष में रखना चाहती थी.

केबी सक्सेना अपने अधीनस्थों की मनाही के बावजूद शिबू सोरेन के टुंडी स्थित पोखरिया आश्रम पहुंचे थे, जो उनके आंदोलन का केंद्र था. उन्होंने वहां अनाज के भंडार देखे, एक बागी को बच्चों के लिए रात्रि पाठशाला चलाते देखा, शराबबंदी कराते और शराब के मटके फोड़ते देखा तो वे उन्हें गुरुजी कह बैठे. सक्सेना के मध्यस्थता करने पर शिबू सोरेन ने संसदीय राजनीति में प्रवेश किया. उनके सहयात्री बने बिनोद बिहारी महतो और एके राय. लेकिन उन्होंने झामुमो का कांग्रेस में विलय करने से इनकार कर दिया. वे जयपाल सिंह की गलती नहीं दुहराना चाहते थे, जिन्होंने अपनी झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया और राजनीति में अप्रासंगिक हो गए.

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शिबू सोरेन के साथ छल हुआ

तत्कालीन सरकार ने उस वक्त यह भी आश्वासन दिया था कि उनके खिलाफ दर्ज तमाम मुकदमों को उठा लिया जायेगा. लेकिन राजनीतिक षड्यंत्र और सत्ता से उन्हें दूर रखने के लिए जब तब इन मुकदमों को खोल दिया जाता है. उस दौर की ही एक प्रमुख घटना है 1975 का चिरुडीह कांड, जिसकी तपिश हाल तक शिबू सोरेन झेलते रहे. इसी मुकदमे की वजह से उन्हें यूपीए-1 के दौरान केंद्र में कोयला मंत्रालय छोड़ने को मजबूर किया गया. उस कांड में कई आदिवासी मारे गये थे और लगभग एक दर्जन अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी, जो महाजनों के साथ थे.


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इस मुकदमे से शिबू सोरेन बरी हो चुके हैं. एक अन्य मुकदमा उनके खिलाफ अपने सचिव शशि नाथ झा की हत्या का चलाया गया. हालांकि, इस मुकदमे में भी वे हाईकोर्ट से बरी हो चुके हैं, लेकिन उनके राजनीतिक विरोधी इसे जीवित रखने की कोशिश करते रहते हैं. गुरुजी के राजनीतिक विरोधियों का कहना है कि शिबू सोरेन के निजी सचिव शशिनाथ झा नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व काल में कांग्रेस और जेएमएम के बीच हुई सौदेबाजी को जान गये थे और शिबू सोरेन को ब्लैकमेल कर रहे थे. हालांकि ये आरोप बेबुनियाद साबित हुए. वैसे भी नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए झामुमो सांसदों द्वारा वोट डाले जाने का मामला बहुचर्चित रहा है और इस मामले में किसी तरह के ब्लैकमेल किए जाने की बात समझ से परे है.

सांप्रदायिक शक्तियों से हाथ मिलाने का आरोप

सांप्रदायिक शक्तियों से तालमेल के लिए भी शिबू सोरेन को दोषी ठहराया जाता है. हालांकि, इसके लिए बहुत हद तक कांग्रेस ही जिम्मेदार है. 2009 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने झामुमो के साथ चुनावी तालमेल न कर उनके विरोधी बाबूलाल मरांडी के झाविपा से तालमेल किया. राज्य में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में झामुमो के उभरने के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में समर्थन देने के बजाय कांग्रेस ने उन पर दबाव बनाया कि वे अपने विरोधी बाबूलाल मरांडी या किसी अन्य को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार कर लें. शिबू सोरेन ने आखिरकार कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और भाजपा के समर्थन से सरकार बना ली. लेकिन ज्यादा दिनों तक वे साथ चल नहीं सके.

प्रभु वर्ग को शिबू सोरेन पसंद नहीं

दरअसल, अभिजात्य राजनीति को शिबू सोरेन पसंद नहीं है. कॉरपोरेट जगत भी उन्हें अपने अनुकूल नहीं समझता. इसलिए भाजपा तो उनकी कट्टर विरोधी है ही, कांग्रेस को भी झारखंड में अपना राजनीतिक भविष्य उनकी तबाही में ही नजर आता है. कभी लकड़ी काट कर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने वाले शिबू सोरेन प्रभु वर्ग के लिए कैसे इतनी बड़ी चुनौती बन गये, इसे जानने के लिए आइये आपको हम उनके अतीत में ले चलते हैं. ये अंश मैंने अपने उपन्याय समर शेष है से संक्षिप्त रूप में लिया है.

आखिर कौन हैं शिबू सोरेन

रामगढ़-बोकारो मार्ग पर है गोला. गोला से एक सड़क नेमरा गांव तक जाती है जो उनका पैतृक गांव है. आधी दूरी तक कच्ची-पक्की सड़क. छिटपुट कई आदिवासी गांव. एक छोटा सा रेलवे स्टेशन बडलग्गा. उसके बाद है हेडबरगा. महाजनों का गांव. गांव के सामने आकाश छूता चंडू पहाड़. पहाड़ की तराई में उस बियावान सन्नाटे में एक चबूतरा बना है. सीमेंट की ही एक तख्ती जिस पर दर्ज है- ‘झारखंड क्रांतिस्थल, सांसद शिबू सोरेन के शहीद पिता स्व. सोबरन मांझी की स्मृति में निर्मित. शहीदी तिथि-27 नवंबर 1957.’

उस वक्त शिबू सोरेन और उनके बड़े भाई राजा राम गोला हाई स्कूल में पढ़ते थे और स्कूल के ही छात्रावास में रहते थे. सोबरन उनके लिए ही राशन पहुंचाने जा रहे थे कि रास्ते में महाजनों के गुंडों ने उनकी हत्या कर दी. उस कांड के बाद उनकी मां सोनामणि ने कहा कि बड़ा होने के बाद उनका बेटा ही इस अन्याय का प्रतिकार करेगा.

वे मुफलिसी के दिन थे. शिबू को पढ़ाई छोड़ जंगल से लकड़ी काटने जाना पड़ता. संघर्ष के उन्हीं दिनों में उनकी मुलाकात कई कम्युनिस्ट नेताओं से हुई. उनमें से एक मंजूर हसन थे, विधायक बनने के बाद जिनकी हत्या बाद में पटना में कर दी गई. सोबरन कांग्रेसी थे, शिबू सोरेन की राजनीतिक समझ कम्युनिस्टों के संसर्ग में बनी, लेकिन उन्होंने संघर्ष का अपना तरीका चुना. जन गोलबंदी कर जबरन उस खेत की फसल को काट लेना, जो आदिवासी की थी, लेकिन जिसे महाजनों ने छल-प्रपंच से अपने कब्जे में कर रखा था. उस आंदोलन को ‘धनकटनी आंदोलन’ के रूप में जाना जाता है.

उस आंदोलन का नैतिक आधार आदिवासियों की यह भावना है कि जिस जंगल झाड़ को साफ कर उन्होंने खेती लायक बनाया, उस जमीन पर हक उनका है. यह जमीन किसी राजा या जमींदार से उन्हें नहीं मिली. इसी भावना के तहत सिद्धो, कान्हू, तिलका मांझी अंग्रेजों से लड़े थे, बिरसा की अबुआ राज की संकल्पना का आधार यही था. शिबू सोरेन के आंदोलन की वैचारिक भूमि यही आदिवासी विचार था.


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उस आंदोलन के दौरान ही उनकी मुलाकात विनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एके राय से हुई. इनकी सम्मिलित ताकत से न सिर्फ महाजनी शोषण के खिलाफ संघर्ष तेज हुआ बल्कि कोयलांचल की माफियागिरी के खिलाफ भी झारखंडी जनता का संघर्ष तेज हुआ. झामुमो के गठन में भी इन तीनों नेताओं की बराबर की हिस्सेदारी थी. हालांकि यह दोस्ती बहुत दिनों तक चली नहीं. कामरेड राय शिबू सोरेन को आदिवासियों का महानायक बताते तो थे. लेकिन उनको लेकर उनके मन में शंकाएं भी थी. सूरज मंडल और ज्ञानरंजन जैसे तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने शिबू सोरेन को समझाया कि कम्युनिस्ट कभी तुम्हें तरक्की करने नहीं देंगे. शिबू सोरेन ने अपनी राजनीतिक दिशा तो बदली ही, वे टुंडी छोड़ कर संथाल परगना चले गये. कालांतर में लाल व हरे झंडे की मैत्री टूट गई.

लेकिन झामुमो उसी आंदोलन के पृष्ठभूमि पर खड़ी हुई और शिबू सोरेन के उसी संघर्ष की फसल वह आज तक काट रही है. कांग्रेस शिबू सोरेन की उसी विरासत की वजह से बार-बार उनके करीब आती है. झारखंड में विपक्षी राजनीति का पूरा दारोमदार आज भी शिबू सोरेन की विरासत पर निर्भर करता है. क्योंकि शिबू सोरेन अनेक कमियों और खामियों के बावजूद आज भी आदिवासियों के ‘दिशोम गुरु’ हैं.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है, यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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