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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतसीएए की जड़ें सावरकर-गोलवलकर में नहीं, बल्कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के नए हिंदुत्व में है

सीएए की जड़ें सावरकर-गोलवलकर में नहीं, बल्कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के नए हिंदुत्व में है

विरोध करने वालों ने इस बात पर गौर नहीं किया कि सीएए हिंदुत्व की एक नई परिष्कृत विचारधारा से निकला है, जिसमें पहले ही नागरिकता को एक राजनीतिक मुद्दा माना जा चुका था.

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नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का दो तर्कों के आधार पर विरोध किया जा रहा है. पहला ये कि धर्म आधारित नागरिकता की अवधारणा भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान की बुनियादी संरचना के प्रतिकूल है. दूसरा, संघ परिवार इस कानून का इस्तेमाल भारत को सचमुच का हिंदू राष्ट्र बनाने में करना चाहता है, पर सीएए का विरोध करने वालों ने हिंदुत्व की बदलती वैचारिक स्थिति पर ध्यान नहीं दिया है.

ये सही है कि सीएए संविधान निर्माताओं की संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना के प्रतिकूल है. लेकिन, विरोध करने वालों ने इस बात पर गौर नहीं किया है कि सीएए हिंदुत्व की एक नई परिष्कृत विचारधारा से निकला है, जिसमें नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) को संसद में पेश किए जाने से भी पहले नागरिकता को एक राजनीतिक मुद्दा माना जा चुका था.

एक नया हिंदुत्व

आरएसस और भाजपा (या इसका पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ) अयोध्या मामले से पूर्व के दिनों में अपनी राजनीतिक विचारधारा की व्याख्या के लिए हिंदुत्व शब्द के प्रयोग को लेकर बहुत सहज महसूस नहीं करते थे. हिंदुत्व हमेशा सावरकर और हिंदू महासभा से जुड़ा रहा था. सुप्रीम कोर्ट के 1997 के फैसले के बाद ही भाजपा ने औपचारिक रूप से हिंदुत्व को अपने दर्शन के रूप में स्वीकार किया.

इन वैचारिक अस्पष्टताओं को अंतत: आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने 2018 में आकर दूर किया. आरएसएस को एक खुला, लचीला और बदलाव-केंद्रित नेटवर्क बताते हुए उन्होंने हिंदुत्व शब्द का एक नया अर्थ गढ़ा और इस प्रयास में वे गोलवलकर के कतिपय सिद्धांतों को खारिज करने से भी पीछे नहीं हटे.

हिंदुत्व नागरिकता

भागवत नागरिकता को लेकर औपचारिक रूप से सीधे कोई टिप्पणी नहीं करते हैं. इसकी बजाय, वह हिंदुत्व के कुछ बुनियादी मूल्यों पर ज़ोर देते हैं, हमारे विचार से, हिंदुत्व की तीन बुनियादें हैं. देशभक्ति, पूर्वजों का गौरव और संस्कृति का सम्मान. संप्रदायों से संबद्ध मूल्यों की सामूहिक धारणा जो भारत की समग्रता से आई है. हिंदुत्व के रूप में जानी जाती है. ये भारत की पहचान है और, भारत इसी से है.’

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भागवत इसके बाद सावरकर की पूण्यभूमि वाली दलील को स्पष्ट करते हैं. वह कुछ धर्मों की मूल भारतीय जड़ों पर बल देते हुए इस्लाम और ईसाइयत को विदेशी धर्म करार देते हैं, पर सावरकर के विपरीत भागवत मुसलमानों के प्रति नरम हैं. उनका कहना है कि मुसलमानों के बगैर हिंदुत्व नहीं हो सकता.

उनके कहने का मतलब शायद ये है कि मुसलमानों को भारत में राजनीतिक बराबरी मिली हुई है, बावजूद इसके कि उनका धर्म यहां का नहीं है. हिंदुत्व की ‘दरियादिली’ वाली यह दलील आरएसएस के 2013 के संकल्प में मौजूद थी, जिसमें भारत सरकार से पाकिस्तान और बांग्लादेश के ‘उत्पीड़ित हिंदू, सिख और बौद्ध अल्पसंख्यकों’ को नागरिकता देने की अपील की गई थी. इसमें कहा गया है, ‘सरकार ये मानने से इनकार नहीं कर सकती है कि ये संबंधित सरकारों का आंतरिक मामला है. भारत में न सिर्फ तथाकथित अल्पसंख्यकों को संरक्षण और सुरक्षा मुहैया कराने के लिए बल्कि उनका तुष्टिकरण करने वाले विशेष प्रावधानों के लिए भी, तमाम संवैधानिक व्यवस्थाएं की गई हैं. जनसांख्यिकी, आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक दर्जे के आधार पर देखें तो वे हमारे देश में अच्छी स्थिति में हैं. बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं पर लगातार अत्याचार होते रहे हैं.’

बुनियादी भारतीय मूल्यों, मूल धर्मों/समुदायों और मुस्लिम शासन में उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों के बारे में हिंदुत्व की इस नई अवधारणा से जुड़े वैचारिक स्रोतों को सीएए वैधता प्रदान करता नजर आता है.

हिंदुत्व राष्ट्र का संवैधानिक देश

हिंदुत्व के इस पुनरीक्षित रूप को सही ठहराने के लिए भागवत देश और राष्ट्र में एक अहम विभेद करते हैं. वह राष्ट्र-राज्य की पश्चिमी अवधारणा को इस बिना पर खारिज करते हैं कि यह सांस्कृतिक पहचान (राष्ट्र) के ऊपर राजनीतिक इकाई (देश) को तरजीह देता है.

भागवत ने स्पष्ट किया है कि आरएसएस की दिचलस्पी भारत के संवैधानिक ढांचे को बदलने में नहीं है. इसकी बजाय, उन्होंने हिंदुत्व की अपनी व्याख्या के पक्ष में राष्ट्रीय सर्वसम्मति बनाने की आवश्यकता पर बल दिया है.

भागवत के अनुसार बीआर आंबेडकर ने संविधान सभा को याद दिलाया था कि हमारी राजनीतिक दासता का मुख्य कारण था भारतीयों के बीच आंतरिक संघर्ष, इसलिए हमें एक राष्ट्र के रूप में एकजुट होना चाहिए.

भागवत का मानना है कि उस वक्त कानूनी तरीकों से राष्ट्रीय एकता के इस आह्वान पर अमल करने को लेकर राष्ट्रीय सर्वसम्मति बनी थी, पर संविधान का एक और भी कार्य होता है. भागवत संविधान को एक नई राष्ट्रीय सर्वसम्मति स्थापित करने के साधन के रूप में देखते हैं, जिसे परिवर्तित किया जा सकता है, संशोधित किया जा सकता है और कानूनी प्रक्रिया के ज़रिए हिंदुत्व की विचारधारा के अनुरूप पुनरीक्षित भी किया जा सकता है.

नए हिंदुत्व से प्रेरित ये ‘राष्ट्रीय सर्वसम्मति’ दरअसल हिंदुत्व की राजनीति के एक नए पैकेज की ओर इशारा करती है. अयोध्या विवाद, अनुच्छेद 370 और तीन तलाक़/समान नागरिक संहिता कुल मिलाकर सुलझाए जा चुके मुद्दे हैं. आरएसएस/भाजपा अब लामबंदी की राजनीति के लिए इन पर निर्भर नहीं हो सकती है.


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सीएए भाजपा के उन विरोधियों को चुनौती देने के लिए रणनीतिक रूप से किया गया पहला व्यवस्थित हस्तक्षेप है, जो अब भी यही मानते हैं कि जल्दी ही इस संविधान को बदल दिया जाएगा. नहीं, हिंदुत्व को एक हिंदू देश नहीं चाहिए, इसके बजाय, यह हिंदुत्व राष्ट्र का संवैधानिक देश चाहता है.

(लेखक नॉट इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज़, फ्रांस में अध्येता (2019-20) और सीएसडीएस, नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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2 टिप्पणी

  1. हिलाल चितपावनिज्म को नही समझ पाये है वे या तो ब्राम्हणवाद द्वारा अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिये ऐतिहासिक और अर्वाचीन घृणित षडयंत्रों से अनभिज्ञ है या फिर मोहनभागवत की भलमनसाहत पर भोला विश्वास रखते है.

    • गणेश रायबोले एकदम सही है। जब भारत का सभी को न्याय देनेवाला सक्षम संविधान है तो मोहन भागवत को बार बार भारत को ततबाह करनेवाला और ब्राम्हणवाद की फिलोसोफी और व्यवस्था पे चलनेवाला हिन्दुराष्ट्र कौन चाहेगा? इसी ब्राम्हणी हिंदुत्व ने इस देश को हहजारों जातियों में बांट दिया, शुद्र कहकर इस देश के 85% मुलनिवासियों को हज्जारों साल गुलाम बनाकर रखा और उनका मुक्तिदाता बनकर डॉ. आम्बेडकर ने जो संविधान समस्त भारतीयों को ढिया, यही इनके निशाने पर है।
      -प्रा. जावेद पाशा, नागपूर

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