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Sunday, 5 May, 2024
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दिल्ली चुनाव में नागरिकता कानून को क्यों मुद्दा नहीं बनाएगी बीजेपी

नागरिकता कानून के विवाद के बीच हुए झारखंड चुनाव में बीजेपी हारी है. यही नहीं, कानून को लेकर हुए आंदोलन में गैर-मुसलमानों के शामिल होने से भी बीजेपी को झटका लगा है.

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बीजेपी दिल्ली के विधानसभा चुनाव में नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर यानी सीएए और एनआरसी को तरजीह देती नहीं दिख रही है. बीजेपी नेताओं के बयानों या उनके सोशल मीडिया पोस्ट से इसकी पुष्टि की जा सकती है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव घोषित होने के दिन अपने पांच ट्विट के जरिए दिल्ली चुनाव का एजेंडा रखा और दिलचस्प है कि इसमें सीएए-एनआरसी का जिक्र भी नहीं है.

ऐसे मौके पर, जब बीजेपी इन दोनों मुद्दों को उठाना नहीं चाहती, तब जेएनयू का विवाद मानो बीजेपी के लिए लॉटरी खुलने जैसी घटना हो गई है. नागरिकता के सवाल को लेकर देश में हो रहे हंगामे और विदेश में इस बारे में हो रही निगेटिव चर्चा बीजेपी को पसंद नहीं आ रही है. इसके मुकाबले बीजेपी आसानी से कह पाएगी कि जेएनयू में तथाकथित टुकड़े-टुकड़े गैंग से निपटने के लिए नरेंद्र मोदी सबसे उपयुक्त हैं. जेएनयू को लेकर गढ़ी गई सच्ची या झूठ छवि की वजह से, वहां होने वाला कोई भी विवाद बीजेपी को रास आता है.

5 जनवरी को जेएनयू में क्या हुआ, इसे लेकर अलग-अलग पक्षों की अलग व्याख्याएं हैं. दोषी कौन है और कौन नहीं, इसकी अपनी कहानियां हैं. दिल्ली पुलिस इसकी जांच कर रही है, जिसे लेकर भी तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि घटना के दिन दिल्ली पुलिस की सुस्ती से कई लोगों को शिकायत है. लेकिन, इतना तय है कि इस घटना ने तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया- अखबारों और चैनलों की हेडलाइन बदल दी है. यहां तक कि सोशल मीडिया की चर्चा भी सीएए-एनआरसी से हटकर जेएनयू पर चली गई.

नागरिकता संशोधन विधेयक को संसद ने 11 दिसंबर 2019 को पास किया. इस तरह नागरिकता संशोधन कानून अस्तित्व में आया. इस कानून का घोषित उद्देश्य पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आ गए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देना है. लेकिन इस कानून में जिस तरह से मुसलमानों को बाहर रखा गया, उस वजह से इस हिंदुत्व प्रोजेक्ट के तौर पर देखा गया. बीजेपी के ‘हिंदू बनाम मुसलमान’ की कोर पॉलिटिक्स में ये मुद्दा बिल्कुल फिट बैठता नजर आया. इसी बीच अमित शाह समेत कई बीजेपी नेताओं ने ये भी संकेत दे दिया कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन यानी एनआरएसी भी आएगा. इन दोनों को मिला कर देखने से बड़ी संख्या में लोगों के मन में सरकार के इरादों को लेकर डर बैठ गया. हम इस लेख में आगे जानेंगे कि ये डर सिर्फ मुसलमानों में नहीं है.


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अगर बीजेपी ने सोचा था कि सीएए-एनआरसी से उसे राजनीतिक लाभ होगा, तो कम से कम फौरी तौर पर तो ये होता नजर नहीं आया. इस वजह से ही बीजेपी ने, ऐसा लगता है कि अपनी रणनीति बदली है और नागरिकता के मुद्दे को फिलहाल के लिए ताक पर रखने या इसे मजबूती से न उठाने का फैसला किया है.

इसकी तीन वजहें हैं-:

1. नागरिकता मुद्दे से बीजेपी को चुनावी लाभ नहीं हुआ

इस विवाद के दौरान ही झारखंड में विधानसभा चुनाव हुए, जहां बीजेपी की सरकार हुआ करती थी. पहले चरण यानी 30 नवंबर के मतदान को छोड़ दें तो झारखंड में बाकी चार चरणों के मतदान नागरिकता को लेकर हुए विवाद के चरम दिनों में हुए. बीजेपी नेताओं, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष तथा गृहमंत्री अमित शाह शामिल हैं, ने नागरिकता विवाद को चुनावों के दौरान खूब उछाला. एक चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी ने कहा कि सीएए लाकर एनडीए सरकार ने देश को बचा लिया है. दुमका में एक चुनावी रैली में उन्होंने एक विवादास्पद बात कही कि नागरिकता कानून को लेकर जो लोग हंगामा कर रहे हैं, उन्हें ‘उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है.’ लेकिन बीजेपी को इन सब का कोई लाभ नहीं हुआ. यह नहीं कहा जा सकता कि नागरिकता का मुद्दा उठाने के कारण बीजेपी हार गई, लेकिन ये तो तय है कि नागरिकता का मुद्दा उसे चुनावी जीत नहीं दिला सका.

2. नागरिकता का सवाल हिंदू-मुसलमान मुद्दा नहीं बन पाया

पहली नजर में ऐसा लग रहा होगा कि सीएए में चूंकि सिर्फ मुसलमानों को बाहर रखा गया है. इसलिए इस मसले पर होने वाले आंदोलन में सिर्फ मुसलमान शामिल होंगे. लेकिन हुआ इसका उल्टा. इस आंदोलन में बेशक मुसलमान भी बड़ी संख्या में शामिल हुए, लेकिन ये सिर्फ मुसलमानों का आंदोलन नहीं रहा. इसमें इस्तेमाल हुए नारे, झंडे, प्रतीक, नेता, इन सब को देखें तो ये सर्वभारतीय आंदोलन साबित हुआ. इसमें राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान और जय हिंद और भारत माता की जय जैसे नारों का खूब प्रयोग हुआ. इस्लाम का हरा झंडा तो शायद ही कहीं नजर आया हो. इस आंदोलन में जो दो तस्वीरें सबसे ज्यादा दिखीं वे आंबेडकर और गांधी की थीं.

नेतृत्व के तौर पर भी इसमें विविधता रही. जामा मस्जिद पर हुए जमावड़े का नेतृत्व भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने किया तो जंतर-मंतर पर धरने का नेतृत्व योगेंद्र यादव कर रहे थे. कोलकाता में मार्च का नेतृत्व ममता बनर्जी ने किया तो पटना में धरने की अगुवाई तेजस्वी यादव ने की. चेन्नई में विशाल रैली का नेतृत्व डीएमके नेता एमके स्टालिन ने किया. इस कानून के खिलाफ आवाज उठाने के दौरान इतिहासकार रामचंद्र गुहा को हिरासत में लिए जाने की तस्वीर एक ऐसी इमेज थी, जो बीजेपी की योजना के विफल करने के लिए पर्याप्त थी.

3. सीएए और एनआरसी को लेकर दलितों-वंचितों और गरीबों में आशंकाएं

मुमकिन है कि बीजेपी ऐसा न चाहती हो, लेकिन खासकर एनआरसी को लेकर देश के गरीबों और वंचितों के मन में कई तरह की आशंकाएं घर कर गई हैं. अगर नागरिकता साबित करने के लिए लोगों को दस्तावेजी प्रमाण देने को कहा जाएगा तो सबसे ज्यादा मुश्किल गरीबों, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और मुसलमानों को होगी. चेन्नई की पत्रकार एस रुक्मणि ने सरकार द्वारा कराए गए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के आधार पर ये साबित किया है कि जो गरीब और वंचित हैं, वे दस्तावेज रखने के मामले में भी गरीब हैं. जन्म प्रमाण पत्र बनवाने के मामले में हिंदू सवर्ण सबसे आगे हैं और आदिवासी सबसे पीछे हैं. पांच साल से कम उम्र के बच्चों का आंकड़ा देखें तो सिर्फ 52 आदिवासी बच्चों के पास जन्म प्रमाण पत्र हैं. ऐसे लोग अगर एनआरसी को लेकर डर रहे हैं तो ये अकारण नहीं है.


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एनआरसी से सिर्फ मुसलमान डरते तो बीजेपी को शायद खुशी होती, लेकिन दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों में इसे लेकर डर का होना बीजेपी को रास नहीं आएगा.

खासकर तब जब दिल्ली में चुनाव की घोषणा हो चुकी है और बीजेपी के सामने अरविंद केजरीवाल के रूप में एक ऐसा प्रतिद्वंद्वी है, जो ऐसे किसी विवाद पर बात ही नहीं करता और सिर्फ काम के नाम पर वोट मांग रहा है.

(लेखक भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय पत्रकारिता और संचार में सहायक प्रोफेसर हैं. वे इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर भी रहे हैं. इन्होंने मीडिया और सोशियोलोजी पर कई किताबें भी लिखी हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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