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Friday, 4 October, 2024
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UN सुरक्षा परिषद में सुधारों का समयबद्ध कार्यक्रम बनाना वक्त की मांग

सुरक्षा परिषद की विफलताओं का मूल कारण इसके पांच स्थायी सदस्यों की बेहिसाब ताकत और उनका ‘वीटो पावर’ है. दुनिया जबकि लोकतंत्र की दुहाई दे रही है, यह परिषद सबसे आलोकतांत्रिक संस्था नज़र आती है.

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इस महीने आयोजित संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) के 79वें अधिवेशन में दुनियाभर के मसलों पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई. पिछले साल की तरह इस बार भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में किए जाने वाले बहुचर्चित सुधारों पर काफी ज़ोर दिया गया. ‘भविष्य के लिए शिखर सम्मेलन’ बताए जा रहे इस अधिवेशन में दुनिया भर के नेताओं को जलवायु परिवर्तन से लेकर यूक्रेन और गाज़ा में जारी लड़ाइयों जैसी तात्कालिक चुनौतियों पर विचार किया. इस अधिवेशन ने इन चुनौतियों का प्रभावी मुकाबला करने के लिए अधिक समावेशी बहुपक्षीय व्यवस्था बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया.

यूएनजीए-2024 का यह अधिवेशन अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए एक निर्णायक मौका रहा क्योंकि इसने जटिल भू-राजनीतिक परिदृश्य में से रास्ता बनाने की कोशिश की. चर्चाओं में भविष्य के लिए उम्मीद और तत्परता दिखी और नेताओं ने वैश्विक चुनौतियों से निबटने के लिए सामूहिक कार्रवाई करने पर ज़ोर दिया.

‘भविष्य के लिए शिखर सम्मेलन’ का विचार संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस की देन है. अपनी एक विरासत छोड़ जाने के इच्छुक गुटेरेस ने इसे ‘कई पीढ़ियों के बाद उभरा एक ऐसा मौका’ बताया जब 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए न केवल संयुक्त राष्ट्र बल्कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को भी सुधारा जा सकता है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की समस्याएं

संयुक्त राष्ट्र की सभी संस्थाओं में से जिस संस्था को सबसे ज्यादा सुधार की ज़रूरत है वह है सुरक्षा परिषद. पिछले 70 साल में इसने कुछ उल्लेखनीय सफलताएं तो हासिल की, लेकिन इसका कुल रिकॉर्ड सिफर के बराबर रहा है.

सुरक्षा के लिए जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, महामारी जैसे गैर-पारंपरिक खतरों का जवाब देने में वह मुश्किलों का सामना करती रही है. इन समस्याओं के लिए ऐसी सहकारी रणनीतियों की ज़रूरत है जो देशों की सीमाओं में नहीं बंधतीं, लेकिन सुरक्षा परिषद देश-केंद्रित सैन्य संघर्षों पर अटकी रहती है. यह संकीर्ण दृष्टिकोण अस्थिरता के मूल कारणों का प्रभावी निबटारा करने की उसकी क्षमता को बाधित करता है.

इसके अलावा, दुनिया में सबसे लंबे समय से जारी संघर्षों का समाधान करने की उसकी अक्षमता एक मध्यस्थ के तौर पर उसकी वैधता और प्रभावशीलता पर सवाल खड़े करती है. ऐसे लंबे संघर्षों में इज़रायल-फलस्तीन संघर्ष का नाम लिया जा सकता है, जिसके खिलाफ कई प्रस्ताव तो पास किए गए, लेकिन स्थायी शांति नहीं कायम हो पाई.

सुरक्षा परिषद की विफलताओं का मूल कारण इसके पांच स्थायी सदस्यों (‘पी-5’) की बेहिसाब ताकत और उनका ‘वीटो पावर’ (किसी भी प्रस्ताव को खारिज करने का अधिकार) है. दुनिया जबकि लोकतंत्र की दुहाई दे रही है, सुरक्षा परिषद मूलतः सबसे आलोकतांत्रिक संस्था नज़र आती है.

इसलिए उसमें सुधार की मांग हर बीतते साल के साथ तेज़ होती जा रही है और कई देश इसे अधिक समावेशी तथा प्रातिनिधिक संस्था बनाने की मांग कर रहे हैं. सुधारों को लेकर जारी बहस के प्रमुख मसले ये हैं — सुरक्षा परिषद में ज्यादा सदस्य शामिल किए जाएं, स्थायी सदस्यों की संख्या भी बढ़ाई जाए और वीटो पावर को सीमित किया जाए या खत्म ही कर दिया जाए क्योंकि यह स्वाभाविक न्याय के खिलाफ है.

लेकिन यह बहस एक दशक से ज्यादा समय से चल रही और इस पर कोई वास्तविक प्रगति नहीं हुई है. इसकी प्रमुख वजह यह है कि ‘पी-5’ गुट इस मामले पर सिर्फ ज़बानी पहल ही करता रहा है.


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सुधार की ज़रूरत

सदस्य देश निम्नलिखित प्रमुख सुधारों पर व्यापक तौर पर सहमत हैं —

सदस्यता का विस्तार: सुरक्षा परिषद की सदस्यता के विस्तार करके उसमें स्थायी और अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने के प्रस्ताव को सबसे ज्यादा समर्थन हासिल है. इससे मौजूदा वैश्विक सत्ता समीकरण का इस संस्था में बेहतर प्रतिनिधित्व होगा और विभिन्न क्षेत्रों और देशों को भी समान प्रतिनिधित्व मिलेगा.

नए देशों को स्थायी सदस्यता: ‘जी-4’ देश भारत, ब्राज़ील, जर्मनी और जापान स्थायी सदस्यता के लंबे समय से मजबूत दावेदार बने हुए हैं. इनका कहना है कि उनका आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभाव और विश्व शांति एवं सुरक्षा में उनके योगदान उन्हें परिषद में स्थायी सदस्यता का हकदार बनाते हैं. संयुक्त राष्ट्र के अमन बहाली कदमों में भारत का जो मजबूत योगदान रहा है वह उसे इस ऊंची मेज पर बैठने की स्वाभाविक पसंद बनाता है.

वीटो पावर की सीमा: सुधारों पर बहस का एक और अहम पहलू है — पांच स्थायी सदस्य देशों के वीटो पावर को सीमित या रद्द करना. इस अधिकार का अक्सर मनमाना इस्तेमाल किया गया है और अहम प्रस्तावों को रोकने और वैश्विक संकट के मामले में पहल करने की परिषद की क्षमताओं को कमजोर करने के लिए वैश्विक हितों की जगह संकीर्ण घरेलू पहलुओं को तरजीह दी जाती रही है. इस अधिकार को रद्द करने से परिषद अधिक लोकतांत्रिक तो बनेगा ही, स्थायी सदस्यता का कहत्व और उसके लिए मारामारी कम होगी.

क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व: क्षेत्रों का, खासकर अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और मध्य-पूर्व का प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर भी ज़ोर दिया जा रहा है. इससे परिषद विभिन्न क्षेत्रों के दृष्टिकोणों तथा हितों का प्रतिनिधित्व करने लगेगा. महादेशों में सबसे बड़ा, अफ्रीका सबसे ज्यादा संघर्षों से भी त्रस्त रहा है, जहां संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप की सबसे ज्यादा ज़रूरत है, लेकिन उसे कोई प्रतिनिधित्व नहीं हासिल है.


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चुनौतियां कायम

सुरक्षा परिषद में सुधारों की मांग को व्यापक समर्थन तो हासिल है लेकिन कई चुनौतियां जस की तस हैं. प्रमुख बाधा यह है कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में कोई भी संशोधन महासभा के दो तिहाई सदस्यों और सभी पांच स्थायी सदस्यों की मंजूरी के बाद ही हो सकता है. इसका अर्थ यह हुआ कि वीटो पावर को सीमित या रद्द करने की मंजूरी उन्हीं देशों से लेनी पड़ेगी, जिन्हें यह अधिकार हासिल है.

इसके अलावा, सदस्य देश सुधारों के ब्योरे से अलग मत रखते हैं. कुछ देश परिषद के पूरे ढांचे को ही बदलने की बात कर रहे हैं. कुछ देश चरणबद्ध सुधार के पक्ष में हैं, जैसे स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाए मगर वीटो पावर को कायम रखा जाए. ‘पी-5’ वाले देश इसके पक्ष में हो सकते हैं. इस तरह के अलग-अलग दृष्टिकोण एक आम सहमति पर पहुंचने और आगे कदम बढ़ाने में बाधक बनते हैं.

जो भी हो, देशों का ख्याल किए बिना सुधारों के व्यापक आयामों को उजागर करते एक प्रस्ताव को तो आमसभा में पेश किया ही जाना चाहिए.

वैसे, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों से जुड़ी कई अहम बातें महासभा 2024 में हुईं :

स्थायी सदस्यता के लिए भारत का दावा: संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि, राजदूत पी. हरीश ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की मांग फिर से उठाई और दस्तावेज़बद्ध वार्ता तथा विश्व शांति तथा सुरक्षा में भारत के योगदानों को रेखांकित किया.

फिनलैंड का प्रस्ताव: फिनलैंड के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर स्टब ने सुरक्षा परिषद में महत्वपूर्ण बदलाव करने, उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर दोगुनी करने और स्थायी सदस्यों की एक सीट वाले वीटो पावर को खत्म करने की मांग की है. उनका कहना है कि परिषद को अधिक प्रभावी तथा प्रातिनिधिक बनाने के लिए ये बदलाव ज़रूरी हैं.

‘ग्लोबल साउथ’ वाला नज़रिया: दुनिया के अविकसित, विकासशील आदि अधिक समतापूर्ण बहुपक्षीय व्यवस्था की जोरदार मांग करते रहे हैं. उन्होंने ऐसे सुधारों की मांग की है जिनसे वैश्विक सत्ता व्यवस्था में उनकी आवाज़, उनके अधिकारों और हितों को मजबूती मिले — खासकर कर्ज़ से राहत, विकास के लिए सहायता, जलवायु से संबंधित वित्तीय व्यवस्था जैसे मामलों में.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों का मसला चुनौतियों से भरा है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा 2024 में हुई चर्चाओं ने उनकी तात्कालिकता और महत्व को उजागर किया है. वक्त की मांग यह है कि सिर्फ विचार-विमर्श से आगे बढ़कर सुरक्षा परिषद में उन सुधारों को तय करने और लागू करने का समयबद्ध कार्यक्रम बनाया जाए जो अरसे से अटके हुए हैं.

(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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