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Sunday, 6 October, 2024
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बाज़ार तो जीत गया, अब अडाणी तय करें कि वे हारेंगे या नहीं

इस तरह की परिस्थिति में राजनीतिक सत्तातंत्र अगर यह फैसला करता है कि एक कॉर्पोरेट और बाज़ार आपस में निबट लें तो यह माना जाएगा कि भारत में पूंजीवाद समझदार हो गया है.

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इस सप्ताह यह कॉलम गौतम अडाणी के बारे में नहीं है बल्कि भारतीय पूंजीवाद के बारे में है.

आज़ाद भारत का या कहें कि 1991 की गर्मियों के बाद के इतिहास में यह भारतीय पूंजीवाद की सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी है. 90 के दशक में, जब से भारतीय बाज़ारों का विस्तार होने लगा और उनका आधुनिकीकरण हुआ, तब से उसे कई संकटों का सामना करना पड़ा है.

इन संकटों में हर्षद मेहता, केतन पारेख, फेयरग्रोथ आदि के रूप में कई घोटाले शामिल हैं. हर एक के कारण भारतीय बाज़ारों और आम भारतीयों में विकसित हो रही नई इक्विटी संस्कृति के पंगु हो जाने का खतरा पैदा हुआ. यह नई इक्विटी संस्कृति नये पूंजीवाद के लिए काफी महत्वपूर्ण है.

हर एक घोटाले ने संसद को हिला कर रख दिया, कई नेकनीयत निवेशकों को कंगाल कर दिया और कुछ बदनीयतों को थोड़े दिनों के लिए ही सही, जेल की भी हवा खानी पड़ी, लेकिन उन घोटालों, और आज जो हुआ है उनमें पांच महत्वपूर्ण अंतर हैं—

  • उनमें से कोई भी संकट जब खड़ा हुआ था तब भारतीय बाज़ार की अर्थव्यवस्था, ग्लोबल मार्केट और अर्थव्यवस्था से नहीं जुड़ी हुई थी.
  • वह सब घरेलू बाज़ारों के संकट थे, जिनमें वित्तीय या नियमन (रेगुलेटरी) संस्थाओं के घरेलू हस्तक्षेप से या वित्त मंत्रालय से किए गए एक फोन से भी फर्क पड़ सकता था. आज जो संकट खड़ा हुआ है वह पूरी तरह से ग्लोबल बाज़ारों में है और अहम बात यह है कि यह अंतरराष्ट्रीय मीडिया में फैल रहा है.
  • अधिकतर पुराने संकट—उदाहरण के लिए केपी-7 (केपी यानी केतन पारेख) उन भारतीय कंपनियों से संबंधित थे, जो अपना अधिकांश कारोबार भारत में चला रहे थे. ताज़ा संकट तो भारत के सबसे ग्लोबल कॉर्पोरेट से संबंधित है.
  • पुराने संकट यहां उभरे और उनका पर्दाफाश भारत के ही पहरुओं (व्हिसलब्लोअरों) या खोजी पत्रकारों ने किया था. ताज़ा संकट का खुलासा एक विदेशी एवं छोटे-से वित्त संस्थान ने किया है.
  • इस कॉलम में पांचवां और सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि यह ताज़ा कोलाहल व्हिसलब्लोअरों ने शुरू नहीं किया, न ही एक्टिविस्ट शेयरधारकों ने शुरू किया, बल्कि ये वो लोग हैं जो शुद्ध रूप से मुनाफा चाहते हैं, जो शेयरों की ‘शॉर्ट सेलिंग’ (शेयरों के मालिक बनने से पहले बिक्री) करके पैसा बनाना चाहते हैं. उनका निहित स्वार्थ इसमें है कि वे जिस कंपनी में ‘निवेश’ कर रहे हैं उसके अमेरिका में बेचे जा रहे बॉन्ड्स और गैर-भारतीय बाज़ार में बेचे जा रहे ‘इन्स्ट्रूमेंट्स’ की ‘शॉर्ट सेलिंग’ करके उसके शेयर की कीमत नीचे गिराएं. आपसे किसने कहा कि आप शेयर बाज़ार से केवल तभी पैसा बना सकते हैं जब शेयरों के दाम ऊपर चढ़ें?

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इस पांचवें अंतर को हम जिस वजह से सबसे महत्वपूर्ण बता रहे हैं वह बहुत सीधी है- जब विदेशी लोग हमारी कंपनियों में निवेश करते हैं और हमारी कंपनियों को विदेशी शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध किया जाता है, जब दुनिया हमारा गुणगान करती है, जब एफडीआई और एफपीआई के आंकड़े ऊपर चढ़ते हैं, तब हम जश्न मनाते हैं, लेकिन जब इन सभी के साथ गिरावट भी आती है तब क्या उसे झेलने की ताकत हमारे अंदर है?

पहली बात यह है कि हममें या हमारी सरकार में, वित्तीय संस्थाओं या रेगुलेटरों में इतनी ताकत नहीं है कि ‘बाज़ार’ नामक इस ताकतवर चीज़ पर कोई काबू कर सकें.

दूसरी बात, यह कबूल करना पड़ेगा कि जो नये खिलाड़ी जैसे दिखते हैं वे भी बाज़ार में आपके सबसे बड़े समूह को पछाड़ कर भारी मुनाफा कमा सकते हैं. अच्छी पूंजीवादी व्यवस्था में बाज़ारों पर कोई राष्ट्रवादी चश्मा नहीं लगा होता है. अगर पैसे का कोई रंग नहीं होता, तो वह पासपोर्ट भी नहीं रखता और जो लोग बाज़ार में पैसे से खेलते हैं उनके लिए पैसे से उनका प्यार ही सर्वोपरि होता है. तमाम राष्ट्रीय, राजनीतिक, या सैद्धान्तिक निष्ठाएं इसके बाद ही आती हैं.

इन्हीं वजहों से हम इस ताज़ा संकट को भारतीय पूंजीवाद के लिए अब तक की सबसे कठिन परीक्षा मान रहे हैं और इस संकट ने बाज़ार में जब पूरा एक हफ्ता बिता लिया है तब हमारा निष्कर्ष यह है कि भारतीय पूंजीवाद ने यह परीक्षा पास कर ली है. इसने 10 में से 10 नंबर हासिल किए हैं. आपको हैरानी हो रही है?

करीब दो सप्ताह बीतने जा रहे हैं और मोदी सरकार ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा. किसी रेगुलेटरी संस्था ने बाज़ार में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया, अडाणी ग्रुप इस झटके का सामना बेहतर तरीके से कर सके इसके लिए उसकी मदद तक करने की कोई कोशिश नहीं की गई.


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इस ग्रुप को अपने बूते पर छोड़ दिया गया. ज्यादा-से-ज्यादा यही किया गया- नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) ने सामान्य और समझदारी भरा कदम उठाते हुए, अधिक अटकलबाजी को रोकने के लिए मार्जिन भुगतान में वृद्धि कर दी. शेयर बाज़ार में जब भारी उथलपुथल मची हो तब यह करना एनएसई का अधिकार भी है.

अडाणी ग्रुप ने इसे भारत और इसकी संस्थाओं को नुकसान पहुंचाने की विदेशी साजिश करार दिया, लेकिन सरकार, वित्त मंत्रालय, रेगुलेटरों और शासक दल के नेतृत्व ने इस पर चुप्पी साध रखी है.

पांच दशकों में भारत की सबसे ताकतवर राजनीतिक सत्ता अगर ऐसी परिस्थिति में इस तरह का संकेत देती है कि इस मामले को कंपनी और बाज़ार आपस में ही निबटाए, तो यही माना जाएगा कि भारतीय पूंजीवाद अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. यह ऐसा ही है मानो ‘कानून को अपना काम करने दो’ की जगह ‘बाज़ार को अपना काम करने दो’ नया मंत्र बन गया हो.

इसके विपरीत, यह सोचिए कि जब हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत नहीं हुई थी तब ताकतवर भारतीय सत्तातंत्र इस स्थिति में जो करता वही अगर उसने आज किया होता तो क्या होता. तब ट्रेडिंग को स्थगित करने और ‘लालची, अनैतिक, मनमाने’‘शॉर्ट सेलरों’ के खिलाफ जांच शुरू करने जैसे बुरे विचार हावी हो जाते.

ऐसे किसी कदम की आहट भी भारतीय बाज़ारों को फलती-फूलती नयी अर्थव्यवस्था जिस वैश्विक भरोसे पर आधारित है उसे और हमारे नये उभरते पूंजीवाद को भारी नुकसान पहुंचा सकती थी और मेहरबानी करके यह मत कहिए कि यह सब बकवास है, कि कभी ऐसा कुछ होगा. वोडाफोन मामले में पिछली तारीख से किए गए संशोधन से भारत पर दुनिया के भरोसे को जो घाव लगा था वह अभी तक भरा नहीं है. गनीमत है कि इस तरह के विचार आज नहीं उभर रहे हैं.

पूंजीवाद को अपनाने की एक शर्त यह भी है कि मुनाफे की तरह घाटा भी व्यवसाय का हिस्सा है. कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकता कि बाज़ार में केवल में मुनाफा ही होगा.

तभी तो म्यूचुअल फंड बेचने वाले यह वैधानिक चेतावनी दोहराते रहते हैं कि म्यूचुअल फंड/इक्विटी के साथ मार्केट रिस्क जुड़ा है. इन निवेशों के साथ जोखिम जुड़ा होता है इसीलिए सरकार इक्विटियों और इक्विटी म्यूचुअल फंड पर सामान्य से कम दर पर कैपिटल गेन टैक्स वसूलती है.

इसलिए, आम आदमी के लिए सबक यही है कि जब टी-20 मैचों के टीवी प्रसारण में खेल के ओवरों के बीच इस वैधानिक चेतावनी के विज्ञापन बार-बार दिखाए जाएं तो वे खीजें नहीं. घाटा भी बाज़ार का उतना ही बड़ा हिस्सा है जितना मुनाफा है. हिंडेनबर्ग रिपोर्ट ने हमें केवल यही याद दिलाया है कि अगर आप ऐसे ‘शॉर्ट सेलर’ हैं जो जानकार है और जिसमें कुव्वत है, तो आप ‘घाटे’ में से भी मुनाफा कमा सकते हैं.

खासकर भारत जैसा बड़ा और विस्तृत बाज़ार इसलिए ताकतवर होता है कि उसे कभी किसी एक व्यक्ति से नहीं पहचाना जा सकता. एक क्या, कई के नाम से भी नहीं और किसी के संगी-साथी के नाम से भी नहीं. इसे अरबों अनाम पैसेवालों की भीड़ के रूप में ही देखिए. संख्या में ही सुरक्षा है और यह सुरक्षा बाज़ार को चलाने वाले इस एक सिद्धांत के कारण और पक्की हो जाती है कि- मुझे अपने पैसे से प्यार है.

लोग इस या उस देवता के भक्त हो सकते हैं, वे किसी एक पार्टी को वोट दे सकते हैं और दूसरे से नफरत कर सकते हैं, फुटबॉल या आईपीएल के किसी एक फ्रेंचाइज़ को पसंद कर सकते हैं और दूसरे को नापसंद कर सकते हैं, लेकिन अपनी इन पसंद-नापसंद से बाज़ार को प्रभावित नहीं होने दे सकते.

यहां सिर्फ एक चीज़ मायने रखती है और वह है ‘मेरा पैसा’. यहां मैं बेशक गलत चुनाव कर सकता हूं, लेकिन अपनी राजनीति, धर्म या आस्थाओं की वज़ह से नहीं. इसीलिए पैसा सबसे धर्मनिरपेक्ष भगवान है और यह बाज़ार को सबसे शक्तिशाली बादशाह बना देता है, कम-से-कम पूंजीवाद की दुनिया में तो ज़रूर.

जब आप बाज़ार में हैं, चाहे एक कॉर्पोरेट के रूप में हों या व्यवसाय समूह, दलाल, बैंकर या आम ट्रेडर या निवेशक के रूप में, हमेशा इस बुनियादी उसूल को याद रखिए कि आपका कद चाहे कितना भी ऊंचा हो, बाज़ार का कद आपसे ऊंचा ही रहेगा.

ताजा मुकाबले में बाज़ार जीत गया है. अब अडाणी को फैसला करना है कि उनकी हार हुई है या नहीं. हार मानने का मतलब होगा कि उन्हें बाज़ार, पैसे या दूसरे दबावों से लड़ाई जारी रखनी पड़ेगी और ‘शॉर्ट सेलर’ की कथित बुरी मंशा की ओट लेनी पड़ेगी.

दूसरा रास्ता यह हो सकता है कि झटके को बाज़ार में आए एक बुरे वक्त के रूप में स्वीकार कर लें. कई बेहतर तथा भरपूर नकदी देने वाले व्यवसायों और एसेट्स पर ज्यादा ध्यान दें, जो अभी-अभी टूट गया है उसे फिर से जोड़ें और यह उम्मीद रखें कि आगे बाज़ार फिर से आपको चाहने लगेगा. यही अच्छा पूंजीवाद होगा.

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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