किसी आदमी को सप्ताह में कितने घंटे काम करना चाहिए, इस सवाल को लेकर पिछले दिनों काफी हंगामा हुआ. हमने विचार-विमर्श की जगह हंगामा शब्द का इस्तेमाल जान-बूझकर किया है. दरअसल पहले इनफोसिस के संस्थापक एन.आर. नारायणमूर्ति ने सप्ताह में 70 घंटे, और फिर लार्सन-टूब्रो के चेयरमैन एवं मैनेजिंग डाइरेक्टर एस.एन. सुब्रह्मण्यम ने 90 घंटे काम करने का सुझाव दिया था जिस पर इतना हंगामा मचा कि उसमें कोई विचार-विमर्श संभव नहीं था. अब मेरे जैसा लापरवाह व्यक्ति भी इस बहस में शामिल हो रहा है, और वह भी ‘गलत’ पक्ष की ओर से.
इस बेहद छोटी और बेबाक अल्पसंख्यक जमात की ओर से लड़ने के लिए वाकई साहसी मोहनदास पै सामने आए, जो इनफोसिस के पुराने प्रबंधकों में शुमार हैं. उद्यमी और नये जमाने के निवेशक संजीव बिखचंदानी ने भी X पर एक लंबा पोस्ट लिखा जिसमें उन्होंने सुब्रह्मण्यम की प्रशंसा की और आहिस्ते से यह भी कहा कि पूरे कार्यकाल में लगातार 90 घंटे काम करना मुमकिन नहीं है. वैसे, ज़्यादातर प्रतिक्रियाएं ग्रेटा ठनबर्ग मार्का ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ऐसी बात कहने की!’ जैसी थीं.
गुस्सा इतना था, सोशल मीडिया पर आक्रामक मीम्स की ऐसी बाढ़ आ गई थी, खासकर नई पीढ़ी इतनी मुखर थी कि मेरे जैसे मोटी चमड़ी के आदमी ने भी डर कर बहादुरी दिखाने की जगह सावधानी बरतना ही बेहतर समझा. लेकिन काफी सोच-विचार के बाद मैंने बौद्धिक कायरता को झटक देने का फैसला किया है.
नारायणमूर्ति और सुब्रह्मण्यम, दोनों को यह सुझाव देने का पूरा अधिकार है कि लोग अपने लिए, अपनी कंपनियों के लिए और देश के लिए अधिक कमाई करने के वास्ते ज्यादा घंटे काम करें. बेशक वे किसी पर इसके लिए दबाव नहीं डाल सकते. अगर आप उनकी कंपनियों में काम करते हैं और उनकी बातें आपको पसंद नहीं हैं तो आप बेशक दूसरी कंपनी में जा सकते हैं.
सारे कर्मचारी एक जैसे तेज या उत्पादक नहीं होते. आप कैसा काम करते हैं यह आपके सालाना ‘एप्रेजल’ (आकलन), आपको मिले बोनस, या कंपनी में आपको दी जाने वाली हिस्सेदारी से उजागर होता है. मैं मानता हूं कि कार्यस्थल पर प्रतिस्पर्द्धा को कभी-कभी सही नहीं माना जाता, लेकिन जिंदगी की हकीकत यही है और इसे ‘मेरिट’ कहा जाता है.
आपके अभिभावकों ने आपके लिए काफी कमा कर रख दिया है तो मामला आसान हो जाता है. लेकिन याद रखिए कि उन्होंने आपके लिए जो दौलत बनाई वह अपने कार्यस्थल पर हवाबाजी करके नहीं बनाई. उन्होंने लंबे-लंबे घंटों तक काम किया, तब जाकर आपको इस तरह अपनी नाराजगी जाहिर करने की सुविधा मिली है.
इनफोसिस और एल ऐंड टी वास्तव में भारत की विशाल कंपनियां हैं. दोनों का कारोबार इंजीनियरिंग का है. एक का साम्राज्य सॉफ्टवेयर पर खड़ा हुआ है; तो दूसरी का ठोस, भौतिक इंजीनियरिंग पर. उनमें क्रमशः 3.17 लाख और 4.07 लाख कर्मचारी काम कर रहे हैं और वे क्रमशः 8 और 5 ट्रिलियन रुपये मूल्य की कंपनियां हैं. ये दोनों दुनिया की टॉप कंपनियों का मुक़ाबला कर रही हैं. इनफोसिस ने भारत में डिजिटलीकरण में केंद्रीय भूमिका निभाई है. एल ऐंड टी हेवी इंजीनियरिंग की पुरानी धारा की, पुरुष-प्रधान कंपनी है. इसने आपकी नौसेना के लिए परमाणु हथियार से लैस चार पनडुब्बियों (एसएसबीएन) का निर्माण करने के अलावा भारी तोपें, एक टैंक भी बनाया है और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कई सुरंगें तैयार की है, और आपके आसमान को छूने वाली कई इमारतें भी खड़ी की है.
दुनिया में अग्रणी मानी जा रही अविश्वसनीय परियोजनाओं को पूरा करने और चलाने वाला नेतृत्व अत्याचारी, गुलामी करवाने वाला, या मूर्ख नहीं हो सकता. दरअसल, वे जो कह रहे हैं उसे किसी फौज को प्रेरित और एकजुट करने वाली हुंकार की परिभाषा में शामिल किया जा सकता है, जैसे किसी मैच से पहले टीम का कोच अपने खिलाड़ियों से कहता है : ‘जोर लगा दो, अपनी जान लगा दो बच्चो!… आज आर या पार!!’ इसे पंजाबी में ‘हल्लाशेरी’ कहते हैं.
किसी से जबरन लंबे घंटे तक काम नहीं करवाया जा सकता. लेकिन आप नजर घुमाएंगे तो पाएंगे कि कई लोग इस तरह काम कर रहे हैं. कई लोग खुशी से ऐसा करते हैं. ऐसे लोगों को निजी क्षेत्र में इसका बेहतर पुरस्कार मिलता है, और जिन्हें नहीं मिलता वे लोग इन्हें ‘वर्कहॉलिक’ कह सकते हैं, कि ये काम और जीवन के बीच संतुलन का अनादर करते हैं. लेकिन आपकी तरह इन्होंने भी अपना फैसला किया है. और वैसे भी, काम और जीवन के बीच संतुलन की कोई संवैधानिक परिभाषा नहीं की गई है.
कई सरकारी कर्मचारी, खासकर अधिकारी कितने घंटे काम करते हैं यह अगर आप जानेंगे तो आपको झटका लगेगा. अधिकतर आईएएस/आईपीएस/आईआरएस या अखिल भारतीय सेवाओं के दूसरे अधिकारी तो सप्ताह में निश्चित ही 70 घंटे से ज्यादा काम करते हैं. उनसे ज्यादा तो निचले स्तरों के कई कर्मचारी, आपके थाने के एसएचओ सप्ताह के सातों दिन काम करते हैं. जिला मजिस्ट्रेट, एसपी, सुनवाई अदालतों के जज, टैक्स एसेसमेंट अफसर, सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर आदि तो अपने केरियर के शुरू में सप्ताह में औसतन 90 घंटे काम करते हैं, जिसे ‘भयावह’ बताया गया है.
आप उन्हें वीकएंड में भी काम करते पा सकते हैं, और उन्हें किसी आपात स्थिति में (जिसमें कोई हत्याकांड, दंगा या वीवीआइपी का दौरा भी शामिल हो सकता है) रात में भी जगाया जाता है. यहां तक कि दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में सीनियर सिविल अधिकारी और पुलिसकर्मी हममें से अधिकतर के मुक़ाबले ज्यादा दिनों और सप्ताहों तक काम करते हैं.
सात स्टार वाले अस्पतालों के अधिकतर कीमती डॉक्टर तो सुब्रह्मण्यम वाली टाइमिंग का ही पालन करते हैं. सरकारी अस्पतालों के इमर्जेंसी वार्डों में आप जूनियर डॉक्टरों को एक के बाद दूसरी शिफ्ट में भी काम करते और बगल के किसी कमरे में बमुश्किल एक-दो घंटे की नींद लेते पा सकते हैं.
ऐसे लोगों की संख्या बेहिसाब है जो भयावह रूप से कठिन ड्यूटी करते हैं. और मैं यह उदाहरण अंत में सिर्फ इसलिए दे रहा हूं क्योंकि मुझे यह डर था कि आपमें से कुछ लोग मुझे यह ताना दे सकते हैं कि मैं भी ‘आखिर सीमाओं पर तैनात सैनिक भी तो हैं’ वाला तर्क दे रहा हूं. लेकिन हकीकत यह है कि सीमा पर और ऑपरेशन वाले क्षेत्रों में तैनात सैनिक और अधिकारी बिना कोई छुट्टी लिए निरंतर जोखिम भरी ड्यूटी करते रहते हैं, और साल में दो महीने की वार्षिक छुट्टी का इंतजार करते रहते हैं, जो तभी मिलती है अगर हमारा कोई पड़ोसी देश उसे रद्द करने का कारण नहीं बनता. लाखों भारतीय वास्तव में लंबे-लंबे घंटों तक काम करते हैं, और ज़्यादातर संतुष्टिदायक समय तक काम करते हैं.
बहरहाल, नारायणमूर्ति-सुब्रह्मण्यम वाली बातें ‘ब्लू कॉलर’ कामगारों, श्रमिकों के लिए नहीं हैं. उनके लिए तो शिफ्ट और काम के घंटे निश्चित हैं. ये बातें मैनेजरों, इंजीनियरों, ‘व्हाइट कॉलर’ वाले तथा अच्छी-ख़ासी सुविधाएं प्राप्त कुलीनों के लिए हैं. लेकिन गरीब, ‘ब्लू कॉलर’ कामगार कम मेहनती नहीं हैं, वे अपने परिवार को प्यार करते हैं और उसके लिए त्याग करने को तैयार रहते हैं. अपने कार्यस्थल या अपनी कॉलोनी/इमारतों पर तैनात सिक्यूरिटी गार्डों को ही देखिए. वे सब सप्ताह में छह दिन और अक्सर सातों दिन दो नहीं तो कम-से-कम डेढ़ शिफ्ट तक तो काम करते ही हैं, जो कुल 78 या 91 घंटे होते हैं. क्या यह अच्छी बात है? इसका फैसला करने वाले हम या आप कौन होते हैं? गलती से अपनी नेकनीयती से आपने उन्हें एक ही शिफ्ट में या सप्ताह में पांच दिन काम करने का सुझाव दिया ताकि वे काम और जीवन के बीच संतुलन बिठा सकें, तो आपको यह सुनना पड़ सकता है कि ‘साहब/मेमसाहब, तब मैं क्या बचत कर पाऊंगा और घर क्या भेज पाऊंगा?’ जरा अपनी ऊबर टैक्सी के ड्राइवर या जोमाटो के डेलीवरी मैन को यह सुझाव देकर देखिए.
कॉर्पोरेट वालों की मलामत करना आसान है. लेकिन अपने उद्यमियों, संपदा तथा रोजगार पैदा करने वालों को प्यार और सम्मान न देने वाला समाज निम्न-मध्यवर्गीय आय के खांचे में ही अटके रहने को अभिशप्त होता है. प्रति व्यक्ति 2,800 डॉलर की आय के साथ भारत फिलहाल इसी खांचे में है. अगर इसे अगले 15-20 साल में 10,000 के आंकड़े को छूना और मध्यवर्गीय आय वाले दर्जे को हासिल करना है (तब भी वह आज चीन जहां है उसके हिसाब से उसके दो-तिहाई के बराबर ही पहुंच पाएगा), तो कई भारतीयों को लंबे और उत्पादक घंटों के लिए काम करना पड़ेगा, जैसा कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापानियों और जर्मानों ने किया था, और कोरियाई लोग हमेशा करते हैं और चीनी तथा वियतनामी लोगों ने अब शुरू किया है. तब बेशक वे संपत्ति भी अर्जित करेंगे और खुद को तथा अपने परिवार को बेहतर जीवन भी दे पाएंगे. काम के इतने लंबे घंटों की मांग से नाराज प्रति व्यक्ति के मुक़ाबले आप लाखों ऐसे लोगों को पाएंगे जो रोजगार की तलाश कर रहे हैं, खासकर इस स्तर के रोजगार की.
और आखिर में यही कहूंगा कि जनता, और इस मामले में विशाल कुलीन तबका जब नाराज होता है तब तथ्यों को भुला दिया जाता है, उन्हें तोड़ा-मरोड़ा जाता है और आधे-अधूरे रूप में लिया जाता है. इस मामले में ये तीनों बातें हुई हैं. ज़्यादातर गुस्से, तंज़ और ‘मीम्स’ की वजह सुब्रह्मण्यम का यह बयान है कि “आखिर आप अपनी बीवी को कितनी देर तक निहारते रह सकते हैं!”. बेशक यह बयान बुरी तरह महिला-विरोधी है. लेकिन यह भी देखिए कि आगे उन्होंने क्या कहा, कि “… या कोई बीवी अपने पति को आखिर कितनी देर तक निहार सकती है!”. फिर भी यह बयान उपयुक्त नहीं है, खासकर इसलिए कि किसी डॉनल्ड ट्रंप ने राजनीतिक रूप से सही कदम को अभी खारिज नहीं किया है, लेकिन यह महिला-विरोधी नहीं है. वैसे, अब यह लोक कहावत में शुमार हो चुका है, और इस उत्तर-सत्य वाली दुनिया में लोक कहावत को ही इतिहास माना जा रहा है.
स्पष्टीकरण: एन.आर. नारायणमूर्ति ने ‘दिप्रिंट’ में निवेश किया है. ‘दिप्रिंट’ में निवेश करने वालों की पूरी सूची यहां पढ़ सकते हैं.
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