मई 2014 में जब से नरेंद्र मोदी सरकार ने कामकाज संभाला है, भारत में आर्थिक नीतियों को व्यापक तैयारी, सलाह-मशविरा और गंभीर मंथन के बजाए एकतरफा ढंग से थोपे जाने का ढर्रा बन गया है. इसके साथ ही पुनरावर्तन में कमाल की कला दिखाते हुए पहले की तमाम नीतियों और कार्यक्रमों में बदलाव करके इन्हें नए नाम के साथ फिर से लागू किया गया. आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 में किए गए इस दावे ने तो लोगों को हैरत में डाल दिया कि दुनियाभर में परेशानी का सबब बनी ‘नीतिगत अनिश्चितता’ से भारत अछूता रहा है. जबकि तब तक कोरोनावायरस अपना भयावह चेहरा दिखा चुका था और तमाम समस्याओं से घिरा भारत एक बड़े संकट के मुहाने पर खड़ा था.
आर्थिक सर्वेक्षण का मसौदा वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार तैयार करते हैं और दुनियाभर में इसको इसी रूप में देखा भी जाता है. इसे अर्थव्यवस्था के बारे में उनके दृष्टिकोण का वक्तव्य माना जाता है. लेकिन जाहिर है कि वित्त मंत्री द्वारा इसे ध्यान से पढ़ा जाता है, जहां जरूरी होता है संशोधन होते हैं और फिर इसे संसद में पेश किया जाता है. यदि इसमें तमाम सारी गलत गणनाएं और अनुमान शामिल हैं तो निश्चित तौर पर वित्त मंत्री उनके लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं. फरवरी की शुरुआत में ही भारत अर्थव्यवस्था में कई अनिश्चितताएं देख रहा था, जिसकी पुष्टि बाद के घटनाक्रमों से हुई.
मार्च 2020 के तीसरे हफ्ते तक देश में कोविड-19 के मात्र 500 मामले थे लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शानदार प्राइम-टाइम टेलीविजन भाषण में पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी. उन्होंने जनता को 21 दिनों में इस महामारी से छुटकारा मिल जाने का आश्वासन देते हुए कहा कि इसके बिना देश विकास की गति में 21 साल पीछे चला जाएगा. अफसोस की बात यह है कि भारत अब पांच लाख से अधिक मामलों के साथ इस महामारी की चपेट में आने वाले देशों में चौथे नंबर पर है. इसके अलावा, यह आम धारणा भी बन चुकी है कि लॉकडाउन अर्थव्यवस्था को गर्त में पहुंचाने का कारण बन गया है और इसने लोगों की आजीविका को गहरी चोट पहुंचाई है.
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भ्रम की स्थिति बढ़ी
कोविड-19 के मामले बढ़ने से स्थिति भयावह होने के बीच ही मोदी सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों को फिर से खोलने संबंधी अनिश्चिततापूर्ण फैसले की घोषणा कर दी, जो वास्तव में पांचवां लॉकडाउन है लेकिन इसे अनलॉक-1 की संज्ञा दी जा रही है. राज्यों ने इस पर भ्रम की स्थिति को और बढ़ाया ही है. अनलॉक-1 को आर्थिक स्थिति पर केंद्रित बताया गया है. लेकिन वास्तव में अनलॉकिंग का फैसला नवीनतम जीडीपी आंकड़ों, जिसमें 11 वर्षों में सबसे धीमी वृद्धि दिखी और सीएमआईई के उस सर्वेक्षण के बाद लिया गया जिसके मुताबिक लॉकडाउन के दौरान लगभग 12 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी गवां दी है. वैसे एक सोशल मीडिया पोस्ट में संभवत: कटाक्ष के तौर पर कहा गया है, दोष तो वास्तव में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का है, क्योंकि उन्होंने हवाई अड्डों का निर्माण नहीं कराया होता तो आज न हवाई मार्ग से यात्री आते और न ही कोविड का संकट खड़ा होता.
आर्थिक वृद्धि के नवीनतम आंकड़े चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं. वित्त वर्ष 2019-20 की अंतिम तिमाही में विकास दर गिरकर 3.1 प्रतिशत रह गई है. पूरे वित्त वर्ष में विकास दर घटकर 4.2 प्रतिशत पर आ गई है, जबकि शुरुआत में यह 8.5 प्रतिशत पर स्थिर थी. यहां तक की पिछले वित्त वर्ष की समाप्ति से एक महीने पहले तक भी सरकार न्यूनतम 5 प्रतिशत की विकास दर हासिल करने को लेकर आशान्वित थी. किसी भी सूरत में इसे महामारी या इसके फलस्वरूप लागू किए गए लॉकडाउन का परिणाम नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि पिछले वित्त वर्ष का केवल अंतिम एक सप्ताह ही लॉकडाउन से प्रभावित हुआ है.
अर्थव्यवस्था, जो पिछले वित्त वर्ष से ही लगातार खस्ताहाल स्थिति में थी, को मोदी सरकार की दुस्साहसिक नीतियों और अनुपयोगी प्राथमिकताओं ने और बदतर हालत में ला दिया है. वित्त वर्ष 2019-20 में पिछली तिमाहियों के विकास के आंकड़ों को संशोधन कर काफी घटाया गया. इसे पहली तिमाही में 5.6 प्रतिशत से 5.2 प्रतिशत, दूसरी तिमाही में 5.1 प्रतिशत से 4.4 प्रतिशत और तीसरी तिमाही में 4.7 प्रतिशत से 4.1 प्रतिशत किया गया. हैरानी की बात यह है कि पहले अग्रिम अनुमानों से दूसरे तक में वृद्धि के आंकड़ों में संशोधन दो महीने से भी कम समय में किया गया था और कमी के आंकड़ों में दूसरा संशोधन भी दो महीने से कम समय में किया गया.
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अर्थव्यवस्था को लेकर गैर-पेशेवर रवैया
अर्थव्यवस्था को पुनरुद्धार के लिए जरूरी खुराक देने के बजाये इस मामले में एक गैर-पेशेवर रुख अपनाया गया. आंकड़ों में जानबूझकर हेरफेर की गई और अर्थव्यवस्था की लगातार गहराती स्याह तस्वीर को छिपाने के लिए उल्लासोन्माद का माहौल बनाया गया. यहां उल्लेखनीय है कि कैसे 28 फरवरी को वृद्धि के आंकड़ों में संशोधन ने सरकार को इस दावे पर कायम रहने में सक्षम बनाया कि अर्थव्यवस्था 5 फीसदी बढ़ जाएगी. वहीं, 29 मई को कमी के आंकड़ों में संशोधन के आधार पर मोदी सरकार ने दावा किया कि चौथी तिमाही में विकास दर 3.1 प्रतिशत है, जबकि भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष मानते हैं कि पिछली तिमाही में विकास दर केवल 1.2 प्रतिशत रही होगी, बशर्ते पूर्व में कमी के आंकड़ों में इतना ज्यादा संशोधन न किया गया होता.
यह बात सर्वविदित है कि जनवरी 2015 में सरकार ने आधार वर्ष और जीडीपी की गणना के फॉर्मूले में बदलाव कर दिया था, जिसने वित्त वर्ष 2015 की वृद्धि दर को पहले अनुमानित 5 प्रतिशत के मुकाबले 6.4 प्रतिशत पर पहुंचा दिया. इस स्तंभ के लेखकों में से एक (यशवंत सिन्हा) ने 2017 में अनुमान लगाया था कि विकास के आंकड़ों को 200 आधार अंकों या 2 प्रतिशत तक अधिक आंका गया. पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने बाद में अध्ययन के आधार पर दावा किया कि इसे 250 आधार अंक या 2.5 प्रतिशत अधिक आंका गया था.
व्यवस्था के अपने नीतिपरक आयाम थे. इसने सरकार को यह दावा करने, खासकर वशीभूत मीडिया के माध्यम से, में मदद की कि मोदी सरकार की आर्थिक उपलब्धियां प्रभावशाली हैं जबकि वास्तव में यह पूरी तरह काल्पनिक थीं. यदि नए जीडीपी गणना फॉर्मूले से 2.5 प्रतिशत की कटौती कर दी जाए तो पिछले वर्ष की आर्थिक वृद्धि 1.70 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी. यहां तक कि इस आंकड़े पर भी बहस की जा सकती है.
चतुराई नहीं ईमानदारी जरूरी
प्रधानमंत्री मोदी के ‘आत्मनिर्भर’ बनने के आह्वान के गूढ़ निहितार्थ माने जाते हैं. यह नैतिक मूल्यों को आगे बढ़ाने की अवधारणा है. शासन का मतलब सरकार में पदों पर कब्जा करना नहीं बल्कि जनसेवा होता है. एम.के. गांधी की आत्मनिर्भरता की धारणा जॉन रस्किन के अन्टू दिस लास्ट से प्रभावित थी. यह उनके लिए विश्वास से भरा एक लेखा था जिसमें आखिरी छोर तक साधन सम्पन्नता सबसे ज्यादा मायने रखती है, जिसका आज के शासकों द्वारा अपनाए जाने वाले सिद्धांतों में नितांत अभाव है. जवाहरलाल नेहरू के वैज्ञानिक समाजवाद ने उन्हें भारत को उसी मुकाम पर पहुंचाने के लिए योजनाबद्ध आर्थिक विकास के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया.
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सार्वजनिक नीति खासकर आर्थिक नीतियों के मामले में, जो सीधे तौर पर जन कल्याण को प्रभावित करती हैं, चतुराई नहीं नेक नीयती का भाव अपनाया जाना चाहिए. पैकेजिंग कुछ समय के लिए तो कारगर हो सकती है लेकिन कृत्रिम तौर पर कायम की गई जनभावना अंतत: शासनकर्ताओं के लिए भी भ्रामक साबित हो सकती है. मायने तो देश और उसके लोगों का भविष्य ही रखता है. पूरी दुनिया में शासनकर्ता अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं. दीर्घकाल में उनकी किस्मत के कोई मायने नहीं, जरूरी है लोगों का कल्याण और उनका भविष्य जिसे हर कीमत पर सुरक्षित रखा जाना चाहिए. इस समय भारत व्यापक नीतिगत अनिश्चितताओं से जूझ रहा है जिसका खामियाजा मौजूदा परिस्थितियों से भी प्रतिबिंबित होता है.
(यशवंत सिन्हा पूर्व केंद्रीय वित्त और विदेश मंत्री हैं. ठाकुर दिल्ली स्थित पॉलिसी प्रोफेशनल और स्तंभकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं)
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आपका लेख पढ़ा ।आपके विचार काफी सराहनीय है।