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Wednesday, 20 November, 2024
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50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण : कर्नाटक, झारखंड और छत्तीसगढ़ से दिल्ली आती राजनीतिक सुनामी

राज्यों के विधेयक देर-सबेर केंद्र सरकार के पास पहुंचेंगे. बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को ये फैसला करना होगा कि SC, ST, OBC आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा करने पर उसका पक्ष क्या होगा.

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तीन राज्यों की विधानसभाओं ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लेकर हाल ही में नए विधेयक लाए हैं. ये सभी विधेयक इस मामले में समान हैं कि सभी में SC, ST, OBC आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ऊपर चली गई है. 1993 में इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच के फैसले के बाद राजनीतिक-कानूनी हलकों में सहमति-सी बन गई थी कि आरक्षण होना तो चाहिए, लेकिन इसकी सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा न हो. केंद्र सरकार द्वारा गरीब सवर्ण जातियों के लिए लाए गए 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस आरक्षण से ये सहमति टूटी है. ईडब्ल्यूएस आरक्षण से केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में कुल आरक्षण 59 प्रतिशत हो गया है.

जो राज्य SC, ST, OBC आरक्षण को 50 प्रतिशत से ऊपर ले जाना चाहते हैं, उनमें कर्नाटक भी है, जहां बीजेपी का शासन है. यहां 2023 की गर्मियों में विधानसभा चुनाव होने हैं और बीजेपी और सरकार को लगता है कि आरक्षण की लिमिट बढ़ाने से उसे एससी और एसटी वोटों का फायदा होगा.

राज्यों के विधेयक देर-सबेर केंद्र सरकार के पास पहुंचेंगे. बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को ये फैसला करना होगा कि SC, ST, OBC आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा करने पर उसका पक्ष क्या होगा. ये सवाल तीन के अलावा और राज्यों से भी आ सकता है. इन विधेयकों को कोर्ट में भी चुनौती दिए जाने के आसार हैं और वहां केंद्र सरकार भी एक पक्ष होगी. सरकार इस बारे में जो भी फैसला करती है, उसके राजनीतिक नफा-नुकसान हो सकते हैं और कई समीकरण बन और बिगड़ सकते हैं.


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तीन राज्यों से आता तूफान

1. कर्नाटक सरकार ने हाल ही में विधानसभा में विधेयक पेश किया है, जिसमें एससी और एसटी कोटा बढ़ाने का प्रस्ताव है. ये विधेयक अक्टूबर 2022 के उस अध्यादेश यानी ऑर्डिनेंस की जगह लेगा जिसमें एससी आरक्षण 15 प्रतिशत से बढ़ाकर 17 प्रतिशत और एसटी आरक्षण तीन प्रतिशत से बढ़ाकर 7 प्रतिशत कर दिया गया है. कर्नाटक के राज्यपाल ने इस अध्यादेश को मंजूरी दे दी है और 1 नवंबर, 2022 से ये लागू भी हो गया है. इस अध्यादेश के लागू होने से पहले कर्नाटक में 32 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण था और SC, ST, OBC का कुल आरक्षण 50 प्रतिशत था, जो अब 56 प्रतिशत हो चुका है. कर्नाटक में एससी और एसटी काफी समय से मांग कर रहे थे कि उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाए. कर्नाटक सरकार ने उनकी मांग पूरी की है.

2. छत्तीसगढ़ सरकार ने भी राज्य में आरक्षण का गणित बदलने और उसे आबादी के अनुपात के आसपास ले जाने की कोशिश की है. राज्य विधानसभा ने आम राय से दो विधेयक पारित किए हैं, जिनके लागू होने के बाद राज्य की सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में कुल आरक्षण 76 प्रतिशत हो जाएगा. इन विधेयकों के मुताबिक राज्य में एसटी को 32 प्रतिशत, ओबीसी को 27 प्रतिशत, एससी को 13 प्रतिशत और ईडब्ल्यूएस को 4 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इन विधेयकों को लाने की सबसे बड़ी वजह हाईकोर्ट का सितंबर 2021 का वह फैसला है, जिसमें पिछली रमन सिंह सरकार के उस आदेश को निरस्त कर दिया गया था जिसमें एसटी का आरक्षण 20 से बढ़ाकर 32 प्रतिशत किया गया था.

ये आंकड़ा राज्य के विभाजन से पहले के एकीकृत मध्य प्रदेश का था, जबकि छत्तीसगढ़ में एसटी आबादी ज्यादा है और छत्तीसगढ़ बनाने का एक बड़ा कारण भी यही था. राज्य के ओबीसी भी मांग कर रहे थे कि 14 प्रतिशत कोटा उनके लिए बहुत कम है. भूपेश बघेल सरकार ने इन दोनों समस्याओं का हल इन विधेयकों के जरिए प्रस्तुत किया है. लेकिन दोनों विधेयक अब राज भवन में अटके हैं क्योंकि राज्यपाल अनुसुइया उईके ने इन्हें मंजूरी नहीं दी है. वजह वही 50 प्रतिशत लिमिट वाला मामला है.

3. झारखंड विधानसभा ने भी हाल में सर्वसम्मति से विधेयक पारित करके राज्य में कुल आरक्षण 77 प्रतिशत करने की दिशा में कदम उठाया है. इन विधेयकों के कानून बनने से राज्य में एसटी आरक्षण 26 प्रतिशत से बढ़कर 28 प्रतिशत हो जाएगा. ओबीसी आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़कर 27 प्रतिशत और एससी आरक्षण 10 प्रतिशत से बढ़कर 12 प्रतिशत होगा. राज्य में ईडब्ल्यूएस आरक्षण 10 प्रतिशत बनाए रखा गया है.

छत्तीसगढ़ की तरह झारखंड की सरकार भी चाहती है कि आरक्षण विधेयकों को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल कर उन्हें न्यायिक समीक्षा से कुछ हद तक मुक्त रखा जाए. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 9वीं अनुसूची भी अब न्यायिक समीक्षा के दायरे में है. झारखंड के राज्यपाल ने आरक्षण विधेयक को मंजूरी देने की जगह इसे कानूनी राय के लिए भारत के अटॉर्नी जनरल के पास भेजा है.

तीनों राज्यों में सरकारें चाहती हैं कि राज्यपाल आरक्षण विधेयकों को संस्तुति दें ताकि बढ़ा हुआ आरक्षण लागू किया जा सके. लेकिन केंद्र के प्रतिनिधि होने के कारण राज्यपाल को ये ध्यान रखना है कि केंद्र सरकार इस बारे में क्या सोचती है. इसलिए बात अटकी हुई है. लेकिन क्या ऐसी बाधा कर्नाटक में भी आएगी, जहां बीजेपी का शासन है? ये एक बड़ा सवाल है.

50 प्रतिशत की सीमा: अदालत और संविधान

संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि सरकारी नौकरियों या शिक्षा में आरक्षण की लिमिट क्या हो. संसद ने भी इस बारे में कोई कानून नहीं बनाया है. इस बारे में अगर कोई मतलब निकालना चाहे तो उसे अनुच्छेद 355 में ये तर्क मिलेगा कि आरक्षण लागू करते समय प्रशासनिक कार्यक्षमता का ध्यान रखा जाना चाहिए. हालांकि ये कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है और यहां प्रशासनिक कार्यक्षमता पर असर नापने का जिम्मा सरकारों पर छोड़ दिया गया है. अभी तक ऐसा कोई अध्ययन भी नहीं हुआ है कि आरक्षण से कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है.

50 प्रतिशत की सीमा का पहली बार ठोस जिक्र बालाजी बनाम मैसूर राज्य केस में 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आया. लेकिन वो भी सलाह की शक्ल में. फैसले में कहा गया कि ‘अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत दिए जाने वाले आरक्षण की एक वाजिब सीमा होनी चाहिए… मोटे तौर पर कहा जाए तो ये सीमा 50 प्रतिशत से कम होनी चाहिए. लेकिन दरअसल आरक्षण कितना हो ये हर मामले में स्थितियों पर निर्भर होगा.’

वर्ष 1993 में मंडल आयोग की सिफारिशों पर आए इंदिरा साहनी केस में 50 प्रतिशत की सीमा को पहली बार लागू किया गया. संविधान पीठ ने अपने फैसले में लिखा है कि ‘अनुच्छेद 16(4) के तहत दिया जाने वाला आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए. हालांकि ये देश और देश के लोग बहुत विविधतापूर्ण हैं इसलिए आरक्षण की सीमा पर बात करते हुए इस बात की अनदेखी नहीं करनी चाहिए.’

इंदिरा साहनी फैसले के बाद से तमाम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट 50 प्रतिशत की सीमा को आम तौर पर लागू करा रहे थे. मराठा आरक्षण पर महाराष्ट्र सरकार के फैसले को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी फैसले को ही आधार बनाया.

ईडब्ल्यूएस से मची अफरातफरी

अब केंद्र सरकार द्वारा ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किए जाने और फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसे संविधान की सीमाओं के तहत मानने से 50 प्रतिशत लिमिट को लेकर उथल पुथल मच गई है. इस मामले में बहुमत का फैसला लिखते हुए जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने कहा कि 50 प्रतिशत की सीमा ऐसी नहीं है, जिसे तोड़ा न जा सके. लेकिन आगे वे लिखते हैं कि वैसे भी 50 प्रतिशत की सीमा तो अनुच्छेद 15(4), 15(5) और 16(4) के तहत दिए जाने वाले आरक्षण पर ही लागू है. इन अनुच्छेदों से एससी, एसटी और ओबीसी का आरक्षण लागू हुआ है. यानी सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि एससी, एसटी और ओबीसी के अलावा किसी और आधार पर आरक्षण दिया गया तो 50 प्रतिशत की सीमा लागू नहीं होगी. इस आधार पर ईडब्ल्यूएस से संबंधित संविधान संशोधन को सुप्रीम कोर्ट ने मान्य कर दिया.

लेकिन क्या केंद्र सरकार भी ये कह पाएगी कि 50 प्रतिशत की सीमा तो टूट सकती है, पर एससी, एसटी, ओबीसी के लिए नहीं? मेरे ख्याल से ऐसा कह पाना केंद्र सरकार और बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा. इसके राजनीतिक प्रभाव हो सकते हैं. पहला असर ये होगा कि कर्नाटक में एससी-एसटी का बढ़ा हुआ आरक्षण निरस्त हो जाएगा. दूसरा असर ये हो सकता है कि सरकार की छवि सामाजिक मामलों में एकतरफा फैसला लेने वाली बन सकती है.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन के पूर्व मैनेजिंग एडिटर रहे हैं और मीडिया व सोशियॉलजी पर किताब लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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