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Thursday, 3 October, 2024
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हिंदू तुष्टिकरण में दूसरी BJP बन गई AAP, लेकिन क्या दो एक जैसी पार्टी की यहां जगह है?

आम आदमी पार्टी राजनीति के जिस रास्ते पर चल रही है, वहां पहले से काफी भीड़ है. हिंदुत्व की पिच पर उसका मुकाबला दिग्गज भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से होगा.

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अस्तित्व में आने के दस साल के भीतर आम आदमी पार्टी (आप) ने राष्ट्रीय पार्टियों के इलीट क्लब में जगह बनाने की हैसियत हासिल कर ली है. वह भारत की नौंवीं राष्ट्रीय पार्टी होगी. 2022 में पंजाब का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अब इसकी दो राज्यों में सरकार है और राज्यसभा में 10 सदस्य हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में ‘आप’ का कोई उम्मीदवार जीत नहीं पाया, लेकिन कई विधानसभाओं में उसका प्रतिनिधित्व है. दिल्ली में AAP ने निकाय चुनाव भी जीत लिया है. उसकी तरक्की निस्संदेह चौंकाने वाली है.

क्या आम आदमी पार्टी इतनी बड़ी हो जाएगी कि 2024 के लोकसभा चुनाव में मुकाबला मोदी बनाम केजरीवाल हो जाएगा? मीडिया का एक छोटा-सा हिस्सा ऐसी चर्चा करने भी लगा है.

मेरा तर्क है कि आम आदमी पार्टी ने अपनी राजनीतिक यात्रा में सबसे ऊंचा पड़ाव हासिल कर लिया है. यहां से उसकी फिसलन भरी ढलान का सफर शुरू हो सकता है. इसकी वजह ये है कि आम आदमी पार्टी राजनीति के जिस रास्ते पर चल रही है, वहां पहले से काफी भीड़ है. हिंदुत्व की पिच पर उसका मुकाबला दिग्गज भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से होगा.

AAP ने अपने गठन के समय वादा किया था कि वह अलग किस्म की राजनीति करेगी और वह बदलाव के लिए यहां आई है. उसकी सबसे बड़ी ताकत ये थी कि उसके संस्थापक अरविंद केजरीवाल खुद को अराजनीतिक और ईमानदार व्यक्ति बता रहे थे. दरअसल भारत में शहरी मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा पार्टी पॉलिटिक्स से तंग आ चुका है और अराजनीतिक होना उसे एक अच्छा विचार लगता है. इसलिए जब इंजीनियर, पत्रकार, सूचना का अधिकार (आरटीआई) कार्यकर्ता, चार्टर्ड एकाउंटेंट, वकील आदि प्रोफेशनल्स एक पार्टी लेकर आते दिखे तो मध्यम वर्ग को अच्छा महसूस हुआ.

आम आदमी पार्टी ने अपने शुरुआती दौर में तमाम विवादास्पद मुद्दों से दूरी बनाए रखने की कोशिश की. सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे पर न उसने विरोध किया न समर्थन. उसकी आर्थिक या विदेश नीति क्या है, यह आज तक राज है. उसकी एकल भाषा नीति नहीं है. आरक्षण पर न वह विरोध करती है न खुल कर समर्थन. निजीकरण जैसे तमाम मुद्दों पर भी उसकी कोई राय नहीं है.

शुरुआती दौर में तो यह चल गया, लेकिन राजनीति बहुत निर्मम चीज है. जब आप पार्टी सरकार में आई और उसके सांसद सदन में पहुंचे तो निष्पक्ष या बीच में खड़े होने का रास्ता खत्म हो गया. यहां तक कि अगर कोई पार्टी सदन में वोट नहीं डालती तो भी कुल वोटर की संख्या घटाकर वह किसी न किसी का पक्ष का समर्थन ही करती है. दिल्ली में उसे कई नीतिगत फैसले करने पड़े. दिल्ली में चूंकि जमीन, पुलिस आदि ज्यादातर मुद्दे केंद्र सरकार के पास और राज्य सरकार लगभग नगर निगम ही है, इसलिए उसके लिए विवादास्पद फैसलों से बचना एक हद तक संभव हो पाया. पंजाब सरकार को या राज्यसभा में आप के सांसदों को ये सुविधा नहीं है. यहां पार्टी को अपने असली रंग में आना पड़ेगा.

मिसाल के तौर पर, राम मंदिर का फैसला आया तो आम आदमी पार्टी सेकुलरिज्म नहीं कर पाई, बल्कि ये कहने लगी कि वह सरकारी पैसे पर लोगों को अयोध्या की तीर्थ यात्रा कराएगी. ऐसे ही जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाए जाने पर भी आम आदमी पार्टी बीजेपी के साथ खड़ी हुई. सीएए के मामले में आम आदमी पार्टी ने इसके खिलाफ हुए प्रदर्शनों से खुद को दूर रखा, जबकि इस आंदोलन का जहां केंद्र था, उस शाहीन बाग इलाके से विधायक आम आदमी पार्टी का ही है. यहीं नहीं 2020 के दिल्ली दंगों के दौरान आम आदमी के नेता, मंत्री या कार्यकर्ता दंगा रोकने की कोशिश करते या शांति कमेटियां बनाते नज़र नहीं आए. कई बार तो आम आदमी पार्टी बीजेपी से भी आगे बढ़कर हिंदुत्ववादी लाइन ले लेती है. करेंसी नोट पर लक्ष्मी-गणेश की फोटो लगाने की मांग भी एक इसी तरह का मामला है.


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आसान नहीं यह डगर

ये सब करने के क्रम में आम आदमी पार्टी वैचारिक मोर्चे पर बीजेपी के काफी करीब आ गई है. चूंकि उसे अब तक मुसलमान वोट मिलता रहा है, इसलिए वो खुलेआम सांप्रदायिकता नहीं करती. हालांकि, दिल्ली नगर निगम चुनाव में मतदान बाद के सर्वे के आधार पर ये कहा जा रहा है कि दिल्ली में मुसलमानों और दलितों के बीच आम आदमी पार्टी का समर्थन घटा है. अगर मुसलमानों के बीच आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता घटने का यह क्रम जारी रहता है तो पार्टी शायद दिखावे के लिए भी सेक्युलरिज्म न करे.

वहीं, आम आदमी पार्टी अपने सबसे चमकते नारे, जनलोकपाल बिल से पल्ला छुड़ा चुकी है. भ्रष्टाचार विरोध का उसका स्वर कमज़ोर हो चुका है. एक समय किसी नेता के खिलाफ भ्रष्टाचार की खबर मीडिया में छप जाने पर आम आदमी पार्टी उसके इस्तीफे और गिरफ्तारी की मांग करती थी. अब उसके दिल्ली कैबिनेट के मंत्री सत्येंद्र जैन हवाला मामले में लंबे समय से जेल में हैं और कोर्ट ने उन्हें ज़मानत देने से मना कर दिया है, फिर भी वे मंत्री पद पर बने हुए हैं. इसी तरह दिल्ली शराब घोटाले में भी आम आदमी पार्टी ने अपने नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की है. ये सब करते हुए आम आदमी पार्टी अब बिल्कुल वैसी दिख रही है, जिनके खिलाफ आंदोलन करके वह अस्तित्व में आई थी. चुनाव लड़ने का उसका तरीका उतना ही खर्चीला है, जितना किसी और पार्टी का.

इस कारण से आम आदमी पार्टी अपनी अलग पहचान खो रही है. मुफ्त बिजली अब कई राज्य को दी जा रही है और कई पार्टियां इसका वादा कर रही हैं. इस मामले में भी आम आदमी पार्टी की अलग पहचान नहीं बनी. चुने हुए सरकारी स्कूलों के लिए नई इमारतें बनाने और उसका बढ़-चढ़ कर प्रचार करने की कला भी बाकी दलों ने सीख ली है.


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क्या भारतीय राजनीति में दो BJP की जगह है?

सवाल उठता है कि अगर बीजेपी और आम आदमी पार्टी में फर्क दिखना बंद हो गया तो लोग इन दोनों के बीच किसे चुनेंगे. बीजेपी हिंदुत्व की ऑरिजनल पार्टी है. इसके अलावा, मेरा अनुमान है कि बीजेपी ने इस बीच अपने पार्टी ढांचे को काफी विविधतापूर्ण बना लिया है और खासकर ओबीसी की कई जातियों को टिकट वितरण या पार्टी पद या सरकारी पद देने में एडजस्ट किया है, जबकि आम आदमी पार्टी में विविधता का गंभीर अभाव है. पार्टी के पास कोई बड़ा ओबीसी चेहरा नहीं है. आप में कोई ऐसा दलित नेता भी नहीं है, जिसकी अपने चुनाव क्षेत्र के बाहर पहचान हो. आम आदमी पार्टी ने राजेंद्र पाल गौतम को दिल्ली के मंत्री पद से हटाकर इस मामले में छवि को धूमिल किया है. महिलाओं का भी आप की सरकार में प्रतिनिधित्व चिंताजनक है. दिल्ली में आप की सरकार में कोई महिला मंत्री नहीं है. विविधता हर समस्या का समाधान नहीं है, लेकिन इससे समुदायों और वर्गों का प्रतिनिधित्व जरूर पूरा होता है. इस मामले में आम आदमी पार्टी ज्यादा लापरवाह है या फिर उसे आत्मविश्वास है कि इसके बिना भी वह काम चला लेगी

राजनीतिक शोधकर्ता आसिम अली का तर्क है कि “आम आदमी पार्टी एक मध्यमार्गी संभावना पैदा करती है. ऐसी संभावना जिसमें दक्षिणपंथी मतदाता बिना अपने विचारों से समझौता किए आम आदमी पार्टी के लोक लुभावन वादों के लिए वोट कर लेता है.” यानी हिंदूवादी वोटर को ऐसा नहीं लगता कि आप को वोट देकर उसने हिंदुत्व के खिलाफ कोई काम किया है, लेकिन ये संतुलन साधने का कठिन काम है, क्योंकि आप को मुसलमान वोट भी चाहिए. दिल्ली जैसी जगहों में हिंदूवादी वोट का बड़ा हिस्सा तो बीजेपी के पाले में जा रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदुत्व को साधने के चक्कर में आप मुसलमानों के बीच अपना समर्थन खो रही है.

दिल्ली नगर निगम के हाल में संपन्न हुए चुनावों में ऐसा होता दिख रहा है. यहां बीजेपी कई मुसलमान बहुल सीटों पर हार गई और इन सीटों पर कांग्रेस की वापसी हुई है. दिल्ली के 2020 के दंगों से सबसे ज्यादा प्रभावित उत्तर पूर्वी दिल्ली के बृजपुरी, शास्त्री पार्क, चौहान बांगर और मुस्तफाबाद में कांग्रेस के उम्मीदवार जीत गए. सीएए विरोधी आंदोलन के प्रभाव वाले इलाकों अबुल फजल एनक्लेव और जाकिर नगर में भी कांग्रेस की जीत हुई. ये सब AAP के गढ़ थे. ऐसे संकेत हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी अपना एक मजबूत आधार यानी मुसलमान वोट गंवा रही है

जाति और जातिगत भेदभाव के प्रश्न पर भी आम आदमी पार्टी ने चुप्पी साध रखी है. इस मामले में उसने समाज में यथास्थिति बनाए रखने और जातिगत ढांचे को डिस्टर्ब न करने की रणनीति बनाई है. चूंकि उसके पास दलितों या ओबीसी को ऑफर करने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए वह प्रतीकवाद के तहत भीमराव आंबेडकर की फोटो दफ्तरों में लगाने जैसे टोटके अपनाती है. लेकिन इस तरह के प्रतीकवाद की भी लिमिट होती है और इसकी चमक भी कालांतर में उतर जाती है. क्या आम आदमी पार्टी का वह समय आ गया है, जब लोग बाबा साहब की फोटो से संतुष्ट होना बंद कर देंगे?

आम आदमी पार्टी चूंकि वादों और संभावनाओं की पार्टी रही है और उसने बहुत ज्यादा उम्मीदें जगाई थीं, इसलिए इसकी कामयाबी की सफर जितना शानदार रहा, उसकी ढलान भी उतनी ही तीखी हो सकती है.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और मीडिया व सोशियॉलजी पर किताब लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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