काफी कूटनीतिक गतिविधियों के बाद पिछले दिनों भारत और चीन के कोर कमांडरों की वार्ता का 16वां दौर पूरा हुआ. वार्ता चूसुल-मोल्दो वार्ता स्थल के भारतीय इलाके में हुई. वार्ता का मकसद देप्सांग के मैदानी इलाके, पैट्रोलिंग प्वाइंट 15, और डेमचोक के दक्षिण के क्षेत्र से सेनाओं की वापसी की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने पर विचार करना था.
कूटनीतिक गतिविधियों की शुरुआत चीनी विदेश मंत्री वांग यी की दिल्ली यात्रा के साथ हुई. इसके बाद वांग ने बाली में जी-20 के विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान भारतीय विदेश मंत्री से मिले. इसके बाद सकारात्मक परिणामों की उम्मीद की जा रही थी. लेकिन चिकनी-चुपड़ी कूटनीतिक भाषा पर ध्यान न दें, तो दोनों पक्षों के बीच कभी खत्म न होने वाला मतभेद साफ दिख रहा था. चीन सीमा पर यथास्थिति चाहता है, जबकि भारत संबंधों को सामान्य बनाने के लिए अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति बहाल करने पर ज़ोर दे रहा है.
दोनों पक्ष अपनी-अपनी शर्तों पर किस तरह अडिग हैं यह सीमाओं के आसपास फौजी अभ्यासों, उकसाऊ हवाई गतिविधि, सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास, सीमावर्ती राज्यों में बड़ी हस्तियों के दौरों, और भारत की तिब्बत नीति में स्पष्ट परिवर्तन से साफ जाहिर है. यहां तक कि भारत-चीन के बीच फलता-फूलता व्यापार भी अछूता नहीं रहा. भारत ने टैक्स चोरी और काले धन को सफ़ेद करने के मामलों के लिए चीनी कंपनियों की जांच शुरू कर दी.
इन बातों के मद्देनजर वार्ताओं का विफल होना तय ही था. कूटनीतिक भाषा की चाशनी में भीगा संयुक्त बयान यही संकेत देता है कि फौजी वार्ताएं अब बंद गली में पहुंच गई हैं. वास्तव में, 31 जुलाई 2021 के बाद से कोई प्रगति नहीं हुई है. तब, वार्ताओं के 12वें दौर के दौरान गोगरा में सेनाओं की प्रतीकात्मक वापसी हुई थी और गश्ती चौकी (पीपी) 17 और 17ए के बीच पूरी तरह हमारे क्षेत्र में बफर ज़ोन बनाया गया था.
मैं यहां दोनों पक्षों की रणनीतियों, सीमाओं पर कार्रवाई की स्थितियों, और सीमाओं को आगे संभालने के तरीकों की समीक्षा करूंगा.
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चीनी रणनीति
पूर्वी लद्दाख में चीन की रणनीति 1959 वाली दावा रेखा पर केंद्रित है. यह इलाके के आकलन और नक्शानवीसी का चमत्कार है, जो चीनी सेना पीएलए के लिए फायदेमंद हैं और भारतीय इलाके के बड़े हिस्से को युद्ध के लिए असंभव बना देता है.
चीन ने खुद ही इस रेखा से 20 किमी पीछे जाने से पहले 1962 में ही इस रेखा को सुरक्षित कर लिया था. 1962 के बाद भारत ने अपनी गश्ती धीरे-धीरे इस रेखा तक और इसके पूरब में देप्सांग प्लेन्स (पीपी 10,11,12, 13) तक बढ़ा दी थी. इसके अलावा फुकचे से डेमचोक तक के क्षेत्र को सुरक्षित कर लिया था क्योंकि इस क्षेत्र में कई गांव थे. भारत के मुताबिक एलएसी उन क्षेत्रों से गुजरती है जिन पर 1993 के सीमा समझौते के समय उसका कब्जा था और उसकी गश्त होती थी. चीन के मुताबिक एलएसी 1959 वाली दावा रेखा ही है.
चीन ने इसी सामरिक दावे के आधार पर अप्रैल-मई 2020 में हमला किया. रणनीतिक दृष्टि से वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उभरते भारत-अमेरिका गठजोड़, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, चीन द्वारा हथियाए गए अक्साई चीन तथा दूसरे क्षेत्रों को वापस छीनने को लेकर आक्रामक बयानों के मद्देनजर अपना वर्चस्व जताना चाहता था. सैन्य दृष्टि से उसका इरादा 1959 वाली दावा रेखा को उन क्षेत्रों में सुरक्षित करना था जहां उसे यह लग रहा था कि भारत उस रेखा से पार जाकर गश्ती कर रहा है. इसके अलावा वह उस इलाके में सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास को भी रोकना चाहता था.
अप्रैल-मई 2020 में पहले कार्रवाई करके चीन ने 1959 वाली दावा रेखा के मामले में अपना लक्ष्य आसानी से पूरा कर लिया. वास्तव में, गलवान नदी, पीपी 15 और 17ए में पीएलए इस रेखा के पार आकार अपनी सामरिक बढ़त बना ली. लेकिन भारत की ओर से सेना की भारी तैनाती और दबाव ने उसे पूर्ण विजय हासिल करने से रोक दिया.
चीन ने बिना गोली चलाए जिन इलाकों पर कब्जा किया था वहां से वापस लौटने का उसका कोई इरादा नहीं था. लेकिन 15/16 जून 2020 की रात गलवान नदी के किनारे हुए विस्फोटक कांड के कारण दोनों सेनाओं को वापस लौटना पड़ा, और एलएसी से 3 किमी भीतर मुख्यतः भारतीय क्षेत्र में बफर ज़ोन बनाया गया. भारत ने चूसुल सेक्टर में 29/30 अगस्त की रात कैलाश पर्वत इलाके में जो जोरदार जवाबी कार्रवाई की उसने पीएलए के लिए सामरिक शर्म बन गई. इस कार्रवाई ने चीन को फरवरी 2021 में पैंगोंग सो के उत्तर तथा दक्षिण किनारों से सेना की वापसी का एकतरफा समझौता करने को मजबूर किया. इसके साथ ही, एलएसी से 8 किमी पर हमारे इलाके में फिंगर 3 से 8 के बीच, और कैलाश रेंज में दोनों ओर समान दूरी तक बफर ज़ोन बनाने का समझौता भी हुआ.
चीन ने चांग चेनमो सेक्टर में चांगलुंग नाला में 1959 वाली दावा रेखा के पार 3-4 किमी क्षेत्र पर जो कब्जा किया था उसे छोड़ने को 31 जुलाई 2021 को राजी हुआ लेकिन उसने पीपी 17 और 17ए के बीच बफर ज़ोन बनाने को भी मजबूर किया. जो भी हो, उस इलाके में वह फायदे की स्थिति में है और कभी भी उस क्षेत्र पर कब्जा कर सकता है. इसी तरह उसने पीपी 15 पर जियानन दर्रे पर कब्जा छोडने से माना कर दिया, जबकि भारत ने कुग्रंग नदी क्षेत्र में 30 किमी लंबा और 4-5 किमी छुड़ा बफर ज़ोन बनाने से माना कर दिया है.
चीन यथास्थिति चाहता है और सीमा विवाद को ठंडे बस्ते में डाले रखना चाहता है. इसके साथ ही वह भारत से संबंध सामान्य भी बनाना चाहता है. यह बात उसके विदेश मंत्री भारतीय विदेश मंत्री के साथ अपनी हर मुलाक़ात में खुल कर कहते रहे हैं. वार्ता के 16वें दौर से कुछ दिन पहले राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दौरे, पश्चिमी थिएटर कमांड और शिनजियांग मिलिटरी डिस्ट्रिक्ट के साथ मुलाक़ात, और पीएलए के ‘गलवान हीरो’ को सम्मानित करने आदि से यही सिद्ध होता है. वार्ता के कुछ ही घंटे बाद चीन ने वीडियो जारी किया.
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भारतीय रणनीति
अप्रत्याशित रणनीतिक तथा सामरिक झटकों से उबरते हुए भारत की रणनीति इन बातों पर केंद्रित रही है— चीनी घुसपैठ को रोकने के लिए भारी संख्या में सैनिकों की तैनाती, चीन को मनोवैज्ञानिक विजय का दावा करने से रोकने के लिए एलएसी पर दबाव बनाना, और राजनयिक/सैन्य वार्ताओं के जरिए अप्रैल-मई 2020 वाली स्थिति बहाल करने की कोशिश करना. कैलाश रेंज में उसकी जवाबी कार्रवाई ने चीन को एकतरफा समझौता करने को मजबूर किया जिसके तहत उसे पैंगोंग सो के उत्तरी किनारे पर 1959 वाली दावा रेखा के मामले में अपनी जिद पर समझौता करना पड़ा.
1959 वाली दावा रेखा को लेकर चीन की जिद के कारण भारत पुरानी स्थिति तभी हासिल कर सकता है जब वह दबाव बनाएगा, जो सीमित युद्ध तक पहुंचा देगा. लेकिन एलएसी पर भारतीय सेना की तैनाती ने चीन को परेशान किया है और वह भी वही मुद्रा अपनाने को मजबूर किया है.
चीन पर दबाव डालने और उसे यह बताने के लिए कि सीमा पर शांति संबंधों को सामान्य बनाने की पूर्व-शर्त है, भारत ने अपनी तिब्बत नीति में बारीकी से समीक्षा की. दलाई लामा को उनके जन्मदिन पर प्रधानमंत्री की ओर से दी गई बधाई का प्रचार तो किया ही गया, फौजी वार्ता से पहले दलाई लामा को महीने भर की लद्दाख यात्रा की अनुमति भी दी गई. इस दौरे पर दलाई लामा ने अपनी यह मांग फिर दोहराई कि वे तिब्बत की आज़ादी नहीं बल्कि उसकी स्वायत्तता चाहते हैं. एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाले इन दो देशों को ताकत के प्रयोग के बारे उपदेश भी दिए.
इस बीच, अमेरिकी कांग्रेस में ‘तिब्बत-चीन संघर्ष समाधान प्रस्ताव एक्ट’ का विधेयक पेश किया गया, जिसमें तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे पर सवाल उठाया गया है. इधर भारत ने जी-20 शिखर वार्ता की तैयारी की बैठकें जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में करने की घोषणा की है.
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आगे का रास्ता
पूर्वी लद्दाख में आज जो स्थिति है उसे ज्यादा-से-ज्यादा ‘रणनीतिक गतिरोध’ कहा जा सकता है. किसी सीमित युद्ध के नतीजे की अनिश्चितता और बड़ी संख्या में मौतों की आशंका के साथ ही दोनों की परमाणु क्षमता दोनों को रोकती है. कूटनीतिक/सैन्य वार्ताओं और हॉटलाइनों की वजह से स्थिति की विस्फोटकता काफी हद तक कम हुई है. पीपी 15 पर कम संख्या में सेनाओं की तैनाती के अलावा कहीं भी दोनों सेनाएं बिलकुल आमने-सामने नहीं हैं.
तैनात सैनिकों की संख्या में भी काफी कमी आई है. मेरा आकलन है कि दोनों पक्षों ने दो डिवीजन के बराबर सैनिक ही तैनात किए हैं ताकि कोई किसी को झटका न पहुंचाए. अधिकांश सेना ऑपरेशन वाले स्थानों के आसपास कैंपों में पड़ी है. बड़ी कार्रवाई के लिए रिजर्व फोर्स स्थायी अड्डों पर चले गए हैं.
फौजी वार्ताएं बहुत हो चुकीं. अब इन दोनों देशों के सामने विकल्प यही है कि यथास्थिति को कबूल करें या सीमा संबंधी अंतरिम समझौते के लिए शिखर वार्ता की तैयारी करें.
भारत के लिए एक संभव समाधान यह हो सकता है कि 1959 वाली दावा रेखा को इस शर्त के साथ स्वीकार करे कि सिंधु घाटी को छोड़ विवाद के सभी क्षेत्रों में इस रेखा के दोनों ओर समान दूरी तक बफर ज़ोन बनाए जाएं और चीन अंतरिम समझौते के तहत पूरी सीमा को रेखांकित करने पर सहमत हो. गौरतलब है कि चीनी प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाई ने 7 नवंबर 1959 को प्रधानमंत्री नेहरू को भेजे अपने पत्र में यही पेशकश की थी.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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