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Wednesday, 6 November, 2024
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विधायक अब राजनीतिक उद्यमी बन गए हैं, महाराष्ट्र इसकी ताजा मिसाल है

आपके विधायक आपके अपने हैं यह मान कर मत चलिए, चुनावी जीत का राजनीतिक महत्व उनके लिए स्टार्ट-अप उद्यमी को मिले कर्ज के समान है.

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अब आपको शिंदे सरीखों से सावधान रहना पड़ेगा. महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार के लिए खतरा बनी बगावत का नेतृत्व शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें महसूस हो रहा था कि नेतृत्व उनकी उपेक्षा कर रहा है और उन्हें दरकिनार कर दिया गया है.

लेकिन ऐसा महसूस करने वाले शिंदे एक वे ही नहीं हैं. हालांकि, अधिकतर लोगों को शायद यह पता नहीं है कि अंग्रेजों के आने और नाम का अंग्रेजीकरण किए जाने से पहले, ग्वालियर के सिंधिया घराने को शिंदे घराना ही कहा जाता था (स्वर्गीय माधवराव सिंधिया जब मराठी में अपना नाम लिखते थे तब खुद को शिंदे ही बताते थे).

महाराष्ट्र सरकार को साजिशी बगावत करके गिराने वाले इस शिंदे से पहले, 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया उर्फ शिंदे ने मध्य प्रदेश में लगभग ऐसा ही कुछ कर डाला था. अपने विधायकों को साथ लेकर वे भाजपा में चले गए थे और कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिर गई थी.

संभव है कि इन दोनों घटनाओं में समानता को बढ़ा-चढ़ाकर कहा जा रहा हो. मध्य प्रदेश में हुई बगावत के दौरान विधायकों को होटलों में नहीं छिपाया गया था, दूसरे राज्यों में नहीं ले जाया गया था और कहा जाता है कि उस बगावत में पैसे का कोई खेल नहीं हुआ था. ज्योतिरादित्य सिंधिया की ईमानदारी बेदाग मानी जाती है.

लेकिन, कुछ समानताएं हैं. दोनों शिंदे का मानना है कि उनकी पार्टियों के नेतृत्व ने उनसे जो वादे किए उन्हें पूरा नहीं किया गया.

दोनों पर उनके समर्थक विधायकों का दबाव था कि वे उस सरकार को छोड़ें जिसने उन्हें उनका हक़ नहीं दिया और विचारधारा के स्तर पर दोनों नेता बड़ी छलांग लगाने को तैयार थे, हालांकि शिवसेना से भाजपा में जाना उतनी बड़ी छलांग नहीं है जितनी बड़ी कांग्रेस से भाजपा में जाना है.

बहरहाल, ज्योतिरादित्य शिंदे (सिंधिया) उस छलांग के बाद काफी फले-फूले. वे केंद्र में अच्छा प्रदर्शन कर रहे मंत्री हैं और उनके विधायकों को राज्य सरकार में जगह दी गई है. उनकी मिसाल ने दूसरे नेताओं (केवल शिंदे उपनाम वाले नहीं) को भाजपा में जाने के लिए प्रोत्साहित किया और उनके मुताबिक उनका भविष्य सुधारा.

यह भारतीय राजनीति के केंद्रीय सच को सामने लाता है. भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए चुनाव जीतना जरूरी नहीं है. वह चुनाव हार भी गई हो (जैसा कि मध्य प्रदेश में हुआ था) तो सत्ता दल में टूट-फूट डालने के लिए दबाव और प्रलोभनों का इस्तेमाल करके अपनी सरकार बना सकती है. चुनावी फैसले को बेमानी करने की यह कोशिश कभी-कभी नाकाम भी हो जाती है (जैसी कि राजस्थान में हुई) लेकिन प्रायः यह सफल ही होती है.


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बगावत को प्रोत्साहन

बिना सबूत के कोई आरोप लगाना मुश्किल है इसलिए मैं नेताओं के बीच फैली इस धारणा को महाराष्ट्र के मामले में अप्रमाणित ही मानूंगा कि ये बगावतें मुख्यतः पैसे के लिए होती हैं. लेकिन अगर आप यह नहीं भी मानते कि इनमें से अधिकतर बगावतों का विचारधारा या सरकार के कामकाज से कोई संबंध नहीं होता बल्कि विधायकों की खरीद-फरोख्त से ही होता है, तब भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इनके कारण सैकड़ों करोड़ का नुकसान होता है. विधायकों को चार्टर्ड विमान में देश भर में घुमाने का खर्च कौन देता है? पांच सितारा होटलों और रिजॉर्टों में विधायकों को पहरे के अंदर रखने पर कितना खर्च होता है? किन्हीं कारणों से, इस तरह के सवाल शायद ही उठाए जाते हैं. अगर उठाए भी जाते हैं तो उनका कभी जवाब नहीं दिया जाता.

भाजपा की अजेयता के किस्से को मजबूत करने- आपने भाजपा सरकार के लिए वोट न भी दिया हो तो भी उसकी सरकार बन ही जाती है- के अलावा ये तख्तापलट और बगावतें मतदाताओं को यही दर्शाती हैं कि चुनाव नतीजे का मोल कितना कम है.

जब आप किसी प्रतिनिधि को चुनते हैं तब आप वास्तव में ऐसे व्यक्ति को नहीं चुनते, जो आपके हितों का प्रतिनिधित्व करे या जो अपनी उस विचारधारा को लागू करे जिसमें आस्था रखने का उसने वादा किया है. चुनाव में जीत आज किसी स्टार्ट-अप को दिए जाने वाले कर्ज के जैसा राजनीतिक कर्ज बन गया है. कुछ विधायक हमसे जनादेश लेते हैं और फिर उसे पैसे से भुना लेते हैं, और अपनी तकदीर सँवारने के लिए राजनीतिक उद्यमी बन जाते हैं. हम मतदाता उनकी समृद्धि को संभव बनाने वाले साधन भर हैं.

इसके कारण मतदाताओं के मन में जो संशय पनपता है उसे कमतर नहीं आंकना चाहिए. कभी भी कोई राजनीतिक दल 45 फीसदी से ज्यादा वोट से चुनाव नहीं जीतता (बल्कि अक्सर इससे कम वोट प्रतिशत से चुनाव जीतता है). इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय लोकतंत्र जब ठीक ठाक काम कर रहा होता है, तब भी सरकारों को बहुमत का समर्थन नहीं हासिल होता है, चाहे हम ‘जोरदार जीत’ का जितना भी शोर क्यों न मचाएं. ज़्यादातर संसदीय लोकतंत्रों में यह बड़ी समस्या नहीं बनती क्योंकि चुनाव जीत कर बनी सरकारें सबको साथ लेकर चलने की ज्यादा कोशिश करती हैं और उन लोगों के लिए भी काम करती हैं जिन्होंने उसे वोट नहीं दिया.

समस्याएं तब उभरती हैं जब सरकारें यह मान बैठती हैं कि सत्ता ने उन्हें मनमानी करने का अधिकार दे दिया है. मतदाताओं के एक हिस्से की इच्छाओं, आकांक्षाओं की उपेक्षा की जाती है. और चुनाव नतीजे को जनादेश नहीं बल्कि व्यापार तथा लालच की राजनीति की कुंजी मान लिया जाता है. तब, विधायकों ने मतदाताओं से जो वादे किए थे वे बेमानी मान लिये जाते हैं. विधानसभा में पहुंचते ही वे खरीद-बिक्री वाली जिन्स बन जाते हैं. मतदाता ने उन्हें क्यों चुना, इसकी परवाह कौन करता है?

इंदिरा गांधी ने 1971 में लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत हासिल किया, 1972 में उन्होंने तमाम विधानसभाओं के चुनाव में भी ऐसी जीत को दोहराया. लेकिन 1974 में आकार कांग्रेस परेशानी में फंस गई. इंदिरा गांधी यह मान बैठीं कि चूंकि उन्होंने इतने सारे चुनाव जीत लिये, तो वे अब जो चाहे कर सकती थीं. लोगों को महसूस होने लगा कि केंद्र और राज्यों की चुनी हुई सरकारों को अपना विरोध नहीं दर्ज कर सकते थे इसलिए वे सड़कों पर उतर आए. 1975 तक इंदिरा गांधी इतनी मुश्किल में घिर गईं कि उन्होंने इमरजेंसी थोप दी. 1977 तक उन्हें वोट की ताकत से गद्दी से उतार दिया गया.

चुनावों का घटती प्रासंगिकता

इतिहास खुद को हमेशा दोहराता नहीं. लेकिन यह निश्चित सत्य है कि असंतुष्ट लोगों को जब यह लगता है कि राजनीतिक व्यवस्था उनके सरोकारों पर ध्यान नहीं दे रही है तब वे सड़कों पर उतर जाते हैं और अधिकतर बार यह कारगर साबित होता है.

नागरिकता संशोधन कानून को, विरोध के कारण स्थगित कर दिया गया. नये कृषि क़ानूनों को, किसानों के विरोध के बाद दफन कर दिया गया. अभी हाल में, नूपुर शर्मा के बयानों के विरोध के कारण भाजपा को अपने रुख पर पुनर्विचार करना पड़ा. अब घरों को बुलडोजर से ढहाया नहीं जा रहा है और प्रधानमंत्री ने अपने परिवार में शामिल हुए एक मुस्लिम लड़के के साथ बचपन से बड़े होने की बातें बताकर सांप्रदायिक सद्भाव पर ज़ोर दिया.

‘अग्निपथ’ योजना का विरोध सफल नहीं हुआ है लेकिन सरकार को अहम संशोधनों और रियायतों की घोषणा करनी पड़ी है.
इन सबसे बचा जा सकता था, बशर्ते हमारे संसदीय/विधायी लोकतंत्र ने फैसलों की घोषणा करने से पहले लोगों को भरोसे में लिया होता, अगर निर्वाचित प्रतिनिधि जनमत के प्रति संवेदनशील होते और सरकार को उसकी सीमाएं बताते.

इसकी जगह हम ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें चुनाव अक्सर बेमानी हो जाते हैं, क्योंकि विधायकों को चुने जाने के बाद पाला बदलने के लिए आसानी से तैयार किया जा सकता है, क्योंकि सरकारों को आसानी से उलटा जा सकता है, और जब मतदाता का वोट पहला कदम होता है तथा पैसा दूसरा कदम.

इसलिए, एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र सरकार को गिराने में सफल हो सकते हैं. एमवीए से मेरा कोई खास लगाव नहीं है और उसके गिरने पर में कोई आंसू नहीं बहाने वाला हूं. लेकिन बात महाराष्ट्र की नहीं है. बात मतदाताओं और उनके प्रतिनिधियों के बीच के रिश्ते की है. हालांकि हम सरकारों की लोकप्रियता का ढिंढोरा पीटते हैं, हमें यह भी कबूलना चाहिए कि नेताओं और उन्हें चुनाव जिताने वाले मतदाताओं के बीच के संबंध खतरनाक रूप से कमजोर पद चुके हैं.

ऐसी उद्यमशीलता की कुछ और मिसालें सामने आईं तो राजनीतिक नेताओं के प्रति लोगों की नफरत उस स्तर पर पहुंच जाएगी जब उनका रिश्ता टूट ही जाएगा.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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