अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के साथ ही बीजेपी अपने मूल समर्थकों से किया एक और बड़ा वादा पूरा करने जा रही है. बीजेपी के विरोधी बेशक बीजेपी पर आरोप लगाते हैं कि बीजेपी चुनाव के दौरान किए वादों को पूरा नहीं करती है लेकिन ये आरोप पूरी तरह सच नहीं है.
बीजेपी बेशक हर खाते में 15 लाख रुपए, 100 स्मार्ट सिटी या हर साल दो करोड़ नौकरियां जैसे चुनावी वादे पूरा नहीं करती लेकिन उसने अपने मूल समर्थकों के बीच किए तीन प्रमुख वादों- (1) संविधान से अनुच्छेद-370 को हटाना/प्रभावहीन करना, (2) आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करना और (3) अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण- को पूरा कर दिया है. इसके लिए उसने किसी भी हद तक जाना स्वीकार किया है.
कश्मीर को स्वायत्त दर्जा प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद-370 और 35ए को इस पार्टी की सरकार ने पिछले साल न केवल सफलतापूर्वक हटाया बल्कि इस मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को अलग-थलग भी कर दिया. जम्मू-कश्मीर का विभाजन करना और उससे पूर्ण राज्य का दर्जा छीन लेना भी बीजेपी के वादों के अनुरूप ही था.
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अपने मूल वादों को लेकर वफादार रही बीजेपी
इसी प्रकार आम चुनाव के चंद महीने पहले सरकार ने जिस गोपनीय तरीके से उच्च जातियों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की तैयारी की और आनन-फानन में संविधान संशोधन विधेयक पास कर दिया था, वह भी गौर करने की लायक बात है. तब विपक्षी पार्टियों को ऐन वक्त पर ही पता चल पाया था कि सरकार ऐसा कुछ करने जा रही है. बीजेपी की इस रणनीति की वजह से विपक्षी पार्टियों को इस मुद्दे पर रणनीति बनाने का समय ही नहीं मिला था, जिसकी वजह से कुछ पार्टियों ने तो संसद के एक सदन में इस बिल का विरोध किया था तो दूसरे सदन में समर्थन.
अब तक जब भी किसी समुदाय को आरक्षण देने की कोशिश हुई है तो वह संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत हुई है और उसके लिए केवल मंत्रिमंडल के निर्णय या उससे ज़्यादा कुछ हुआ तो साधारण सा कानून बनाकर आरक्षण दिया गया है. बीजेपी सरकार ने आगे जाकर संविधान में संशोधन करके सवर्णों को आरक्षण दिया ताकि उसकी वैधता को कोर्ट में आसानी से न चैलेंज न किया जा सके और ये न कहा जा सके कि ये आरक्षण कोर्ट द्वारा लगाई गई 50% की सीमा का उल्लंघन है.
बीजेपी और राम मंदिर की राजनीति
तीसरा मुद्दा अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का है, जिसका निर्माण कार्य सरकार तब शुरू कराने जा रही है जब पूरा देश कोरोना की महामारी से जूझ रहा है. चूंकि भारत में महामारी का प्रकोप अभी भी पीक यानी उच्चतम स्तर पर नहीं पहुंचा है, इसलिए अभी इसका सबसे भयानक दौर देखना बाकी है. इन सबके बावजूद अगर बीजेपी सरकार मंदिर निर्माण कार्य शुरू कराने जा रही है, तो यह बताता है कि यह पार्टी अपने मूल मुद्दों को लेकर कितनी कमिटेड है. बाकी दलों को इस कमिटमेंट से सीखना चाहिए.
कोरोना की वजह से दुर्भाग्य से अगर भविष्य में लोगों की हालत और खराब होती है तो इतिहास में यह बात दर्ज होगी कि जिस समय सरकार को अपना सारा ध्यान स्वास्थ सेवाएं उपलब्ध कराने पर देना चाहिए था, उस समय वह मंदिर निर्माण में लगी थी. यह बात इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि केंद्र सरकार समेत राज्य सरकारों के ज़्यादातर मंत्री अब तब अस्पतालों का दौरा करने से बचते रहे है. इसमें यह भी जोड़ देने की ज़रूरत है कि देश के गृह मंत्री और मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक के मुख्यमंत्री को कोरोना हो गया है, यूपी की एक मंत्री की कोरोना से मृत्यु तक हो चुकी है, राम मंदिर के पुजारियों और सुरक्षाकर्मियों को भी कोरोना संक्रमण हो गया लेकिन फिर भी सरकार ने शिलान्यास का निर्णय लिया है.
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राम मंदिर आंदोलन का इतिहास
वैसे अगर पिछले सौ साल के भारत के इतिहास पर नज़र डाली जाए, राम जन्मभूमि/राम मंदिर का मुद्दा अस्सी के दशक तक बीजेपी और उसकी पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ या फिर इसके मूल संगठन आरएसएस का मुख्य मुद्दा नहीं था. यह मुद्दा मूल रूप से अखिल भारतीय हिंदू महासभा का था, जिसे बीजेपी ने बाद में अपना लिया. हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर, बीएस मुंजे, भाई परमानंद आदि मानते थे कि ‘क्षत्रिय धर्म’ ही वास्तविक ‘हिंदू धर्म’ है.
विदित हो कि भारत की ज्ञान परम्परा में धर्म का मतलब कर्तव्य से है, जो कि दो प्रकार का बताया गया है- (1) साधारण धर्म (2) स्वधर्म. साधारण धर्म में जहां माता-पिता समेत बड़ों की आज्ञा मानना, पशु पक्षियों पर दया करना आदि को शामिल किया जाता है तो स्वधर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत निर्धारित किए गए कार्य को करना माना जाता है. वर्णाश्रम धर्म की संकल्पना के तहत ब्राह्मणों का कार्य पूजा-पाठ कराना, क्षत्रियों का कार्य राज करना, वैश्यों का कार्य व्यापार करना और शूद्रों का कार्य सेवा करना है.
धर्म की उक्त अवधारणा में साधारण धर्म और स्वधर्म के बीच टकराव की स्थिति में स्वधर्म यानी वर्णाश्रम धर्म को मानना सर्वोत्तम समझा गया है. हिंदू महासभा के नेता चारों वर्णों के धर्म में से क्षत्रियों के धर्म यानी वीरता को वास्तविक हिंदू धर्म मानते थे, इसी वजह से उन्होंने हिंदुओं को ‘मिलिटराइज’ करने की बात कही थी.
राम मंदिर का मुद्दा हिंदू महासभा का था
क्षत्रीय धर्म को वास्तविक हिंदू धर्म मानने की वजह से ही हिंदू महासभा ने रामजन्म भूमि/राम मंदिर का मुद्दा उठाया था क्योंकि राम की स्वीकार्यता लगभग पूरे देश के क्षत्रीय रजवाड़ों में रही थी. हिंदू महासभा 1937 के चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गयी थी. इसके बाद उसने रजवाड़ों को अपने पाले में लाने की कोशिश की ताकि उनके माध्यम से उसकी ताकत बढ़ सके.
महासभा ने अपने इस उद्देश्य के लिए राम को एक आदर्श क्षत्रिय के रूप में प्रचारित किया, ताकि छोटे-छोटे रजवाड़ों में बंटे क्षत्रियों को वह एकजुट कर सके. अपनी इस कोशिश में महासभा काफी हद तक सफल भी हुई थी. समाज विज्ञानी इयान कोपलैंड (2007) के अनुसार महासभा ने अपनी इस कोशिश की बदौलत अलवर के तेज सिंह, बीकानेर के गंगा सिंह और सादुल सिंह, बिलासपुर के आनन्द चंद, चरखरी के जोगेंद्र सिंह देव, देवास के विक्रम सिंह राव, फरीदकोट के हरिन्दर सिंह, ग्वालियर के जयाजी राव सिंधिया, कोटा के भीम सिंह और रीवा के मार्तंड सिंह से गहरे सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे.
पिछड़ों में क्षत्रीय कहलाने की ललक और राम का मुद्दा
आज़ादी के बाद रजवाड़ों की समाप्ति और भूमि सुधार के कार्यक्रम के लागू होने की वजह से हिंदू महासभा कमज़ोर हो गयी, जिसकी वजह से रामजन्म भूमि का उसका मुद्दा कुछ समय के लिए पीछे चला गया था. लेकिन हिंदू महासभा के कमज़ोर होने का मतलब यह नहीं था कि भारतीय जनमानस में राम की स्वीकार्यता कम हो गयी. बल्कि यह भावना बढ़ती ही गयी. इसके बढ़ने में बड़ा योगदान ‘संस्कृतिकरण’ की प्रक्रिया का रहा जिसके तहत भूमि सुधार के कार्यक्रम से खेतिहर बनी किसान जातियां अपना सामाजिक स्तर ऊंचा उठाने के लिए खुद को क्षत्रीय घोषित करने लगीं. इस कड़ी में अखिल भारतीय कुर्मी-क्षत्रीय महासभा और अखिल भारतीय यादव-क्षत्रीय महासभा को उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है.
संस्कृतिकरण की कुछ ऐसी ही प्रक्रिया पूर्व में अछूत समझी जाने वाली जातियों में भी शुरू हुई जो कि अपना सामाजिक स्तर ऊपर उठाने के लिए अपने खुद को क्षत्रीय घोषित करने लगीं. अब जब कोई सामाजिक समूह अपने को क्षत्रीय घोषित करेगा तो उसे क्षत्रीय के आराध्य राम को तो अपनाना ही पड़ेगा.
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रामायण धारावाहिक का योगदान
राम की आम जनमानस में व्यापक स्वीकार्यता रामायण सीरियल के दूरदर्शन पर प्रकाशित होने के बाद आयी. हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि आम जनमानस में राम का नाम इससे पहले नहीं था. राजनीति विज्ञानी सज्जन कुमार के अनुसार राम का नाम भारत के आम जनमानस में पहले से ही मौजूद था लेकिन उसके विविध रूप थे.
दूरदर्शन पर प्रचारित हुए रामायण ने वाल्मीकी रामायण में बतायी गयी कहानी को अपना लिया जिसकी वजह से रामायण के अन्य रूप जैसे कम्ब रामायण, जैन रामायण, जातक रामायण आदि गौण हो गए. दूरदर्शन पर प्रचारित हुए वाल्मीकी रामायण से बनी जनचेतना को बीजेपी ने दलित, पिछड़ी जातियों में आ रही सामजिक न्याय की चेतना को काउंटर करने के लिए किया और पार्टी ने मंडल कमीशन के आगे कमंडल का आंदोलन खड़ा किया. पार्टी अपने इस उद्देश्य में काफी हद तक कामयाब भी हुई है. भूमि पूजन के साथ बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन में निर्णायक सफलता प्राप्त कर ली है.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं)
jal gayi mullo ki burnol laga
Jay Shree ram…. Bhaiya ji kese ho… Print saaf nai aa rhi hai….
Margdarsak karte rahe