यूपी को लेकर एक बार फिर से खबरें आने लगी हैं कि सपा-बसपा-रालोद गठबंधन कांग्रेस को शामिल करने का इच्छुक है. ऐसा लगता है कि कम से कम अखिलेश यादव फिर से वही गलती करने जा रहे हैं जो 2017 में उन्होंने की थी और तब यूपी की जनता ने साफ कह दिया था कि उसे यह साथ पसंद नहीं है.
गठबंधन में जगह न मिलने के बाद कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को नए कलेवर में पेश करके ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जिसमें लगे कि कांग्रेस अब भी यूपी में बड़ी ताकत है. ये कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई और प्रियंका को पहले यूपी के दौरे के बाद दूसरी बार यूपी जाने में तकरीबन एक माह का समय लग गया.
इस दौरान कांग्रेस ने केवल एक काम किया कि मीडिया के जरिए ये हवा बनाने की कोशिश की कि गठबंधन में अगर कांग्रेस शामिल नहीं की जाती है तो भाजपा विरोधी वोट बंट जाएंगे. बीच में अज्ञात सूत्रों के हवाले से कुछ खबरें ऐसी भी चलीं जिनमें कहा गया कि गठबंधन कांग्रेस को 18 सीटें तक देने को तैयार है.
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हालांकि, इसके बाद अखिलेश यादव ने स्पष्ट कर दिया था कि गठबंधन में कांग्रेस शामिल है और उसे 2 सीटें यानी अमेठी और रायबरेली दी गई हैं, लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस अंदरखाने से अखिलेश पर दबाव डालने में लगी है.
प्रयास किया जा रहा है कि अखिलेश यादव का ध्यान इस बात पर न जाए कि कांग्रेस के पास वोटर तो दूर की बात, ढंग के कैंडीडेट तक नहीं बचे हैं. मुसलमानों की प्राथमिकता में कांग्रेस सपा और बसपा के बाद तीसरे नंबर पर ही है, और यह बात गोरखपुर उपचुनाव में साबित भी हो चुकी थी.
पहले तो कांग्रेस गोरखपुर और फूलपुर में से एक सीट अपने लिए मांगती रही और जब उसकी बात नहीं मानी गई तो उसने गोरखपुर से डॉ वजाहत करीम की पत्नी डॉ सुरहिता करीम को खड़ा करके मुसलमान वोट काटने की कोशिश की. ये अलग बात रही कि करीम को केवल 18,858 वोट मिले थे.
इसी तरह से गठबंधन के उम्मीदवार के सामने फूलपुर में कांग्रेस के मनीष मिश्रा को केवल 19353 वोट मिले थे. ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि कांग्रेस के पास यूपी में किसी तरह के मतदाता बचे ही नहीं है. जिन सात सीटों पर 2014 के चुनाव में उसे कुछ ठीक-ठाक वोट मिले थे, उनमें भी उसकी हालत लगातार गिरी है.
गठबंधन में कांग्रेस को शामिल करने में एक बड़ी बाधा और है. कांग्रेस के वोटर सपा-बसपा ही नहीं, लोकतांत्रिक जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल जैसे जनता परिवार के दलों को वोट नहीं देते क्योंकि उनके अंदर ये धारणा है कि इन्हीं दलों के कारण कांग्रेस 90 के दशक में कमजोर हुई. इसका एक बड़ा और उल्लेखनीय उदाहरण मध्यप्रदेश में हाल में हुए विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिला.
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मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जतारा सीट अपने सहयोगी लोकतांत्रिक जनता दल के लिए छोड़ी और उस पर भी अपने ही कैंडीडेट कैप्टन विक्रम चौधरी को लोकतांत्रिक जनता दल के टिकट पर उतारा.
इस सीट पर भाजपा के हरिशंकर खटीक 63,315 वोट लेकर जीते. लोकतांत्रिक जनता दल के कैप्टन विक्रम चौधरी को केवल 1,195 वोट मिले. जाहिर है, कांग्रेस के किसी समर्थक ने कैप्टन को वोट नहीं दिया. यहां तक कि सपा की अनीता खटीक को 21,000, बसपा के द्वारका प्रसाद अहिरवार को 18000, महान दल के आरआर बंसल को 26,600 वोट मिले.
उत्तरप्रदेश की जनता पहले ही बता चुकी है कि उसे अखिलेश और राहुल का साथ पसंद नहीं आता. 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी से तालमेल करके अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा, 103 सीटें ले लीं और बाद में उसे सारी सीटों पर कैंडिडेट तक नहीं मिले और कुछ पर सपा के ही कैंडिडेट उधार लेने पड़े. मतदान के समय भी सपा की सीटों पर कांग्रेस के बचे-खुचे समर्थकों ने भाजपा को ही वोट देना ज्यादा पसंद किया.
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कांग्रेस खुद इन दलों को किस कदर नापसंद करती है, इसका एक और उदाहरण मध्यप्रदेश से ही देखने को मिल रहा है. इस राज्य में मुंगावली और कोलारस के उपचुनावों में ज्योतिरादित्य सिंधिया के अनुरोध पर सपा ने अपने प्रत्याशी नहीं उतारे थे. वही सिंधिया, मध्यप्रदेश में सपा के विधायक को सरकार में शामिल तक नहीं करा रहे हैं.
मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार सपा और बसपा के समर्थन से चल रही है और नाजुक स्थिति में है, लेकिन इतने पर भी कांग्रेस दोनों सहयोगी दलों को सरकार में भागीदारी नहीं दे रही.
ऐसा लगता है कि कांग्रेस सपा-बसपा की सीटें कम से कम कराना चाहती है. इस क्रम में उसकी रणनीति यह है कि इन दलों को हरा नहीं पा रही है तो गठबंधन के बहाने ही कुछ सीटें इनसे झटक ली जाएं, ताकि केंद्र में इन दलों की ताकत बढ़ न पाए.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)