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Friday, 22 November, 2024
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एलके झा से पीएन हक्सर और पीके मिश्रा तक — PMO कैसे बना भारत का पावर हब

यह विडंबना है कि पीएमओ, जिस पर अक्सर भारत को वास्तविक राष्ट्रपति शासन प्रणाली देने का आरोप लगाया जाता है, का निर्माण सबसे अधिक सलाहकार प्रधानमंत्रियों में से एक, लाल बहादुर शास्त्री ने करवाया था.

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16 जून 1964 को भारत सरकार के कार्य आवंटन नियम 1961 में मामूली सी दिखने वाली प्रविष्टि ने नवनिर्मित प्रधानमंत्री सचिवालय या (पीएमएस) को वैधानिक दर्जा दिया. इसके कर्तव्यों में शामिल था: “प्रधानमंत्री को सचिवालयीय सहायता प्रदान करना”. हालांकि, इसका कहीं अधिक दूरगामी प्रभाव होना था. इससे कैबिनेट सचिव की भूमिका हमेशा के लिए कम हो गई, जो अब तक विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय के लिए जिम्मेदार थे और देश में वरिष्ठतम नियुक्तियों को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे.

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) कहे जाने वाले सबसे ‘शक्तिशाली’ सरकारी कार्यालय, जिस पर भारत में वास्तविक रूप से राष्ट्रपतीय शासन व्यवस्था प्रणाली को लाने का आरोप लगाया जाता है, उसे लाल बहादुर शास्त्री द्वारा लाया गया था जिन्हें सबसे ज्यादा ‘परामर्श करके’ कोई कदम उठाने वाले प्रधानमंत्रियों में से एक माना जाता था.

पीएमएस के पहले सचिव भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) के अधिकारी एलके झा थे, जो प्रतिभाशाली, कुशल, सक्षम और मेहनती होने के साथ-साथ, शास्त्री के आर्थिक और राजनीतिक विचारों से भी पूरी तरह इत्तेफाक रखते थे, विशेषकर चौथी पंचवर्षीय योजना का आकार घटाने, राजकोषीय घाटे को कम करने और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंधों को सुधारने के मामले में. प्रधानमंत्री को उन पर पूरा भरोसा था और उनके सीनियर आईसीएस अधिकारी व कैबिनेट सचिव धरम वीरा के साथ उनके अच्छे संबंध थे. लेकिन झा की प्रधानमंत्री के साथ (कथित) निकटता के कारण जल्द ही वे उन पर भी हावी हो गए.


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शक्ति का एक नया केंद्र

शास्त्री ने प्रधानमंत्री बनने के एक महीने के भीतर पीएमएस की स्थापना की और जैसा कि रायसीना हिल में सत्ता के खेल पर नज़दीकी से नज़र रखने वाले इंदर मल्होत्रा ने लिखा, नई सरकारी संस्था “लगभग तुरंत और शायद अनिवार्य रूप से, शक्ति का एक नया केंद्र बन गई”.

शास्त्री ने आर्थिक मामलों के मंत्रालय में झा के कामकाज को देखा था और वे उनसे काफी प्रभावित थे, लेकिन वे गृह मंत्रालय में तत्कालीन अतिरिक्त सचिव एलपी सिंह से भी उतने ही प्रभावित थे. शास्त्री असल में पीएमएस में दो सचिवों को रखना चाहते थे — आर्थिक मामलों के लिए झा को और प्रशासनिक मामलों के लिए सिंह को, लेकिन यह हो न सका. झा ने इस बात को स्वीकार नहीं कर सके कि उनके बराबर रैंक का कोई व्यक्ति पीएमएस में आए या पीएमएस का नेतृत्व संभालने में सहभागिता निभाए. झा की पहली ‘चाल’ यह सुनिश्चित करना था कि किसी भी तरह से तत्कालीन मंत्री गुलज़ारीलाल नंदा, सिंह को गृह मंत्रालय से कार्यमुक्त न करें. इस प्रकार पीएमएस में उनके साथ अन्य दो सहयोगी — राजेश्वर प्रसाद और सीपी श्रीवास्तव (सीपीएस) – जो कि संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी थे, उन्होंने पीएम पद पर शास्त्री के कार्यकाल के बारे में व्यापक संस्मरण लिखे.

LK Jha and Shastri
लाल बहादुर शास्त्री एलके झा के साथ | फोटो: www.lkjhfoundation.org

प्रसाद ने ‘Days with Lal Bahadur: Glimpses from the Last Seven Years’ और सीपीएस ने ‘Lal Bahadur Shastri: Prime Minister of India 1964-1966 (A Life of Truth in Politics)’ लिखी. उन दिनों को याद करते हुए सीपीएस ने राजनीतिक वैज्ञानिक माइकल ब्रेचर की किताब ‘Nehru’s Mantle: The Politics of Succession in India:’ से उद्धरण दिया: “यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि एलके झा के सशक्त व्यक्तित्व के चलते प्रधानमंत्री सचिवालय, अखिल भारतीय राजनीति में शक्ति का एक प्रमुख केंद्र बन गया. इसने कई मुद्दों पर दबाव डाला खासकर आर्थिक नीति और विदेशी मामलों के मुद्दों पर.”

यही धारणा अंग्रेज़ी प्रेस और विदेशी संवाददाताओं की भी थी, जिनकी बोलचाल, हाव-भाव और विचारों के मामले में झा के साथ अधिक समानता थी, न कि भारतीयता के पुट वाले शास्त्री के साथ जो हिंदी में बातचीत करना पसंद करते थे और ऑक्सब्रिज चुटकुले नहीं सुना पाते थे. आज कल की भाषा में कहें तो, एल. के. झा खान मार्केट ग्रुप से थे, जबकि शास्त्री बिल्कुल गांधीवादी थे!

हालांकि, सीपीएस ने यह भी लिखा है कि ब्रेचर ने शायद पीएम के सलाहकार और साउंडिंग बोर्ड के रूप में झा की भूमिका को कुछ ज्यादा ही महत्व दे दिया, खासकर जब कृषि से जुड़े मुद्दों पर. ब्रेचर के अनुसार, झा की सलाह पर ही शास्त्री ने कृषि क्षेत्र को अपनी प्राथमिकता बनाई. हालांकि, स्पष्ट तौर पर एक अतिशयोक्ति है, क्योंकि झा को 12 जुलाई को इस पद पर नियुक्त किया गया था, जबकि सी सुब्रमण्यम 9 जून को खाद्य और कृषि मंत्री बने और उनके पास इस बारे में उनके विचार बहुत स्पष्ट थे कि कृषि क्षेत्र में कैसे बदलाव लाना है, साथ ही, निश्चित रूप से , शास्त्री का खुद का भी इस विषय पर काफी रिसर्च तो था ही.

एलके झा के प्रति निष्पक्ष रहें तो उन्होंने हमेशा अपने प्रभाव को कम करके दिखाया. शास्त्री के साथ अपने कार्यकाल को याद करते हुए उन्होंने लिखा है: “जैसा कि मैं उन हलचल भरे महीनों को याद करता हूं, जो पहले से ही इतिहास का हिस्सा है, (शास्त्री) के बारे में मेरी सबसे शानदार धारणा यह है कि उनमें सतही तौर पर दो विरोधी प्रतीत होने वाले गुणों का अनोखा मेल था. उनमें अथाह विनम्रता थी, वे हमेशा दूसरों की बात सुनने के लिए तैयार रहते थे, उनकी राय और सलाह को महत्व देते थे, कानून बनाने के बजाय हर समय सीखने की कोशिश करते थे. वहीं दूसरी ओर वह गहरे दृढ़ विश्वास वाले व्यक्ति थे, जो अपने बारे में जानते थे, और उनके सामने जिन भी विचारों को रखा जाता था उन सोच-विचार कर निर्णय लेते थे और एक बार फैसला करने व मन बनाने के बाद वे कभी पीछे नहीं हटते थे, बल्कि दृढ़ता से अडिग रहते थे.”

Jha goes on to add, “because of his modesty, there were many who thought that it was his advisers who really shaped his policies. This impression got strengthened because it seemed that he was setting up a secretariat which was much larger, and consisting of more senior people than Prime Minister Nehru had.”

झा आगे कहते हैं, “उनकी विनम्रता के कारण, ऐसे कई लोग थे जो सोचते थे कि उनकी राजनीति की दिशा और दशा उनके सलाहकार तय करते हैं. यह धारणा इसलिए मजबूत हो गई क्योंकि ऐसा लग रहा था कि वह एक ऐसा सचिवालय बना रहे हैं जो बहुत बड़ा होगा और इसमें प्रधानमंत्री नेहरू की तुलना में कहीं अधिक वरिष्ठ लोग शामिल होंगे.”

फिर भी, यह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि प्रशासन में सत्ता का समीकरण स्थायी रूप से बदल गया था.


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बदलता नियंत्रण

पूर्व वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह ने अपने संस्मरण, पोर्ट्रेट्स ऑफ पावर में याद करते हुए लिखा है कि वह अपने आईसीएस पिता टीपी सिंह के साथ झा को पीएम के सचिव के रूप में उनकी नियुक्ति पर बधाई देने के लिए गए थे.

एनके याद करते हुए लिखते हैं कि उनके पिता ने हल्के-फुल्के अंदाज में कहा, “बधाई हो, एलके, दो चीजों के लिए: पहला, उस उच्च पद के लिए जिस पर अब आप काबिज हैं; और दूसरा, इस उल्लेखनीय बदलाव के लिए, जिसने अब सिविल सेवा प्रतिष्ठान के पारंपरिक तौर-तरीके को खत्म कर दिया है.

एलके ने तपाक से उत्तर दिया: “आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? कैबिनेट सचिव के प्रति मेरे मन में गहरा सम्मान है.” इस पर, पलटकर टीपी ने कहा: “सिद्धांत को जाने दीजिए. बाकी समय ही बताएगा.”

अपने पिता के द्वारा की गई इस भविष्यवाणी को और स्पष्ट करते हुए हुए एनके सिंह लिखते हैं: “इस संरचनात्मक बदलाव ने कैबिनेट सेक्रेटरी की प्रधानता को स्थायी रूप से खत्म कर दिया. (टीपी सिंह) ने कहा कि यह बिल्कुल साफ है कि कैबिनेट सेक्रेटरी का महत्त्व इसलिए था क्योंकि वह प्रधानमंत्री को सलाह देने वाले अंतिम व्यक्ति होते थे, लेकिन अब से, प्रधानमंत्री के सचिव के रूप में, एलके का नोट सबसे महत्वपूर्ण होने वाला था क्योंकि प्रधानमंत्री अब इसे पढ़ने वाले थे. इससे सिविल सेवा प्रतिष्ठान की हायरार्की में गुणात्मक और संरचनात्मक परिवर्तन आ गया.”

इंदर मल्होत्रा लिखते हैं, “जैसा कि उम्मीद की जा रही थी, झा की नियुक्ति के पहले कुछ हफ्तों के भीतर, तीव्र और व्यापक नाराजगी देखी गई, खासकर तत्कालीन सिविल सेवा के प्रमुख कैबिनेट सेक्रेटरी की ओर से”

Jha added fuel to the fire by extending his control from economic affairs and domestic policy to also include foreign affairs, despite his inexperience in this field. He was often part of the Prime Minister’s entourage on foreign visits.

झा ने आर्थिक मामलों और घरेलू नीति पर अपने नियंत्रण को विस्तृत करके विदेशी मामलों तक बढ़ा लिया भले ही इस मामले में उनके पास अनुभव की कमी थी. इसने आग में घी डालने का काम किया. वह अक्सर विदेश दौरों पर प्रधानमंत्री के शिष्ट मंडल का हिस्सा होते थे.

उदाहरण के लिए, 1964 में, अंतर्राष्ट्रीय मामलों में शास्त्री के पहले कदम – काहिरा में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (एनएएम) सम्मेलन – के दौरान विदेश मंत्रालय ने उनके लिए एक मसौदा भाषण तैयार किया था. लेकिन झा के पास एक वैकल्पिक मसौदा था, जो भारतीय प्रधानमंत्री का आधिकारिक भाषण बन गया. इसने कई लोगों को नाराज़ कर दिया. अन्य परिवर्तन भी हो रहे थे. नेहरू के समय में, विदेश कार्यालय के महासचिव को कैबिनेट सचिव के बराबर माना जाता था, और प्रधानमंत्री अक्सर विदेश सेवा के अधिकारियों को अपनी बात कहने के लिए उपयोग करते थे. हालांकि, विदेश कार्यालय को स्पष्ट रूप से दरकिनार करते हुए, विदेश मामलों पर सचिवों की उच्चाधिकार प्राप्त छह-सदस्यीय समिति में कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री के सचिव के साथ-साथ वित्त, वाणिज्य और उद्योग व रक्षा सचिव भी शामिल थे. दिलचस्प बात यह है कि गृह सचिव को इस समिति से बाहर रखा गया था.

शास्त्री की मृत्यु के बाद, झा सचिवालय में कार्यरत रहे, लेकिन जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, तो उन्होंने उन पर उतना भरोसा नहीं जताया. इसके बजाय, उन्होंने पीएमएस के प्रमुख के रूप में पीएन हक्सर को चुन लिया. इस मामले में जयराम रमेश की किताब इंटरट्वाइंड लाइव्स में काफी अच्छी तरह से समझाया गया है.

तब से लेकर अब तक, जब से पीके मिश्रा पीएमओ के शीर्ष पर हैं, यह कार्यालय सत्ता का केंद्र रहा है. इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी जैसे मजबूत नेताओं के कार्यकाल में इसका प्रभाव और भी बढ़ गया, लेकिन जब प्रधानमंत्रियों को अपने गठबंधन सहयोगियों के द्वारा घेरा जाता है तो यह कम हो जाता है – या, जैसा कि मनमोहन सिंह के पीएमओ के मामले में, जब यूपीए के तहत अतिरिक्त-संवैधानिक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद चेयरपर्सन सोनिया गांधी अधिक प्रभावशाली हो गईं, तब भी इसका प्रभाव कम होता नज़र आया.

(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के महोत्सव निदेशक हैं. हाल तक, वह लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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