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Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमतपिछले 20 साल के आम चुनावों में पार्टियों का उत्थान और पतन, नया कानून जिसके 2024 के लिए मायने हैं

पिछले 20 साल के आम चुनावों में पार्टियों का उत्थान और पतन, नया कानून जिसके 2024 के लिए मायने हैं

लोकसभा चुनावों के पिछले दो दशकों में यूपीए का उत्थान और पतन, वामपंथ का पतन और भाजपा की पराजय देखी गई. अब चुनाव आयुक्तों को चुनने के लिए एक नया कानून आया है.

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2004 के लोकसभा चुनाव के नतीजे, जो पहली बार पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के जरिए से आयोजित किए गए थे, अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकारों, संपादकीय लेखकों, चुनाव विशेषज्ञों, ‘इंडिया शाइनिंग’ अभियान के समर्थकों और इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्टों की अपेक्षाओं के विपरीत थे. शायद इन सभी ने अटल बिहारी वाजपेयी को शीघ्र चुनाव का आह्वान करने के लिए प्रेरित किया.

14वीं लोकसभा के 543 सदस्यों को चुनने के लिए 20 अप्रैल से 10 मई के बीच चार चरणों में हुए चुनाव में ऐसे नतीजे आए जिसने न केवल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को चौंका दिया, बल्कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) को भी हैरान कर दिया.

हालांकि, कांग्रेस को भाजपा से केवल सात सीटें अधिक मिलीं, लेकिन यूपीए की संख्या 225 सीटों तक पहुंच ई. इसके अलावा, ब्लॉक को बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), समाजवादी पार्टी (एसपी), केरल कांग्रेस (केसी) और वाम मोर्चा से बाहरी समर्थन प्राप्त हुआ.

राजनीतिक वैज्ञानिक फिलिप ओल्डेनबर्ग ने तर्क दिया कि कांग्रेस बड़े पैमाने पर वोट-स्विंग, सत्ता-विरोधी वोट या ग्रामीण गरीबों के विद्रोह के कारण नहीं जीती, जो ‘इंडिया शाइनिंग’ से बाहर रह गए थे, पार्टी जीत गई क्योंकि उसने कई राज्यों में अच्छे गठबंधन बनाए. इसी तरह, विद्वान महेश रंगराजन ने जीत का श्रेय गठबंधन सहयोगियों के साथ सीट-बंटवारे की व्यवस्था को दिया, जबकि चुनाव विशेषज्ञ योगेंद्र यादव ने सुझाव दिया कि यह डिफॉल्ट जीत थी. एक किस्सा यह भी है कि कई पेंशनभोगी और वरिष्ठ नागरिक डाकघरों और बैंकों में अपनी जमा राशि पर ब्याज दरों में भारी गिरावट से नाराज़ थे, जिसने भाजपा और आरएसएस के समर्थन आधार को प्रभावित किया होगा.


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नए शक्ति केंद्र, ‘गठबंधन धर्म’

अपनी ही पार्टी के भीतर विरोध का सामना करते हुए, सोनिया गांधी ने 2004 में मनमोहन सिंह को यूपीए सरकार का प्रमुख नियुक्त किया. हालांकि, उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का नेतृत्व किया, जो एक अतिरिक्त-संवैधानिक निकाय है जो सरकार पर निगरानी रखती थी, जिसकी कई तिमाहियों से आलोचना हुई. असल में यह एक समानांतर सत्ता केंद्र बन गया और मेरे सहित कई संयुक्त सचिवों को सरकार के विभिन्न क्षेत्रीय कार्यक्रमों पर प्रस्तुतियां देने के लिए आमंत्रित किया गया.

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इस चुनाव का एक और नतीजा यूपीए के दोनों कार्यकालों में गठबंधन धर्म (या अधर्म) का प्रचुर प्रदर्शन था, जो कि वाजपेयी द्वारा गढ़ा गया शब्द था. इसका मतलब यह हुआ कि प्रधानमंत्री को गठबंधन सहयोगियों की कई अनुचित मांगें माननी पड़ीं. एक उदाहरण तब था जब 2012 में रेल बजट पेश करने के बाद ममता बनर्जी ने दिनेश त्रिवेदी को तत्काल बर्खास्त करने पर जोर दिया था.

इसी तरह, मनमोहन सिंह ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले के बीच द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) के ए राजा के दूरसंचार मंत्री बने रहने में गठबंधन धर्म एक कारक था. बड़ी मुश्किल से और बहुत हंगामे के बाद, राजा को किनारे कर दिया गया — लेकिन प्रधानमंत्री को पहले डीएमके प्रमुख करुणानिधि से अपील करनी पड़ी.

प्रधानमंत्री के पास गठबंधन सहयोगियों से आए अपने सहयोगियों पर कोई वास्तविक अधिकार नहीं था. इससे सरकार के कामकाज पर असर पड़ना स्वाभाविक है. कई अखबारों ने इस स्थिति को गठबंधन धर्म और संवैधानिक धर्म के बीच टकराव बताया.

2009 के चुनाव में निर्णायक मोड़

2009 में 16 अप्रैल से 13 मई तक हुए चुनाव में कांग्रेस और यूपीए ने और भी बेहतर प्रदर्शन किया. कांग्रेस ने अकेले 206 सीटें जीतीं, जो भाजपा से 90 अधिक थीं, जिसे 116 सीटें मिलीं थी, लेकिन इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह था कि इसने भारत के प्रधानमंत्री बनने की आडवाणी की महत्वाकांक्षा के अंत का संकेत दिया. यह 2009 था जिसने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के भविष्य के नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त किया.

थोड़ा कम, लेकिन काफी महत्वपूर्ण, देश में एक मजबूत राजनीतिक इकाई के रूप में वाम मोर्चे की आभासी हार थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) 43 सीटों से 16 पर पहुंच गई, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 10 से 6 पर पहुंच गई और फॉरवर्ड ब्लॉक और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी केवल दो-दो सांसद ही वापस ला सकीं — दोनों के लिए एक-एक सीट का नुकसान. वामपंथियों की कुल ताकत 59 से घटकर 26 हो गई. इस चुनाव के बाद राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका सीमांत हो गई और उनका प्रभाव केरल और पश्चिम बंगाल की राज्य राजनीति तक सीमित हो गया.

इस चुनाव का एक और मुख्य आकर्षण मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) एन गोपालस्वामी और चुनाव आयुक्त नवीन चावला के बीच सार्वजनिक विवाद था. गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति से चावला को उनकी कथित “पक्षपातपूर्ण” भूमिका के लिए बर्खास्त करने की मांग कर दी. यह लगातार दो सीईसी की देखरेख में होने वाला एकमात्र चुनाव था — गोपालस्वामी का कार्यकाल 20 अप्रैल 2009 को समाप्त हो गया, जिसके बाद चावला ने सीईसी का पदभार संभाला.

2010 में चावला के बाद एसवाई कुरैशी आए, जिन्होंने भारत के चुनावों पर एक अच्छी तरह से प्राप्त टिप्पणी लिखी, जिसका शीर्षक था एन अनडॉक्यूमेंटेड वंडर: द मेकिंग ऑफ द ग्रेट इंडियन इलेक्शन.

अपनी सेवानिवृत्ति के बाद कुरैशी एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में सक्रिय हैं, मुसलमानों के बीच जनसांख्यिकीय परिवर्तन से संबंधित मुद्दों पर लिख रहे हैं, साथ ही नरेंद्र मोदी सरकार की चुनावी बांड योजना के मुखर आलोचक हैं, जिसने गुमनाम राजनीतिक दान की अनुमति दी है. संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना के अधिकार के उल्लंघन के कारण इस योजना को इस साल 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से रद्द कर दिया था. अदालत ने आयकर अधिनियम 1961 और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में किए गए संशोधनों को भी रद्द कर दिया, जिससे गुमनाम राजनीतिक योगदान संभव हो सका था.

‘व्यक्ति विशेष चुनाव’

2014 और 2019 के चुनाव कईं मायनों में ‘व्यक्ति विशेष’ थे, क्योंकि वोट नरेंद्र मोदी के नाम पर मांगे गए थे. 2014 में भाजपा ने अपने दम पर 282 सीटें जीतीं, जबकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सीटें 336 थीं. उन्होंने 2019 में अपने प्रदर्शन में सुधार किया, भाजपा को अपने दम पर 303 सीटें मिलीं और गठबंधन सहयोगियों ने अन्य 50 सीटें जीतीं, जिससे एनडीए की कुल संख्या 353 हो गई.

इस बीच कांग्रेस की संख्या 2014 में 44 सीटों के साथ अपने सबसे निचले स्तर पर थी, जिसमें मामूली सुधार हुआ और 2019 में 52 सीटों पर जीत हासिल की. दोनों बार इस स्थिति के कारण, वे आधिकारिक विपक्षी दल के रूप में मान्यता प्राप्त होने के अधिकार का दावा करने के लिए भी अयोग्य थी. लोकसभा में 10 प्रतिशत सीटों (55) की आवश्यकता है.

2024 में नरेंद्र मोदी, जो लगातार तीसरी बार भाजपा अभियान के नायक हैं, 1984 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रदर्शन की, यदि बेहतर नहीं तो, बराबरी करने की आकांक्षा रखते हैं, जब उसने अपने दम पर 414 सीटें जीती थीं. भाजपा और ओडिशा के बीजू जनता दल (बीजेडी) के बीच संभावित गठबंधन के साथ-साथ त्रिपुरा के तिपरा मोथा के साथ गठबंधन की चर्चा दीवार पर लिखी इबारत को और स्पष्ट कर देती है.


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एक नया अधिनियम

इस सीरीज़ को बंद करने से पहले चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर हाल में हुए बदलावों पर गौर करना ज़रूरी है.

दिसंबर 2023 में संसद ने 1991 के चुनाव आयोग अधिनियम की जगह मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) अधिनियम पारित किया. यह राष्ट्रपति को नियुक्तियों की सिफारिश करने वाली तीन सदस्यीय समिति से सीजेआई को हटा देता है, इसके स्थान पर तीसरा सदस्य अब कैबिनेट मंत्री होंगे.

मार्च 2023 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की 225वीं रिपोर्ट (2015) के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत सीईसी और ईसी की नियुक्ति के लिए एक समिति के गठन का निर्देश दिया. इस समिति में पीएम, सीजेआई और लोकसभा में विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल थे.

इस प्रकार, तीन सदस्यीय चुनाव आयोग में रिक्त पद, जिसमें वर्तमान में सीईसी राजीव कुमार और ईसी अरुण गोयल शामिल हैं, अब इस नए अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार भरे जाएंगे.

(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डायरेक्टर थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev. है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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