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Saturday, 27 April, 2024
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श्रीलंका में चीन को मात देने की कोशिश करने के बजाए भारत को खेल का रुख बदलने की जरूरत है

हिंद महासागर में मिंग राजवंश का आक्रामक विस्तार भारत और शी जिनपिंग दोनों के लिए एक सबक है.

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चांदी के पांच हजार पीस, सोने के एक हजार पीस, रेशम के जड़ाऊ बैनर, चिरागदान, मोमबत्तियां, सुगंधित तेल, हवन सामग्री, ये सब वो उपहार हैं जिनका जिक्र ग्रैंड एडमिरल झेंग हे ने तमिल, फारसी और चीनी भाषाओं में समुद्री मार्ग में लगे शिलालेखों में दर्ज कराया था. ये उपहार मिंग राजवंश के तीसरे सम्राट झू दी की तरफ से बुद्ध को, हिंदू देवता तेनावरई नयनार को और अल्लाह को भेंट किए गए थे. मिंग शासन का बेड़ा देवताओं के ‘वरदहस्त’ की वजह से ‘किसी आपदा या हादसे से बचने में कामयाब हो सका था और सुरक्षित यात्रा कर सका था.’ इसलिए ये उपहार उन्हें भेंट किए गए थे.

सिंहली राजा वीरा अलकेश्वर के पास इस सारे ब्योरे की अलग तरह से व्याख्या का कारण था. पांच वर्ष पूर्व 1405 ईस्वी में जब 28,000 सैनिकों को लेकर 62 मिंग जहाजों का विशाल बेड़ा पहली बार श्रीलंका के तट पर पहुंचा, तब झेंग हे ने बुद्ध के दांतों का अवशेष पाने की इच्छा जताई, जो कि इस द्वीप के शासक की संप्रभुता का प्रतीक था. इसके बाद झेंग ने स्थानीय सरदारों को उपहार दिए, और धार्मिक नेताओं को तैयार किया.

शिलालेखों पर झेंग की तरफ से दर्ज कराए गए ब्योरे में मिंग सम्राट के शासनकाल के वर्षों का जिक्र है, सिंहली राजा का नहीं—जो कि अलकेश्वर के वर्चस्व का घोर अपमान था. इसलिए राजा ने बदला लेने की रणनीति बनाई.

इसके बाद जो हुआ वह भारत और नरेंद्र मोदी सरकार के लिए एक महत्वपूर्ण सबक है, क्योंकि इसमें ही श्रीलंका के आर्थिक तौर पर तबाह होने के बाद अपनाई जाने वाली रणनीतिक प्रतिक्रिया का जवाब छिपा है. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने खुद को शाही परंपरा आगे बढ़ाने वाले के तौर पर पेश किया है, जिसने कभी मौजूदा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक गहरी छाप छोड़ी थी. यह कहानी बेहद अहम है, न केवल हमें चीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के बारे में बताने के लिए, बल्कि यह सिखाने के लिए भी कि उन्हें इसमें विफलता क्यों हाथ लगी.

चीनी ताकत का स्वर्णिम काल

1405 से 1433 तक झेंग ने हिंद महासागर में सात अभियानों का नेतृत्व किया. मिंग शासनकाल के स्वर्णिम काल में सम्राट की नौसेना ने मलक्का के जलडमरूमध्य में समुद्री डाकुओं के सरदार चेन जुई पर नकेल कसी, सुमात्रा में जबरन सत्ता हथियाने वाले प्रिंस सिकंदर को हराया और कोझीकोड और कोच्चि में भारतीय राजाओं से मुकाबला किया. सम्राट के दूत और इतिहासकार तानसेन सेन की तरफ से दर्ज ब्योरे के मुताबिक, यहां तक कि बंगाल के सरदारों जलालुद्दीन शाह और इब्राहिम शाह को एक-दूसरे पर हमले बंद करने का आदेश दिया.

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अलकेश्वर, जिसने घात लगाकर किए गए एक हमले में झेंग को घेरने का प्रयास किया, अंतत: अपने परिवार के साथ पकड़ लिया गया और जंजीरों में जकड़कर सम्राट के सामने पेश किया गया. बाद में उन्हें घर तो वापस भेज दिया गया लेकिन सत्ता से बेदखल होना पड़ा.

इतिहासकार लोर्ना देवराजन रिकॉर्ड के तौर पर एक इंपीरियल क्रॉनिकल का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘उस समय से ही समुद्र के किनारे बसे बर्बर राष्ट्र चीन के शाही साम्राज्य के आगे नतमस्तक रहे.’

उसी तरह का भू-राजनीतिक वर्चस्व हासिल करने की शी की योजना किसी से छिपी नहीं है. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी ने जिबूती से लेकर ग्वादर और हंबनटोटा तक अपनी लॉजिस्टिक एसेट्स बढ़ाने में निवेश किया है. चीनी नौसैनिक क्षमता भी आश्चर्यजनक ढंग से काफी बढ़ी है, और अब उसके पास दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य बेड़ा है.

इसके विपरीत, नकदी की कमी से जूझ रही भारतीय नौसेना एक दशक बाद भी 200-जहाजों का अपना मामूली लक्ष्य पूरा नहीं कर पाई है. यहां तक कि अमेरिकी नौसेना के बजट ने भी हिंद महासागर में पीएलए-नौसेना से मुकाबले की भारत की क्षमता पर सवाल खड़े किए हैं.

जाने-माने विद्वान पी. वेंकटेश्वर राव इसका उल्लेख करते हैं कि भारतीय राजनयिकों की पीढ़ियां भारत को ‘दक्षिण एशिया के सुरक्षा प्रबंधक के तौर पर’ देखते बीती हैं. चीन का बढ़ता आर्थिक प्रभाव और सैन्य शक्ति नई दिल्ली के वह भूमिका निभाने की क्षमता पर ही सवाल खड़े करती है. सवाल यह है कि भारत को उस चुनौती का जवाब कैसे देना चाहिए?


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श्रीलंका का गहराता कर्ज संकट

उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए, यह समझना महत्वपूर्ण है कि श्रीलंका में चीन का विवादास्पद निवेश समस्या नहीं है. 1950 के दशक से निर्यात से होने वाली कमाई के बलबूते पर ही श्रीलंका भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर उदारतापूर्वक सब्सिडी देने में सक्षम हो पाया है. देश ने इस क्षेत्र में सामाजिक विकास संकेतकों पर लगातार बेहतर प्रदर्शन किया है. 1977 में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था मुक्त हुई और बाहरी सहायता का प्रवाह बढ़ा और सरकारों के लिए राजस्व बढ़ाने की बहुत ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं रही.

हालांकि, 1999 में जब श्रीलंका को निम्न-मध्यम आय वाला देश घोषित किया गया, उसके बाद से सहायता प्रवाह घटने लगा. देश में 2009 तक चले लंबे गृहयुद्ध ने भी सरकारी संसाधनों पर दबाव बढ़ाया. समय पर भुगतान श्रीलंका की अर्थव्यवस्था की नियमित समस्या रही है—1965 के बाद से देश को 16 बार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की सहायता लेनी पड़ी है—लेकिन अब वो और अधिक दबाव में आ गई है.

विद्वान योलानी फर्नांडीस ने दर्शाया है कि सरकार को राजस्व और खर्च के बीच अंतर पाटने के लिए वाणिज्यिक बाजार से उधार लेने की तरफ कदम बढ़ाना पड़ा. 2004 में वाणिज्यिक उधार विदेशी कर्ज का सिर्फ 2.5 प्रतिशत था; 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 56 फीसदी तक पहुंच गया. सबसे अहम बात यह है कि चीन की तरफ से मुहैया कराया गया कर्ज केवल 17.2 प्रतिशत था—और औसतन, वाणिज्यिक उधारी की तुलना में आधी ब्याज दर पर था.

पिछले साल, श्रीलंकाई सरकार के राजस्व का 95.4 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ ब्याज भुगतान में गया. ‘तुलनात्मक आकलन के लिए’ फर्नांडीस रेखांकित करते हैं, ‘क्रेडिट रेटिंग में इसके समकक्ष इथियोपिया और लाओस की दर क्रमशः 11.8% और 6.6% रही है.’

श्रीलंका के उधार लेने के कारण स्पष्ट हैं. श्रीलंकाई राजनेता लोकप्रिय सामाजिक कल्याण खर्च घटाना नहीं चाहते थे. स्थितियां तब और बदतर हो गईं जब राष्ट्रपति नंदसेना गोटबाया राजपक्षे ने टैक्स में बड़ी कटौती की, जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रेडिट रेटिंग और गिर गई. फिर, कोविड महामारी की मार पड़ी और उसके बाद रासायनिक उर्वरकों का उपयोग बंद करने का फैसला कृषि क्षेत्र के लिए विनाशकारी साबित हुआ.

भले ही नई दिल्ली ने उदारता दिखाते हुए एक अरब डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट सुविधा देकर श्रीलंका को राहत पहुंचाई हो लेकिन यह मान लेने में कोई समझदारी नहीं है कि इसके जरिये ऐसे रिश्ते कायम किए जा सकेंगे जिसमें चीन के लिए कोई जगह न हो. श्रीलंका ने बेलआउट के लिए आईएमएफ से संपर्क साधा है, जिसके तहत श्रीलंका को मन मारकर सामाजिक क्षेत्र के खर्च में निश्चित तौर पर कटौती करनी पड़ेगी. यह कुछ और नहीं तो श्रीलंका को भविष्य में चीन से अधिक निवेश हासिल करने के लिए प्रोत्साहित करेगा.

लेकिन भारत अभी भी जीत की स्थिति में रह सकता है, बशर्ते वह धैर्य और रचनात्मकता दिखाए.


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वह साम्राज्य जो विफल रहा

सम्राट झू युआनझांग ने प्लेग और युद्ध के बीच गरीबी से जूझते हुए मिंग राजवंश की स्थापना की थी. 1373 में अपनी सीमाएं सुरक्षित होने के बीच झू ने विदेशी विस्तारवाद का विरोध किया था. झू ने लिखा था, ‘दक्षिणी बर्बरों के देश पहाड़ों और समुद्र की वजह से हमसे दूर हैं. अगर वे हमारी शांति भंग करने के वास्तविक नतीजों को नहीं समझेंगे तो यह उनके लिए ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा. अगर वह हमारे लिए कोई परेशानी नहीं खड़ी करते और हम अनावश्यक रूप से उनसे उलझने के लिए सैनिक भेजते हैं तो यह हम पर ही भारी पड़ेगा.’

झू ने लिखा था, ‘मुझे चिंता है कि आने वाली पीढ़ियां चीन की धन-संपदा और शक्तियों का दुरुपयोग कर सकती हैं और इस समय जैसा सैन्य गौरव हासिल करने की लालसा में अकारण ही सेनाओं को मोर्चे पर उतार सकती हैं.’

शी की नव-साम्राज्यवादी नीतियों का नतीजा दर्शाता है कि सम्राट झू की सलाह कितनी समझदारी भरी थी. अफ्रीका और मध्य एशियाई देशों की तरह श्रीलंका में हाई-प्रोफाइल चीनी प्रोजेक्ट के प्रति नाराजगी बढ़ रही है, क्योंकि इससे भ्रष्ट अभिजात्य वर्ग को लाभ मिलना साफ नजर आता है. चाहे हंबनटोटा बंदरगाह हो या मटला राजपक्षे इंटरनेशनल एयरपोर्ट, भारी-भरकम निवेश के बदले चीन का वर्चस्व बढ़ने के बजाये उसकी छवि खराब ही हुई है.

आर्थिक स्तर पर चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में शामिल होने के बजाये जरूरी यह है कि नई दिल्ली खेल का रुख ही बदल दे. भले ही 2006 से दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौता लागू हो चुका हो, विश्व बैंक का एक अध्ययन बताता है कि इस क्षेत्र के देश अब भी पड़ोसियों की तुलना में दूरवर्ती अर्थव्यवस्थाओं के साथ बेहतर शर्तों पर व्यापार करते हैं. अंतर-क्षेत्रीय व्यापार टैरिफ संबंधी बाधाओं, कनेक्टिविटी से जुड़े मुद्दों और राजनीतिक अविश्वास के कारण ठप हो गया है.

भले ही पाकिस्तान भारत के साथ सीमा पार व्यापार का इच्छुक न हो, लेकिन नई दिल्ली के लिए तो आगे बढ़ना और श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करना संभव है.

आखिरकार, ग्रैंड एडमिरल झेंग के प्रयासों से कोई खास फायदा तो नहीं हुआ था. चीनी कारोबारी और उनका व्यापार नेटवर्क पहले ही अपने पसंदीदा बंदरगाहों में स्थापित हो चुका था और उन्हें रक्षा के लिए किसी नौसैनिक बल की जरूरत नहीं थी. 1435 में जैसे ही उनके जहाजों का बेड़ा कोझीकोड से स्वदेश लौटा, झेंग का निधन हो गया और उन्हें समुद्र में ही दफना दिया गया. सम्राट झू गाओची ने समुद्र में अपनी ताकत दर्शाने वाला महंगा और निर्थरक अभियान खत्म कर दिया और भारत के लिए स्थितियों में कोई बदलाव नहीं आया.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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