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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतसर्जिकल स्ट्राइक पर भाजपा- कांग्रेस की लड़ाई से, राष्ट्रीय सुरक्षा पर हमारा रवैया जगजाहिर हो गया है

सर्जिकल स्ट्राइक पर भाजपा- कांग्रेस की लड़ाई से, राष्ट्रीय सुरक्षा पर हमारा रवैया जगजाहिर हो गया है

भारत पड़ोसी पाकिस्तान को बाध्य करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं है, और पाकिस्तान सुनियोजित छद्म युद्ध की अपनी रणनीति पर कायम रहेगा.

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राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित मौजूदा लोकसभा चुनाव के दौरान अब भारत की जनता के समक्ष ‘मेरी सर्जिकल स्ट्राइक बनाम उनकी सर्जिकल स्ट्राइक’ का मुकाबला हो रहा है.

सुरक्षा को लेकर भाजपा की तीखी बयानबाज़ी से चिंतित कांग्रेस ने चुनाव अभियान के मध्य तब लोगों को चौंका दिया जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी ‘कई सर्जिकल स्ट्राइक होने’ की बात की. इसके बाद कांग्रेसी नेताओं ने नियंत्रण रेखा के पार हुए उन ‘सर्जिकल हमलों’ की तारीखों और लक्ष्यों जैसे विवरण भी दिए.

फिर आई इस बारे में राजनीतिक नोंकझोंक और मीडिया की बहसों की बारी और, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के दावे का मजाक उड़ाते हुए व्यंग्य किया कि कहीं ये सर्जिकल हमले ‘कागज़ी या फिर वीडियो गेमों’ वाले तो नहीं थे. रक्षा विशेषज्ञ और पूर्व सैनिक भला इस विवाद में कूदे बिना कैसे रह सकते थे. उनमें से कुछ ने पिछले दो दशकों के दौरान नियंत्रण रेखा के पार तथा म्यांमार और बांग्लादेश की सीमाओं के भीतर कई हमले किए जाने की बात की. अंतत: बहस ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की व्याख्या तक आ पहुंची कि कैसे सितंबर 2016 में विशेष रक्षा बलों द्वारा किया गया रणनीतिक हमला और बालाकोट हवाई हमला सीमा या नियंत्रण रेखा के पार किए गए पहले के हमलों से अलग हैं.

क्या है सर्जिकल स्ट्राइक?

भारत की आधिकारिक सैन्य नियमों से संबद्ध शब्दावली में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को परिभाषित नहीं किया गया है. इस शब्दावली में सेना द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम शब्दों की अलग-अलग विशिष्ट परिभाषाएं दी गई हैं ताकि, अभी की तरह, गलत व्याख्याओं से बचा जा सके. हालांकि सर्जिकल स्ट्राइक सैन्य मुहावरों में शामिल रहा है, जिसे अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जा सकता है. सेना ने, औपचारिक रूप से परिभाषित किए बिना, सबसे पहले सितंबर 2016 के रणनीतिक हमले के संदर्भ में इसका उल्लेख किया था.


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इस मुहावरे का शुरुआती इस्तेमाल 1970 और 1980 के दशकों में देखने को मिला था– बंधकों को छुड़ाने की इजरायल द्वारा 4 जुलाई 1976 को एंटेबे में की गई कार्रवाई ‘ऑपरेशन थंडरबोल्ट’ और बाद में 7 जून 1981 को उसके इराक़ी परमाणु रिएक्टर पर हवाई हमले के अभियान ‘ऑपरेशन बेबीलोन’ के संबंध में. सर्जिकल स्ट्राइक की बुनियाद में है अवांछित नुकसान और तनाव में वृद्धि से बचने का उद्देश्य, खास कर युद्ध से कम स्तर के सैनिक अभियानों के दौरान. इसका नैतिक पहलू है- आम नागरिकों के हताहत होने या असैनिक ढांचों के ध्वस्त होने की नौबत नहीं आने देना. ऐसे हमलों के लिए भूमि, हवा या समुद्र से दागी गईं गाइडेड मिसाइलें सबसे उपयुक्त होती हैं.

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हालांकि, विशेष या सामान्य सुरक्षा बलों द्वारा खास लक्ष्यों के खिलाफ अवांछित नुकसान से बचते हुए की जाने वाली सैन्य कार्रवाइयां भी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कही जा सकती हैं. ‘राजनीतिक इच्छा शक्ति’, ‘रणनीतिक प्रकृति का’, ‘गहरे घुसकर’, ‘आतंकी लक्ष्य या मारे गए शत्रु सैनिकों/आतंकवादियों की संख्या’ जैसी संबंधित बातें दृष्टिकोण विशेष की अभिव्यक्ति में सहायक भाषाई तत्व मात्र है.

घोषित युद्धों से तुरंत पहले या बाद की अवधि में की गई हमारी कार्रवाइयों के अलावा भी हमने नियंत्रण रेखा या सीमा के पार अनेक हमले किए हैं. याद रहे कि बहुत पहले 10 अप्रैल 1959 को हमारे कैनबरा टोही विमान को पाकिस्तान में मार गिराया गया था और दो पायलटों को युद्धबंदी बना लिया गया था.

तो अब क्या अलग बात है?

नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार ने 29 सितंबर 2016 को विशेष सुरक्षा बलों द्वारा नियंत्रण रेखा के पार धावा बोलने, म्यांमार में 9 जून 2015 को अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार की गई सैनिक कार्रवाई, और 26 फरवरी 2019 को सीमा पार बालाकोट में किए गए हवाई हमले से जुड़ी जानकारियों को सार्वजनिक किया और उनकी ‘जिम्मेवारी’ ली. सर्जिकल हमलों की बात को सार्वजनिक करने और उनकी जिम्मेवारी लेने के राजनीतिक फैसले निश्चय ही सामरिक फैसले थे, हालांकि ये कार्रवाइयां रणनीतिक प्रकृति की थीं.

इससे पहले, म्यांमार और बांग्लादेश में अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पार आतंकी लक्ष्यों के खिलाफ की गई कार्रवाइओं, तथा मालदीव में सैनिक अभियान को भी विशेष राजनीतिक अनुमति के बाद अंजाम दिया गया था. हालांकि, नियंत्रण रेखा के पार सैनिक कार्रवाइयों में किसी तरह की औपचारिक राजनीतिक स्वीकृति शामिल नहीं थी. सेना ने ये कार्रवाइयां या तो सरकार की मौन स्वीकृति के आधार पर या फिर भारतीय सीमाओं को सुरक्षित रखने की अपनी जवाबदेही के तहत की थीं.

रिकॉर्ड में रखा गया हो या नहीं, पर प्वाइंट 5310 पर लहराते तिरंगे को आप झुठला नहीं सकते. सेना की 14वीं सिख बटालियन ने 8 अप्रैल 2000 चोरबटला सेक्टर के करुबार बउल में ‘पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में 12 वर्ग किलोमीटर के भारतीय इलाके’ पर नियंत्रण के लिए यह कारनामा किया था.

सामरिक संयम की नीति

भारत की किसी भी सरकार ने अभी तक सुनिश्चित राजनीतिक लक्ष्यों और शत्रुओं के संदर्भ में एक वांछनीय अंतिम स्थिति को लेकर औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति घोषित नहीं की है. पिछले 20 वर्षों में, वांछित सैन्य क्षमता विकसित करने के लिए कोई दीर्घकालिक बजटीय आवंटन नहीं किया गया है. सश्स्त्र बलों के साथ विचार-विमर्श का स्तर बहुत सीमित रहा है और राजनीतिक दिशानिर्देश अनौपचारिक और अस्पष्ट रहे हैं.

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार, कारगिल और ऑपरेशन पराक्रम के बावजूद, तथा यूपीए की दो सरकारों की क्रियाशील सुरक्षा रणनीति ‘सामरिक संयम’ की रही है. इसका मतलब है परमाणु हथियारों का निर्णायक युद्धों के अवरोधक के रूप में उपयोग; भारत का अपनी अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना; जम्मू कश्मीर में जारी छद्म युद्ध का मानवतावादी तरीके से प्रबंधन तथा वार्ताओं और कूटनीति के ज़रिए पाकिस्तान को औकात में रखना.

वाजपेयी और मनोहन सिंह दोनों का ही मानना था कि नियंत्रण रेखा ही व्यावहारिक रूप से अंतरराष्ट्रीय सीमा है जिसकी मर्यादा का सम्मान किया जाना चाहिए. यही रणनीति कारगिल युद्ध के दौरान अंतरराष्ट्रीय तौर पर मान्य भारत के नैतिक रुख तथा पाकिस्तान से कूटनीतिक संबंधों की बुनियाद बनी थी.


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इसीलिए, नियंत्रण रेखा के पार हमारी तमाम कार्रवाइयों को, जब भी ज़रूरी हुआ, गुप्त रखना पड़ा था. कभी औपचारिक स्वीकृति नहीं दी गई. लेकिन फिर भी, सरकार की मौन स्वीकृत या सेना को प्राप्त ‘कार्रवाई करने की स्वतंत्रता’ के तहत, उस 15 वर्ष की अवधि में, यदि 1965 और 1971 के युद्धों के पहले और बाद के दिनों को अलग रखें तो, नियंत्रण रेखा के पार सर्वाधिक संख्या में कार्रवाइयां की गई थीं. उसी अवधि के दौरान 2012 में आतंकवादी हिंसा में न्यूनतम संख्या में मौतें दर्ज हुई थीं.

उस रणनीति की सबसे बड़ी खामी यह थी वह जम्मू कश्मीर की जनता की राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी सुनिश्चित करने में नाकाम रही. एक और बड़ी कमी रही आवश्यक सैन्य तकनीकी बढ़त हासिल करने में भारत की नाकामी.

मोदी सरकार ने धैर्य खो दिया

नरेंद्र मोदी सरकार ने 2015 तक पहले की ही रणनीति का पालन किया और परिणाम भी संतोषजनक रहे. पर, अपनी विचारधारा के असर, गठबंधन सरकार की सहयोगी पीडीपी से निराशा, 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद हुए आंदोलन, तथा 18 सितंबर 2016 को उरी में हुए आतंकी हमले जैसे कारणों से अंतत: इसका धैर्य चुक गया. इसके बाद बिना अधिक सोच-विचार के, मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर में एक ‘सख्ती की रणनीति’ और पाकिस्तान के संबंध में ‘बाध्य करने वाली आक्रामक रणनीति’ अपनाने का फैसला किया और इसी क्रम में उसने 29 सितंबर 2016 को नियंत्रण रेखा के पार विशेष सुरक्षा बलों की कार्रवाई को सार्वजनिक किया और उसकी जिम्मेवारी ली.

यह अपने आप में इकलौती कार्रवाई थी, और अगले ढाई वर्षों के दौरान पाकिस्तान समर्थित आतंकी गतिविधियां कई गुना बढ़ने के बावजूद, उसे आगे विस्तार नहीं दिया गया. पर, उस कार्रवाई ने सरकार को राष्ट्रवाद के अपने संस्करण को राजनीतिक उद्देश्यों से प्रचारित करने का अवसर मुहैय्या करा दिया. सेना को राजनीतिक नारेबाज़ी का हिस्सा बना दिया गया और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल को चुनाव अभियान के केंद्र में ला खड़ा किया गया. पुलवामा आतंकी हमला, बालाकोट हवाई हमला और 27 फरवरी को हुई हवाई झड़प की घटनाएं, स्पष्टतया गतिरोध की स्थिति बनने के बावजूद, भाजपा की राजनीतिक रणनीति के पूरी तरह अनुकूल साबित हुईं.

सीमित युद्ध की आशंका भी नहीं के बराबर होने के बावजूद, युद्ध से निचले स्तर की सैनिक कार्रवाइयों के ज़रिए विरोधी को बाध्य करने की रणनीति की सफलता भारी तकनीकी सैन्य बढ़त पर निर्भर करती है, जो कि ना तो हमारे पास है और ना ही इसे प्राप्त करने के लिए हमने कोई प्रयास किए हैं. इसलिए हम पाकिस्तान को बाध्य करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं हैं और वह एक सुनियोजित छद्म युद्ध की अपनी रणनीति पर कायम रहेगा.

जनता की उम्मीदों को बढ़ाने के कारण, पाकिस्तान की बजाय भारत को ही हमेशा संकट प्रबंधन के लिए तैयार रहना होगा, वो भी इसके लिए ज़रूरी साधनों की उपलब्धता के बिना.


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भारत को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक आयोजन संभालते देख विस्मित दुनिया से यह बात छुपी नहीं रह गई होगी कि राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हमारा रवैया कितना बचकाना और आकस्मिक है.

(ले.जन. एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (से.नि.) ने भारतीय सेना को 40 साल तक अपनी सेवाएं दी हैं. वे उत्तरी तथा सेंट्रल कमान के प्रमुख रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य भी रहे. लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं.)

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