द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से हाल के दिनों तक पश्चिम एशिया में अमरीका का प्रभुत्व रहा. परंतु, हाल के वर्षों में अमरीकी महाशक्ति का सापेक्षिक पतन और चीन, रूस और भारत जैसे मुल्कों की उभरती शक्ति ने विश्व व्यवस्था को दो ध्रुवीय से बहुध्रुवीय दिशा दी है. इसके साथ साथ अमरीका का पश्चिम एशिया के बजाए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में ध्यान केंद्रित करना और चीन का पश्चिम एशिया में बढ़ते कदम ने ग्रेट पावर गेम का पुनर्विन्यासन (reconfiguration) किया है.
ऐसा माना जा रहा है कि अमरीका, अफ़ग़ानिस्तान से अपनी वापसी के बाद से पश्चिम एशिया में ख़ुद को उलझाने से इसलिए बच रहा है क्योंकि चीन के साथ वो एक से अधिक मोर्चों पर उलझने का रिस्क नहीं के सकता. वहीं चीन इस बात का फायदा उठाते हुए पश्चिम एशिया में अपनी भूमिका को विस्तार देने की कोशिश कर रहा है. इसका नवीनतम उदाहरण चीन की मध्यस्थता में हुआ ईरान-सऊदी समझौता है. अमरीका के विपरीत अरब देशों में मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर चीन का आक्रामक रुख़ न अपनाना इसे अरब देशों के साथ एक आकर्षक साझेदार बनाता है.
भारत की चुनौती इन दो महाशक्तियों के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा के बीच पश्चिम एशिया में अपनी भूमिका तय करने की है. अमरीकी और भारतीय मीडिया दोनों में ही इस विषय को लेकर उत्साह देखा जा सकता है. अमरीका की प्रतिष्ठित पत्रिका फॉरेन पॉलिसी ने तो भारत को एक मध्य पूर्व की शक्ति तक कह डाली है. संबंधों की इस नयी परिभाषा को समझते समय निरंतरता और परिवर्तन के नियम को ध्यान में रखना आवश्यक है.
शेल ऑयल (तेल) की खोज के बाद सऊदी अरब और अमरीका के संबंध में बदलाव आया है. अमरीका अब सऊदी अरब पर तेल को लेकर निर्भर नहीं रहा.
जबकि, आज अमरीका और यूरोप के बदले चीन और भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश की तेल को लेकर अरब देशों पर निर्भरता बढ़ी है. सऊदी अरब भारत का दूसरा सबसे बड़ा तेल और गैस आपूर्तिकर्ता है. एक अनुमान के मुताबिक भारत और सऊदी अरब 43 अरब डॉलर के व्यापार बढ़ाने के तरीकों को तलाश रहे हैं, जिसमें भारत के ऊर्जा ग्रिड को समुद्र के नीचे केबल के माध्यम से जोड़ने की परियोजना भी शामिल है.
हालांकि, अरब देशों की तेल से सर्विस सेक्टर की तरफ़ बदलती अर्थव्यवस्था ने भारत और अरब देशों के बीच एक नये अवसर की सम्भावना को भी जन्म दिया है. अतः भारत और सऊदी अरब के संबंधों में विस्तार देखने को मिल रहा है . जहां तक राजनीतिक संबंध की बात हैं तो पाकिस्तान को लेकर हमारे संबंधों में पूर्व में तल्ख़ी रही है. सऊदी अरब का पाकिस्तान के साथ गहरे राजनीतिक संबंध रहे हैं. कश्मीर मसले पर सऊदी अरब पाकिस्तान के पक्ष का हमेशा से हिमायती रहा है. लेकिन, इधर कुछ वर्षों से सऊदी अरब ने भारत के साथ अपने संबंध को पाकिस्तानी चश्मे से देखना बंद कर दिया है.
2019 में भारतीय प्रधानमंत्री की रियाद यात्रा के बाद, सऊदी अरब ने कश्मीर पर तटस्थता की नीति अपनायी है. हालांकि, अभी हाल ही में कश्मीर में आयोजित जी -20 की बैठक में पाकिस्तान, चीन , तुर्की, मिस्र के साथ सऊदी अरब ने भी हिस्सा नहीं लिया. इसका कारण पाकिस्तान और चीन द्वारा कश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र कह कर बैठक का बहिष्कार करना था. लेकिन, सऊदी अरब और तुर्की ने बैठक में हिस्सा नहीं लेने का कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं की. यह भारत के लिए एक तरीके से कूटनीतिक जीत है. ऐसा इसलिए क्योंकि सऊदी अरब इस्लामी देशों के संगठन ओआईसी का सदस्य है जो कश्मीर के मामले में पाकिस्तान की नीतियों का समर्थन करता है. इसके अलावा सऊदी- ईरान समझौते के बाद पश्चिम एशिया में चीन की भूमिका बढ़ी है. इन सब विरोधाभासों के बावजूद दोनों देश कई मुद्दों पर एक साथ काम कर रहे हैं. दोनों देश इस्लामी उग्रवाद को रोकने के लिए गंभीर हैं. लेकिन भारत – सऊदी अरब संबंध का मुख्य निर्धारक आर्थिक है.
अमरीकी सुपर पावर के सापेक्षिक पतन के बाद पश्चिम एशिया में इज़राइल-फ़िलिस्तीन के बीच इसकी मध्यस्थता की क्षमता में खासी कमी आई है. दूसरी तरफ़ चीन ने दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी ईरान और सऊदी अरब के बीच समझौते कराकर इस क्षेत्र की भू -राजनीतिक समीकरण में परिवर्तन लाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है. ऐसी परिस्थिति में भारत, जिसके इज़राइल और फ़िलिस्तीन दोनों के साथ अच्छे संबंध हैं, मध्यस्थता की भूमिका निभा सकता है. अमरीका भी चीन को रोकने के लिए भारतीय मौजूदगी को प्रोत्साहित करेगा. I2U2 बनना इस ओर इशारा करता है. भारत में यूएई के राजदूत ने उस वक्त इस नए गुट को ‘पश्चिमी एशिया का क्वॉड’ बताया था. I2U2 समूह जिसमें इज़राइल, भारत, संयुक्त अरब अमीरात और अमरीका शामिल है. इस नए समूह के माध्यम से आपस में यह देश ऊर्जा, बुनियादी ढांचा, कृषि समेत अनेकों विषयों पर मिलकर काम कर रहे हैं.
भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच मई 2022 में लागू हुए व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते के एक वर्ष के अंदर ही ग़ैर तेल व्यापार 45 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया. यह पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 7 प्रतिशत की वृद्धि है.
यदि हम द्विपक्षीय संबंध को देखें तो पाते हैं कि पूर्व की भांति भारत -इज़राइल संबंध का निर्धारक तत्व उपनिवेशवाद विरोधी मूल्य और अनुभव के बजाए यथार्थवादी और नई आर्थिक नीति हो गई है. भारत ने इज़राइल को 1950 में मान्यता तो दे दी लेकिन सामान्य राजनयिक संबंध 1992 में स्थापित किए. मालूम हो कि भारत नें नई आर्थिक नीति अपनाते हुए 1991 में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण को अपनाया.
हालांकि, 1992 के बाद कुछ अपवादों को छोड़कर संबंधों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं देखा गया. परंतु, दोनों देशों के सम्बंध कई हिचकिचाहटों के बावजूद धीरे धीरे ही सही मज़बूत होते चले गये. संबंधों को नई ऊंचाई 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इज़राइल यात्रा और 2018 में इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहु के भारत यात्रा के बाद मिली.
तेज़ी से विकसित हुए संबंध का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस इंस्टीट्यूट के अनुसार इज़राइल 2021 में भारत के शीर्ष तीन हथियार आपूर्तिकर्ताओं में से एक था. भारतीय समाचार पत्रों से यह संकेत मिलता है कि दोनों देश हथियार प्रणालियों के सह उत्पादन की खोज भी कर रहे हैं.
पहले भारत का व्यापारिक समूह घरेलू राजनीति यानी उपनिवेशवादी अनुभवों के कारण इज़राइल में निवेश करने से कतराते थे. लेकिन 2022 में अदानी समूह और एक इज़राइली भागीदार ने हाइफ़ा पोर्ट के लिए 1.2 बिलियन डॉलर का निविदा हासिल किया. भारत – इज़राइल मुक्त व्यापार समझौते के लिए भी बातचीत चल रही है.
अब यदि इज़राइल विरोधी देश जैसे फ़िलिस्तीन और ईरान की बात करें तो भारत नें संयुक्त राष्ट्र में अपना पुराना स्टैंड यानी स्वतंत्र और लोकतांत्रिक फ़िलिस्तीनी राज्य का समर्थन किया.
हालांकि, भारत नें कई मौकों पर संयुक्त राष्ट्र में या तो अनुपस्थित हो कर इज़राइल की मदद की या परोक्ष रूप से फ़िलिस्तीन के ख़िलाफ वोट भी किया. लेकिन कुल मिलाकर फ़िलिस्तीनी राज्य के मूल प्रश्न पर भारत आज भी अपने पुराने स्टैंड पर क़ायम है. कमोबेश यही स्थिति भारत- ईरान संबंध के भी हैं. भारत अमरीकी छाया से बाहर निकलकर ईरान के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत करने की कोशिश में है, जिससे उसको अफ़ग़ानिस्तान और सस्ते तेल के आयात जैसे मुद्दों को सुलझाने में मदद मिल सके.
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रूस आज भी एक मज़बूत और भरोसेमंद साझेदार
सीरियाई ग्रह युद्ध में अमरीका का प्रमुख उद्देश्य बसर अल असाद को सता से हटाना था. परन्तु, रूस द्वारा सीरिया को प्रदान किए गये सक्रिय और निरंतर समर्थन के कारण अमरीका अपने इस उद्देश्य को पाने में विफल रहा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि अमरीका न सिर्फ़ अपने उद्देश्य में विफल रहा बल्कि पश्चिम एशिया के ग्रैंड चेस बोर्ड पर रूस द्वारा मात खा गया. भारत – रूस आज भी एक मज़बूत और भरोसेमंद साझेदार हैं. और इस साझेदारी का लाभ हमें पश्चिम एशिया में मिल सकता है.
भारत और मिस्र 1961 के गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक संस्थापक रहे हैं. यानी मिस्र के साथ हमारे संबंध घनिष्ठ और पुराना है. हाल के दिनों में मिस्र के राष्ट्रपति अल- सीसी ने तीन बार भारत की यात्रा की है.रूस और यूक्रेन से मिस्र को लगभग 80 प्रतिशत खाद्य सामग्री की आपूर्ति होती थी जो रूस – यूक्रेन युद्ध के बाद से बाधित है. मिस्र की कोशिश है कि उसके देश में भारतीय निवेश बढ़े. मिस्र के साथ चीन का द्विपक्षीय व्यापार वर्तमान में 15 बिलियन डॉलर है, जो 2021-2022 में भारत के 7.26 बिलियन डॉलर से दोगुना है.
हाल के दिनों में, मिस्र ने स्वेज कनाल आर्थिक क्षेत्र के लिए चीनी कंपनियों के साथ 8 बिलियन अमरीकी डॉलर से अधिक का निवेश हासिल किया है. इसे बीजिंग की वैश्विक बुनियादी ढांचा योजना, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के हिस्से के रूप में चीन और मिस्र द्वारा संयुक्त रूप से बनाया गया है. भारत को मिस्र के साथ व्यापार बढ़ाने की ज़रूरत है. भारत के लिए मिस्र एक प्रवेश द्वार के समान है जिसके माध्यम से वो मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका तक अपना विक्रय माल को पहुंचा सकता है. इसके अलावा मिस्र के माध्यम से हम इज़राइल में अपनी पैठ गहरी कर सकते हैं. इसके अलावा भारत मिस्र को ब्रिक्स के सदस्य देश के रूप में देखना चाहता है, जिससे चीन के प्रभाव को कम किया जा सके
पश्चिम एशिया में भारत की बढ़ती भूमिका और नई बहुध्रुवीयता से लाभ उठाने की इच्छा न सिर्फ़ इस क्षेत्र के देशों की है बल्कि अमरीका भी चीन के प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए भारत की भूमिका का विस्तार चाहता है. अमरीका, पश्चिम एशिया में विकल्पों की तलाश में है और भारत उसके लिए एक मज़बूत विकल्प है. परंतु, भारत की विदेश नीति बहुपक्षीय दिशा में अग्रसर है. भारत, रूस – यूक्रेन युद्ध में ख़ुद को उलझाने से बचता रहा है. भारत ने रूस के आक्रमण की निंदा तो की लेकिन संयुक्त राष्ट्र में रूस के ख़िलाफ़ मतदान नहीं किया. पश्चिम एशिया में भी भारत चीन से सीधे टकराव के बजाए अपने आर्थिक हित को ध्यान में रखकर ही अपनी विदेश नीति तय करेगा. पश्चिम एशिया में भारत को एक टिकाऊ व्यापार की प्रबल सम्भावना नज़र आती है. अतः भारतीय विदेश नीति टकराव के बजाए सहयोग के रास्ते ही चलेगी.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में राजनीति विज्ञान के पूर्व सहायक प्रोफेसर हैं. इन्होंने अपनी पीएचडी भारत की अफगानिस्तान नीति में ईरान फैक्टर विषय पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, जेएनयू, नई दिल्ली से की है. उनका ट्विटर हैंडल @RajanJh82869787 है. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: ऋषभ राज)
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