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Saturday, 21 December, 2024
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ITBP की 7 नई बटालियन बनाने का MHA का प्लान चीन के हाथों खेलने वाली बात होगी, भारत संसाधन बर्बाद कर रहा

भारत के रणनीतिकारों को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि तिब्बत में इन्फ्रास्ट्रक्चर और सैन्य सुविधाओं का लंबे समय से विकास करने के बाद चीन सीमा विवाद का इस्तेमाल भारत से अपने मूल्यवान संसाधनों को बरबाद करवाने के लिए कर रहा है.

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कहा गया है कि राजनीतिक सत्ता इसका प्रयोग करने वालों और इसका जिन पर प्रयोग किया जाता है उनके बीच का मनोवैज्ञानिक संबंध होता है. इसलिए, घरेलू भावनाओं को संभालने के लिए अपने नागरिकों के सामने वैकल्पिक वास्तविकताएं प्रस्तुत करना सरकार का शगल बन गया है, खासकर इसलिए कि चीन हमारी उत्तरी सीमा पर आक्रमण जारी रखे हुए है. भारत का राजकाज चलाने वाले आला लोगों के बयान और उनकी कार्रवाइयां यही संकेत देती हैं कि हालांकि वे घरेलू दायरे में अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने में सफल रहे हों, मगर ऐसा लगता है कि चीन का मनोवैज्ञानिक वर्चस्व वे कबूल कर चुके हैं. अगर ऐसा है, तो क्या यह बढ़ते भू-राजनीतिक संघर्षों से निबटने में भारत की क्षमता के लिए अच्छी बात है?

विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने हाल में जो बयान दिया है कि “चीन से लड़ाई शुरू करना कोई समझदारी की बात नहीं है”, उससे तो यही संकेत मिलता है कि मनोवैज्ञानिक युद्ध में हम अपने कदम पीछे खींच रहे हैं. गौरतलब है कि भारत से लड़ाई चीन ने शुरू की, जो कि एक सैन्य ताकत है और वह अपनी भौगोलिक अखंडता की रक्षा करेगा. आर्थिक ताकत अपने आप नहीं लड़ती. सैन्य ताकत को आर्थिक ताकत की मदद लेनी पड़ती है लेकिन उसे ताकत इन बातों से मिलती है— लड़ाई के मैदान से, मनोबल, नेतृत्व, सिद्धान्त, सांगठनिक ढांचा, कुशल ऑपरेशन, नये तरीकों और मानव संसाधन समेत अपनी दुर्लभ परिसंपत्तियों आदि से. इसके अलावा, ताकत एक सापेक्षिक चीज है, और चीन को अपने से ज्यादा ताकतवर प्रतिद्वंद्वियों का सामना करना है.

पश्चिमी सीमा से उत्तरी सीमा तक भारतीय सेना ‘इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स’ (आइबीजी) के लिए पुनःसंतुलन और पुनर्गठन करने की कोशिश कर रही है. लेकिन ऐसा लगता है कि गृह मंत्रालय किसी और वास्तविकता में जी रहा है. वह सोच रहा है कि सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी (सीसीएस) से इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आइटीबीपी) की सात और बटालियनों के गठन की मंजूरी दिलाकर वह चीनी खतरे का मुक़ाबला कर लेगा. इन बटालियनों को अरुणाचल प्रदेश में सीमा पर 47 नयी चौकियों और सेक्टर मुख्यालयों में 12 स्टेजिंग केंप्स में तैनात करने की योजना है. इन बटालियनों के लिए 9.400 सैनिकों की भर्ती करनी पड़ेगी.

आइटीबीपी की मंजूरशुदा ताकत करीब 90,000 कर्मियों की है मगर उसमें अभी 4,443 कर्मियों की पहले से कमी है. अब नयी भर्तियों और तैनाती से सैद्धांतिक प्रश्न उभरेंगे. लद्दाख में काराकोरम से अरुणाचल में जाचेप ला तक करीब 3,000 किलोमीटर की उत्तरी सीमा की रक्षा के लिए क्या तरीका अपनाया जाएगा? पहली बात यह है कि चीन के राजनीतिक लक्ष्यों का आकलन करते हुए हमें ऐसी तैनाती करनी पड़ेगी जिससे अपने ऑपरेशन के लक्ष्य हासिल किए जा सकें.


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चीन भारत को अपने संसाधन बरबाद करने पर मजबूर कर रहा है.

भारत के रणनीतिकारों को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि तिब्बत में इन्फ्रास्ट्रक्चर और सैन्य सुविधाओं का लंबे समय से विकास करने के बाद चीन सीमा विवाद का इस्तेमाल भारत से अपने मूल्यवान संसाधनों को बरबाद करवाने के लिए कर रहा है. यह कदम उसकी इस व्यापक रणनीति का हिस्सा है जिसका लक्ष्य भारत को इस उप-महादेश में ही सीमित रखना और उसकी नौसैनिक ताकत के विकास को बाधित करना है. भौगोलिक पहलू से देखें तो जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े काट कर अलग करना उसका पसंदीदा तरीका है. वरना कोई कारण नहीं है कि चीन ताइवान पर कब्जा करने जैसी अपनी महत्वाकांक्षा की कीमत पर कोई बड़ा आक्रमण करने की कोशिश करेगा.

ऑपरेशन के स्तर पर इसका बेहतर मुक़ाबला तकनीक आधारित निगरानी और पैदल सैनिकों की छोटी-छोटी टुकड़ियों से किया जा सकता है. इसका मुक़ाबला आक्रामक सैन्य ताकत से भी किया जा सकता है, बेशक सीमित रूप से, ताकि खाली पड़े और हमेशा उपलब्ध क्षेत्रों पर कब्जा किया जा सके. भारत की तरह चीन भी विस्तृत सीमा पर चौकियों पर स्थायी कब्जा नहीं कर सकता. इसलिए, आइटीबीपी की सात और बटालियन बनाने के विचार पर सैद्धांतिक सवाल उठाया जा सकता है, और इससे भी बुरी बात यह है कि इसमें भू-राजनीतिक ताकत के बड़े खेल का ख्याल नहीं रखा गया है.

जाहिर है, गृह मंत्रालय अपने कदमों के संभावित नतीजों से बेखबर है. ऐसा लगता है कि वह अभी भी 1962 से पहले वाले दौर में जी रहा है जिसने जवाहरलाल नेहरू की खतरनाक ‘फॉरवार्ड पॉलिसी’ (आगे बढ़ो की नीति) को आगे बढ़ाया था. इसके तहत भारत ने चीनी कब्जे में गई अपनी जमीन को वापस हासिल करने के लिए ‘फॉरवर्ड’ चौकियां बनाई थीं. लेकिन वास्तव में, अस्वीकार्य बात यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) और रक्षा मंत्रालय ने नयी बटालियनें बनाने के प्रस्ताव पर दस्तखत कैसे कर दिए और गृह मंत्रलाय के ऑपरेशन संबंधी तर्कों को कबूल कैसे कर लिया? क्या यह एक ताकतवर गृह मंत्री की अपनी मनमर्जी चलाने का मामला तो नहीं है, क्योंकि उन्हें अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाने की खुली छूट मिली हुई है?

गृह मंत्रालय राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) को जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से हटाने की संभावना पर भी विचार कर रहा है. वास्तव में सेना ने लद्दाख में आरआर की कुछ बटालियनों को इधर से उधर किया भी है. इसलिए आरआर की कुछ यूनिटों को जम्मू क्षेत्र से हटाकर अरुणाचल में तैनात करने की बात की जा रही है ताकि रेगुलर इन्फैन्ट्री को जमीन की रखवाली करने की भूमिका से अलग किया जा सके. तब उसे उन इलाकों पर तब कब्जा करने के लिए भेजा सकेगा जिन पर अपना कब्जा नहीं है, और जब चीन जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को काट कर अलग करने की कोशिश करेगा. ऐसे कदम सैद्धांतिक शर्तों को पूरा करने के अलावा मौजूदा संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने में मदद करेंगे.

तालमेल की कमी

राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन में तालमेल की कमी साफ दिखती है. यह तब है जबकि एनएससीएस जैसी व्यवस्था बनाई गई है ताकि समेकित नियोजन हो सके और राष्ट्रीय संसाधान के उपयोग में तालमेल रहे. इसका मकसद उन लक्ष्यों की प्राप्ति है, जो भू-राजनीतिक कारकों और राष्ट्रहित की दृष्टि से उभरे हैं. यह उपलब्ध साधनों के मद्देनजर निश्चित रणनीति पर आधारित नीतियां बनाने में काम आएगा. उम्मीद की जाती है कि इस तरह की बौद्धिक प्रक्रियाओं से मंत्रालयों और विभागों को राजनीतिक तथा रणनीतिक दिशा निर्देश मिलेगा ताकि वे ऐसे उपायों का प्रयोग कर सकें जिनसे दुश्मन की आक्रामक चालों को नाकाम किया जा सकता है.

आइटीबीपी की सात नयी बटालियनें बनाने के प्रस्ताव को सीसीएस की मंजूरी बताती है कि गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय चीन के साथ लगी सीमा के प्रबंधन को लेकर साझा दृष्टिकोण नहीं रखते. सेना और आइटीबीपी अलग-अलग मंत्रालयों को अपनी रिपोर्ट देते हैं, और यह खतरनाक बात है जिसे दुरुस्त करना जरूरी है क्योंकि कमांड की एकता की बलि चढ़ाई जा रही है, जबकि वह सैन्य शक्ति का बुनियादी आधार है.

सही तालमेल की जरूरत

मंत्रालयों के बीच समन्वय कभी आसान काम नहीं रहा है. जबकि भारत-चीन सीमा पर हरकत जारी है, रक्षा मंत्रालय को प्रमुख एजेंसी का दर्जा दिया जाना चाहिए और बाकी सभी बलों को उसके अधीन किया जाना चाहिए, बशर्ते कोई यह न मान ले कि सीमा पर शांति है और कई स्तरों पर हो रही वार्ताओं से शांति बनी रहेगी.

मेघालय-बांग्लादेश सीमा पर द्वाकी में एक इंटेग्रेटेड चेकपोस्ट के दौरे के दौरान इस लेखक को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बीएसएफ का सैनिक इजरायली टावोर एसाल्ट राइफल से लैस था. आखिर गृह मंत्रालय अपेक्षाकृत शांत सीमा क्षेत्र में टावोर का इस्तेमाल क्यों करना चाहेगा? अगर आइटीबीपी को यह राइफल दी जाती तो ज्यादा उपयोगी होती. हो सकता है कि यह एक अपवाद मामला हो लेकिन यह बताता है कि गृह मंत्रालय राष्ट्रीय संसाधनों का किस तरह अनुपयुक्त प्रयोग कर रहा है.

सरकार का मीडिया पर जिस कदर पकड़ है उसे देखते हुए वर्तमान सत्तातंत्र हमारे नागरिकों की भावनाओं की गुलाबी तस्वीर पेश कर सकता है. लेकिन यह चीन को यदाकदा यह दबाव डालने से नहीं रोक सकेगा ताकि हमारी राष्ट्रीय ऊर्जा का क्षरण हो और भारत की प्रगति की रफ्तार धीमी पड़े. जाहिर है, गृह मंत्रालय लकड़ी के फेर में पेड़ों की कटाई कर रहा है, जबकि बाकी जिनके दांव लगे हैं वे खामोश दर्शक बने हुए हैं.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादनः आशा शाह )

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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