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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतभुट्टो की तरह 'सियासी शहीद' बनना चाहते थे इमरान खान लेकिन 'सियासी खुदकुशी' कर बैठे

भुट्टो की तरह ‘सियासी शहीद’ बनना चाहते थे इमरान खान लेकिन ‘सियासी खुदकुशी’ कर बैठे

चयनकर्ताओं के लिए भी एक सबक है कि वो सियासी टेस्ट ट्यूब बेबी बनाने बंद कर दें, जब आखिरकार इसकी कीमत लोगों को चुकानी पड़ती है.

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अब इमरान खान पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म नहीं हैं.

अब कोई मोड़ नहीं हैं, कोई साज़िशें नहीं हैं या कोई आश्चर्य नहीं हैं. किसने कहा था कि हमें आश्चर्य पसंद नहीं हैं.

कुर्सी से हटा दिए जाने के बाद खान अब पहले वज़ीर-ए-आज़म बन गए हैं, जिन्हें एक ऐसे मुल्क में लोकतांत्रिक रूप से अविश्वास प्रस्ताव के जरिए हटाया गया है, जहां का राजनीतिक इतिहास प्रधानमंत्रियों की हत्याओं, सैनिक तख्तापलट और न्यायिक निष्कासन से दागदार है.

शनिवार आधी रात तक इस्लामाबाद में हलचल मची रही, चूंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करते हुए खान सरकार का अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग कराने का कोई इरादा नज़र नहीं आ रहा था. बेहद अनिश्चितता का माहौल था जिसके बाद घड़ी के 12 बजते ही स्पीकर ने इस्तीफा दे दिया और वोट का रास्ता साफ कर दिया.

इमरान खान ने अपने कार्यकाल के तीन साल में जिस तरह काम किया, उनका आखिरी महीना भी उससे बहुत अलग नहीं था- नफरत और उपहास से भरा, जिसकी कोई मंजिल नहीं थी. ये ऐसे ही शुरू हुआ था और ऐसे ही खत्म हो गया.

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फिर से कैसा लगा मेरा सरप्राइज़ ? पिछले इतवार ही पीटीआई सरकार विपक्ष से ये पूछ रही थी. लेकिन फिर पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने पूछ लिया ‘और ये सरप्राइज़ कैसा है’? उसने सरकार के उठाए असंवैधानिक कदम को रद्द कर दिया और नेशनल असेंबली को बहाल कर दिया.

आश्चर्य, समर्पण और रहस्यों के बीच पाकिस्तान में सियासी ड्रामा चलता रहा. जो लोग पिछले इतवार खुश थे, वो बृहस्पतिवार को दुखी थे. पिछले इतवार वज़ीर-ए-आज़म जो अपनी सरकार करीब-करीब खो चुके थे खुश थे. और विपक्ष जिनके अब सरकार में कोई मुखालिफ नहीं बचे थे, नाखुश थे. फिर भी बृहस्पतिवार को, जिस सरकार को इसी हफ्ते बहाल कर दिया गया था वो दुखी थी, जबकि विपक्ष न सिर्फ खुशी से फूला नहीं समा रहा था बल्कि गुलाब जामुन भी खा रहा था. ये अगले स्तर की कभी खुशी कभी गम थी.


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आखिरी गेंद पर सरेंडर

एक महीने तक बाहर होने का खतरा झेलते रहने के बाद, मैच में बहुचर्चित ‘आखिरी गेंद तक खेलने’ की बात दरअसल कहीं नज़र नहीं आई. इमरान खान ऐसे कप्तान रहे जिन्होंने अपने घर के अंदर आराम से बैठे हुए आखिरी गेंद तक लड़ने की कसम खाई थी. जबकि उनके चापलूसों को अपने कप्तान के लिए सब कुछ करने के लिए सामने धकेल दिया गया.

‘टेक 2’ में स्पीकर असद क़ैसर असेंबली सेशन को पटरी से उतारने के इंचार्ज थे, जबकि शाह महमूद क़ुरैशी और शीरीं मज़ारी जैसों को अपने भाषणों से हमें बोर करने का काम दिया गया. ‘टेक 1’ में डिप्टी स्पीकर क़ासिम सूरी ने अविश्वास प्रस्ताव को खारिज कर दिया था और पीएम खान ने गैर-कानूनी तरीके से राष्ट्रपति आरिफ अल्वी को नेशनल असेंबली को भंग करने की हिदायत दे दी और उन्होंने उसे खुशी से मान भी लिया. ये 15 मिनट का एक टेलीविजन स्टंट था, जिसने मुल्क को एक संवैधानिक संकट में धकेल दिया. अगले पांच दिन, सुप्रीम कोर्ट ने एक स्वत: संज्ञान नोटिस के तहत, स्पीकर के आदेश और असेंबली भंग किए जाने पर सुनवाई की. इस बीच खान और अल्वी अपने अगले कदम- चुनाव को लेकर सतर्क रहे.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन एक ‘सत्ता परिवर्तन’ चाहते थे और इमरान खान ने उन्हें वही दे दिया. ऐसी चीज़, जो खान से पहले विपक्ष उन्हें नहीं दे सका. बाइडन जरूर खुश होंगे.

कुछ ही दिनों के भीतर, जो लोग संविधान को गालियां दे रहे थे, अब उसका अक्षरश: पालन करते हुए 90 दिन के भीतर चुनाव चाहते थे, जबकि राष्ट्रपति ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के नाम के लिए सुझाव मांगे और ‘स्वघोषित’ पीएम ने हाल ही में रिटायर हुए एक चीफ जस्टिस को अपनी ओर से मनोनीत कर दिया. ऐसा मनोनीत शख्स जो, चूंकि वो दो महीने पहले ही रिटायर हुआ है, इसलिए अगले दो वर्षों तक कोई सरकारी पद नहीं ले सकेगा. लेकिन एक बनाना रिपब्लिक के अंदर ऐसी छोटी-छोटी बातों की कौन परवाह करता है? सरकारी टेलीविजन पर शेखी बघारी जाती थी, ‘आप (विपक्ष) चुनाव चाहते थे, मैं आपको चुनाव दे रहा हूं, तो फिर आप मेरे सरप्राइज़ से भाग क्यों रहे हैं’.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट से धक्का लगने के बाद इमरान खान को अब तीन बार प्रधानमंत्री बनने का सम्मान मिल गया है- पहला, जब वो 2018 में चुने गए थे, दूसरा, जब 3 अप्रैल को राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने उनका अभिषेक किया था और तीसरा, जब शीर्ष अदालत ने उन्हें बहाल कर दिया. काश ऐसे रिकॉर्ड के लिए गिनीज़ बुक में कोई एंट्री होती.


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एक सियासी शहीद, जो हो न सका

सैन्य तानाशाहों का संविधान को कागज के टुकड़े की तरह समझना, जिसे कूड़ेदान में फेंका जा सकता है, एक बात है. लेकिन ये बिल्कुल अलग और असल में पहली बार है कि कोई नागरिक नेता संविधान का उल्लंघन करे और फिर बेशर्मी के साथ उसे अपनी जीत बताए. ये दुर्भाग्य ही है कि हज़ार बार ये कहने के बाद भी कि आपको सत्ता की जरूरत नहीं है, उसकी इच्छा नहीं है, आप फेविकोल की तरह पीएम की कुर्सी से चिपके रहें. जिस समय असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव रखा गया, या जब उनकी अपनी ही पार्टी के सदस्यों की बगावत सामने आ गई या सहयोगियों ने उनका साथ छोड़ दिया, इमरान को दीवार पर लिखा दिखाई नहीं पड़ा और उनका पूरा फोकस इस पर था कि किस तरह कुर्सी न छोड़ी जाए. वो एक ऐसी संसदीय कार्रवाई को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे थे, जिसका चक्का घूम चुका था.

अब, दरअसल पीएम खान ने चाहा होगा कि उन्हें ज़बर्दस्ती बाहर किया जाए और वो एक सियासी शहीद बन जाएं. पाकिस्तान का इतिहास ऐसे शहीद प्रधानमंत्रियों से भरा है, जिन्हें सैन्य तख्तापलट या अदालती दखलअंदाज़ियों के बाद हटाया गया. उस हॉल ऑफ फेम में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, नवाज़ शरीफ, बेनज़ीर भुट्टो, यूसुफ रज़ा गिलानी जैसी हस्तियां शामिल हैं.

पिछले महीने की घटनाएं, उकसावा और अंत में संविधान का दुरुपयोग तथा आखिरी समय पर एक सुरक्षा पदाधिकारी को हटाने की कोशिश- ये सब एक सियासी शहीद का ठप्पा हासिल करने की दिशा में अच्छी कोशिशें थीं. लेकिन नहीं, ऐसा नहीं हो सका. इमरान खान को ये विचार हज़म नहीं हुआ कि विपक्षी नेता- जिन्हें वो अपने पूरे शासन काल के दौरान चोर और डाकू कहते रहे- उन्हें कुर्सी से हटा दें. वो लोग जिन्हें वो अपने से नीचा समझते थे, जिनसे वो हाथ नहीं मिलाना चाहते थे, वो अब उन्हें बाहर करेंगे? उनकी ऐसी हिम्मत! जो शख्स हमसे कह रहा था ‘मैं जम्हूरियत हूं’ उसकी कभी समझ में नहीं आया कि जम्हूरियत कभी सत्ता में अच्छे से नहीं बैठती.


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लाडला, अब्बा और भविष्य

कैसे भी करके सत्ता में बने रहने की हताशा भरी कोशिशें, एक ऐसे राजनेता की खासियतें हैं जो जानता है कि वो कभी फिर सत्ता में नहीं आएगा. अब कोई भी इमरान खान को थाली में सजाकर सरकार पेश नहीं करेगा. ऐसे लाडले के लिए जिसे न सिर्फ कुर्सी पर बिठा दिया गया, बल्कि जिसे अपने कार्यकाल के ज्यादातर हिस्से में अब्बा का समर्थन मिलता रहा, ऐसी कोई चीज़ नहीं है कि किसी और दिन लड़ेंगे. और अगर उन्हीं अब्बा ने आपको छोड़ दिया है, तो आपका भविष्य अंधकारमय होना लाज़िमी है.

नेशनल असेंबली के चुने जाने योग्य सदस्य, जिन्हें अलग-अलग सियासी पार्टियों से लाकर पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) का गठन किया गया था, घोंसला छोड़ने वालों में सबसे आगे थे. क्या भानुमति का कुनबा, कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा के लिए कोई भविष्य था?

पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी जैसी पार्टियां सैन्य तानाशाहों के अंतर्गत भी बची रहीं क्योंकि उनके जमीनी कार्यकर्ता एकजुट बने रहे. ये पारंपरिक पार्टियां इमरान खान के फासीवादी शासन में भी बनी रहीं, जब सभी शीर्ष विरोधियों को जेल में डाला जा रहा था. पीटीआई एक वन मैन शो है, बाकी सब भीड़ है जिसे मांग कर और उधार लाया गया था.

2011 से पहले, संघर्ष कर रहा ये नेता कुछ ज्यादा असर नहीं डाल सका था, जब तक कि जनरल्स को नहीं लगा कि ये उनकी रेस का घोड़ा हो सकता है. और देखिए ये कैसे खत्म हुआ. प्रतिष्ठान द्वारा एक बार इस्तेमाल किए जाने के बाद ऐसी पार्टियां गुमनामी में चली जाती हैं. इमरान खान का अंजाम क्या होगा, ये उस पर निर्भर करता है कि उन्होंने उन लोगों के साथ कैसे ताल्लुकात छोड़े हैं जो उन्हें लाए थे. क्योंकि बाहर से ये नज़ारा कोई बहुत उज्जवल नज़र नहीं आता.

काश किसी ने पूर्व प्रधानमंत्री को बताया होता कि सियासी खुदकुशी और सियासी शहादत में फर्क होता है. चयनकर्ताओं के लिए भी एक सबक है कि वो सियासी टेस्ट ट्यूब बेबी बनाने बंद कर दें, जब आखिरकार इसकी कीमत लोगों को चुकानी पड़ती है.

इमरान खान के पास शान और सम्मान के साथ जाने का एक मौका था लेकिन फिर भी उन्होंने एक शर्मनाक विदाई चुनी.

(नायला इनायत पाकिस्तान की स्वतंत्र पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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