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Friday, 1 November, 2024
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बॉडी आर्मर होते तो इतने भारतीय जवानों को न गंवानी पड़ती जान, सेना को इसकी बहुत जरूरत है

अत्याधुनिक सुरक्षा उपकरण 1990 के बाद से जम्मू-कश्मीर में शहीद जवानों में से 70% को बचा सकते थे. पीपीई के बड़े पैमाने पर उत्पादन की तात्कालिक जरूरत को इससे बेहतर ढंग से और किसी भी तरह नहीं बताया जा सकता है.

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आधुनिक युद्ध शैली अपनाए जाने के बाद से रणनीतियों—जंग के मैदान या उसके आसपास युद्धक सेनाओं की तैनाती और उन्हें संगठित करने की कला—को सक्रिय तौर पर ‘फायरपावर’, ‘सुरक्षा’ और ‘मोबिलिटी’ जैसे उपायों के आधार पर आकार दिया जाता है. ये तौर-तरीके बदले में एक-दूसरे के खिलाफ लगातार प्रतिस्पर्धा की स्थिति में बनाए रखते हैं. आधुनिक रणनीति का विकास दर्शाता है कि इनमें से किसी एक मामले में तकनीकी प्रगति ने दूसरे क्षेत्र में पूरक ढंग से आगे बढ़ने का रास्ता ही खोला है.

अचरज की बात तो यह है कि तमाम अनुभवों से सीखने बावजूद ‘बॉडी आर्मर’ और हेलमेट मुहैया कराने के मामले में सैनिकों की सुरक्षा के मुद्दे की अनदेखी की गई है, खासकर तब जबकि पता है कि सैन्य कर्मियों का हताहत होना जंग के नतीजे निर्धारित कर सकता है और सैनिकों से अपेक्षा होती है कि सामरिक भूमि की रक्षा करें और उस पर कब्जा करें. यही नहीं, युद्ध में किसी का हताहत होना परिवार की पीड़ा और बड़े पैमाने पर जनता में रोष के साथ देश के लिए जीवित सैनिक की तुलना में दोगुना भारी भी पड़ता है. हताहतों की संख्या के लिहाज से सबसे भीषण माने जाने वाले प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही यह निष्कर्ष निकाला गया था कि जंग के मैदान में लगे जख्मों में से 75 फीसदी असरदार बॉडी आर्मर और हेलमेट की मदद से रोके जा सकते थे.

पिछले 50 वर्षों से बॉडी आर्मर किसी भी सैनिक के लिए सैन्य उपकरणों का एक अनिवार्य हिस्सा रहे हैं. मैं यहां आधुनिक बॉडी आर्मर को लेकर ताजा ट्रेंड का विश्लेषण करने के साथ इसे भारतीय सेना के अनुभवों से भी जोड़ रहा हूं.


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बॉडी आर्मर में ट्रेंड—वजन बनाम सुरक्षा

16वीं शताब्दी में बंदूकों का इस्तेमाल शुरू होने के साथ ही बॉडी आर्मर और हेलमेट भी बनने लगे थे. समय के साथ बॉडी आर्मर और हेलमेट का इस्तेमाल कम होने लगा क्योंकि उनके वजन के कारण सैनिकों को चलने-फिरने में असुविधा होती थी. 20वीं सदी में दो विश्व युद्ध ऐसे किसी सुरक्षा कवच के बिना ही लड़े गए. क्योंकि, युद्ध में लगे घावों में से 20 प्रतिशत सिर पर थे, ऐसे में प्रथम विश्व युद्ध के अंत में अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावी हेलमेट विकसित हुए.

बॉडी आर्मर की कमी के कारण 1980 तक राइफल का कैलिबर 7.62 मिमी से घटकर 5.56 मिमी हो गया. पिछले पांच दशकों में आधुनिक बॉडी आर्मर आ जाने के साथ ही स्टील कोर के साथ 7.62 मिमी कैलिबर बुलेट फिर इस्तेमाल की जाने लगी है.

1965 में स्टेफनी कोवलेक ने एक सिंथेटिक फाइबर केवलर को ईजाद किया जिसके साथ ही सेना की सुरक्षा प्रणालियों में एक तकनीकी क्रांति आ गई. 1971 से व्यावसायिक स्तर पर उपलब्धता के साथ यह निजी सुरक्षा उपकरण (पीपीई) का मुख्य आधार बना और अब सभी आधुनिक बॉडी आर्मर और हेलमेट केवलर जैसे सिंथेटिक फाइबर से बने होते हैं, जिन्हें धातु या सिरेमिक प्लेटों के साथ जोड़ा जाता है. इन्हें ट्रॉमा प्लेट कहा जाता है. सिंथेटिक फाइबर बुलेट/छर्रे शरीर में घुसने से रोकता/बचाता है और धातु/सिरेमिक प्लेट्स इसका असर/आघात कम करती हैं.

ज्यादा से ज्यादा सुरक्षा देकर हताहतों की संख्या घटाने पर ध्यान देने और 7.62 मिमी स्टील कोर गोलियों की वापसी को देखते हुए बॉडी आर्मर हेलमेट भारी होते गए. अमेरिकी सेना के जवानों द्वारा पहनी जाने वाली बुलेट प्रूफ जैकेट का वजन 1980 के दशक के मध्य से दोगुना हो चुका है, जो तब केवल चार किलो की होती थी. कमर, घुटनों, कोहनी और चेहरे जैसे अन्य अंगों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त उपायों ने वजन को और बढ़ा दिया. आज एक अमेरिकी सैनिक के पीपीई का वजन 13-14 किलो है. यह भार सैनिकों की मोबिलिटी और लड़ने क्षमता को खासा प्रभावित करता है. 2017 में रक्षा संबंधी सीनेट की स्थायी समिति ने खासकर इस मुद्दे पर विचार किया था.

भारी वजन के अपने नकारात्मक पहलू के बावजूद पीपीई हर तरह की जंग में जीवन रक्षक साबित हुए है. ऊपर उद्धृत प्रथम विश्व युद्ध के अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है कि आधुनिक पीपीई हताहतों की संख्या दो-तिहाई तक घटा देते.


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हल्के बॉडी आर्मर की तलाश

लगभग दो दशकों में इस बेहद वजनी सुरक्षा उपाय से न केवल सैनिक की मोबिलिटी और लड़ने की क्षमता बाधित हुई, बल्कि 2003 से 2009 के बीच मस्कुलोस्केलेटल चोटों में भी 10 गुना वृद्धि हुई है. सभी आधुनिक सेनाएं अब पीपीई का वजन घटाने की चुनौतियों से निपट रही हैं.

पहला कदम युद्ध की अलग-अलग जरूरतों के आधार पर विभिन्न भूमिकाओं के लिए मॉड्यूलर पीपीई को डिजाइन करना था. आमने-सामने की जंग में मोबिलिटी की कमी हताहतों की संख्या बढ़ा सकती है. ऐसे में, असर/ट्रॉमा घटाने के लिए हल्की सिरेमिक/स्टील प्लेटों का इस्तेमाल किया जा सकता है और कुछ एड-ऑन रक्षात्मक उपकरण हटाए जा सकते हैं.

हल्के मैटीरियल की तलाश भी शुरू हुई है. अल्ट्रा-हाई मॉलिक्यूलर वेट पॉलीएथिलीन, जो लंबे अणुओं की वजह से काफी शक्तिशाली होती है, के विकास से गोलियों और छर्रों के शरीर में घुसने से रोकने का एक हल्का विकल्प मिला है. स्टील की तुलना में इस मैटीरियल की क्षमता 15 गुना तक अधिक हो सकती है. हालांकि, यह हमले के असर/ट्रॉमा से सुरक्षा नहीं देता है जिसके लिए सिरेमिक/स्टील प्लेटों का उपयोग किया जाता है.

हल्की सिरेमिक प्लेट के लिए बोरॉन कार्बाइड जैसे नए मैटीरियल विकसित किए जा रहे हैं. नैनोटेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके, जिसमें मैटीरियल के मॉलिक्यूलर/सुप्रा-मॉलिक्यूलर स्केल में हेरफेर किया जाता है, ऐसे हल्के बॉडी बॉडी आर्मर का उत्पादन किया जा सकता है जो एकदम कपड़ों की तरह हों. एक अन्य तरीका यह भी है कि उभरते हल्के मैटीरियल का उपयोग सैनिकों द्वारा बॉडी आर्मर के साथ ले जाने वाले उपकरणों की अन्य वस्तुओं के साथ एकीकृत कर दिया जाए.


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भारतीय सेना का अनुभव

सैनिकों के लिए पीपीई अपनाना शुरू करने में भारतीय सेना ने काफी देर की. हम 1974 तक द्वितीय विश्व युद्ध के समय वाले हेलमेट उपयोग करते रहे उसके बाद धीरे-धीरे फाइबर ग्लास हेलमेट इंट्रोड्यूस किए गए. जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद विरोधी अभियानों के दौरान ये नाकाम साबित हुए. ‘1990 के दशक की शुरुआत में मेजर जनरल वी.के. दत्ता ने कम लागत वाले एक तात्कालिक समाधान के तौर पर ‘बुलेटप्रूफ पटका’ हेलमेट डिजाइन किया और यह अब भी आतंकवाद विरोधी अभियानों में मानक बना हुआ है.’

इसकी खामी, 2.5 किलो का वजन, उस पर सिर्फ ऊपरी तौर पर सीमित सुरक्षा मिलती है और किसी उपकरण को ऐड-ऑन करने की कोई सुविधा भी नहीं है. वो तो 2018 में आकर कानपुर स्थित रक्षा कंपनी एमकेयू से 170 करोड़ रुपये लागत वाले 1,58,000 केवलर-बेस्ड आधुनिक हेलमेट खरीदे गए. हालांकि, ये भी आतंकवादियों की तरफ से इस्तेमाल की जाने वाली एके-47 स्टील कोर बुलेट के खिलाफ बेअसर साबित हुए. इसे थोड़ा कारगर बनाने के लिए एक अन्य फर्म से सिरेमिक प्लेट खरीदी गईं और उसे ऐड-ऑन के तौर पर इसके साथ लगाया गया. फिर पिछले साल ही 500 करोड़ रुपये में 1,00,000 आधुनिक हेलमेट खरीदने की प्रक्रिया शुरू हुई थी जो एके-47 की स्टील कोर बुलेट से बचाने में सक्षम हैं.

बुलेट प्रूफ जैकेट की कहानी भी इससे ज्यादा अलग नहीं है. इन्हें 1990 के दशक के अंत में सीमित संख्या में शामिल किया गया लेकिन सुरक्षा के लिहाज से भारी-भरकम साबित होने के अलावा इनकी खासी कमी भी नजर आई. यहां तक कि 2000 के दशक के मध्य तक इनकी आपूर्ति काफी कम थी और मात्र 30-40 फीसदी जरूरतें ही पूरी हो रही थीं. वजन में भारी होने के कारण सैनिक इन्हें पहनने से हिचकिचाते थे. 2007-2008 में आर्मी कमांडर के तौर पर जब भी मैं सैनिकों के बीच होता तो मुझे इनमें से एक जैकेट पहनकर बाकायदा उदाहरण पेश करना पड़ता कि भारी वजन के बावजूद यह जैकेट जीवनरक्षक है. पिछले दशक में इसकी कमी पूरी करने के काफी प्रयास किए गए हैं लेकिन अभी जिन्हें शामिल किया गया है उनकी शुरुआत ही हुई है.

अच्छी बात यह है कि डीआरडीओ और निजी उद्योग अब अत्याधुनिक पीपीई के विकास और उत्पादन में सक्षम हैं. भारतीय सशस्त्र बलों को इस बात का भी पूरा फायदा हासिल है कि सुरक्षा और वजन/मोबिलिटी के बीच संतुलन के लिए आधुनिक सेनाओं की तरफ से अभूतपूर्व शोध किए जा चुके हैं. चुनौती हमारी गुणात्मक जरूरतों को तय करने और इसके लिए आवश्यक बजट जुटाने की है.

मेरे अनुमान कहता है कि पूरी तरह अत्याधुनिक पीपीई का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाए तो इसकी लागत प्रति सैनिक करीब एक से डेढ़ लाख रुपये के बीच आएगी. आदर्श स्थिति यही है कि सभी सैन्य कर्मी पीपीई से लैस हों लेकिन अग्रिम मोर्चे पर तैनात रहने वाले सैनिकों (कुल जवानों का लगभग 50-60 प्रतिशत) के लिए तो यह अपरिहार्य है. भारतीय सशस्त्र बलों के लिए 8 से 14 लाख तक सेट की जरूरत होगी जिस पर 12,000 करोड़ से 20,000 करोड़ रुपये की लागत आएगी. यह अपने आप में विकास प्रक्रिया निर्धारित करने वाला है. केवल कॉम्बैट आर्म्स की से 50 फीसदी सेना को लैस करने की भी लागत 9 हज़ार करोड़ रुपये होगी.

मौजूदा समय के पीपीई सेट युद्ध में हताहत होने वाले जवानों की संख्या दो-तिहाई तक घटा सकते हैं. जम्मू-कश्मीर में 1990 से 2021 के बीच करीब 5,500 सुरक्षाकर्मियों ने वीरगति पाई है. एक अत्याधुनिक पीपीई इनमें से 70 प्रतिशत को बचा सकता था. बड़े पैमाने पर पीपीई के उत्पादन की तात्कालिक जरूरत को इससे बेहतर ढंग से समझाया नहीं जा सकता.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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