पश्चिम बंगाल में होने जा रहे विधानसभा चुनावों को लेकर मुझे चिंता लगी है.
वजह ये नहीं कि चुनाव में किसकी जीत होगी और किसकी हार, इस बात से मैंने कोई अपना दिल लगा रखा हो या माथा भिड़ा रखा हो. किसी भी कोण से देखें तो यही जान पड़ेगा कि तृणमूल कांग्रेस ने बड़े औसत दर्जे की सरकार चलायी. हां, उसके पास गिनाने के लिए अपनी कुछ लोकप्रिय योजनाएं जरूर हैं. लोकतांत्रिक अधिकार या फिर भ्रष्टाचार के मोर्चे पर तृणमूल कांग्रेस का ट्रैक रिकार्ड देखें तो उसे कतई उम्दा नहीं कहा जा सकता.
वामदलों का पतन और लगातार अप्रासंगिक होती जा रही कांग्रेस आज के बंगाल की राजनीति की मानो स्थायी पहचान बन चली है. इस सूरत में सूबे में भारतीय जनता पार्टी का तेजी से विस्तार होना ही है. निजी और विचारधारागत पसंद-नापसंद को एक तरफ करते हुए सोचें तो लगता यही है कि जी में खटका पालने की कोई खास वजह नहीं. चाहे चुनाव के नतीजे जो भी हों, बंगाल की जनता की नियति में कोई निर्णायक बदलाव आने से रहा.
दरअसल, मुझे चुनाव के नतीजों से ज्यादा फिक्र तो खुद चुनावों की सता रही है. ना जाने इस बार के चुनाव क्या शक्ल अख्तियार करें. मुझे चुनाव के दिन को लेकर चिंता है. चुनाव के तुरंत बाद के वक्त को लेकर फिक्र लगी है. आशंका लगी है कि चुनाव का दिन और उसके तुरंत बाद का वक्त पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में कहीं इतना भारी नुकसान ना कर बैठे कि उसकी भरपायी मुश्किल हो जाये.
आशंका है कि चुनाव का दौर पश्चिम बंगाल को एकदम से झंझोर कर ना रख दे. बहुत मुमकिन है कि सूबे में होने जा रहे चुनावों से हमारी राष्ट्रीय संस्थाओं को दूरगामी नुकसान झेलना पड़ेगा और ये भी दिख रहा है कि हमारी ये राष्ट्रीय संस्थाएं पहले ही कमजोरी की हालत में हैं.
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साल 1972, कांग्रेस और एक कलंक
मुझे फिक्र सता रही है क्योंकि पश्चिम बंगाल के चुनावी इतिहास में एक डरावना उदाहरण पहले से ही मौजूद है. सूबे में 1972 में हुए चुनावों पर बदनामी के गहरे दाग हैं. निष्पक्ष चुनाव कराने का भारत का जो रिकार्ड रहा है उसे देखते हुए 1972 के चुनावों को एक कलंक माना जाता है.
उस चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस— तब उसे कांग्रेस(आर) कहा जाता था— को भारी जीत मिली और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानि सीपीआई(एम) 280 सीटों वाली विधानसभा में महज 14 सीटों पर सिमटकर रह गई. अगर आप वामधारा की राजनीति की पक्षधर मीडिया और अकेडेमिया की बातों पर विश्वास करें तो फिर आप इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि उस बरस चुनावों में भारी धांधली हुई थी.
लेकिन एक ज्यादा संतुलित आकलन ये है कि उस साल पश्चिम बंगाल के चुनावों में कांग्रेस को भारी भरकम तो नहीं लेकिन एक छोटे अंतर से जीत हासिल होनी ही थी क्योंकि कांग्रेस 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बाद लोकप्रियता की लहर पर सवार थी. लगता यही है कि एकदम आखिरी लम्हे में कांग्रेस को हार की आशंका ने धर दबोचा और इसी आशंका की चपेट में इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र सिद्धार्थ शंकर रे ने चुनावों पर कब्जा जमाने की कुछ ऐसी जुगत भिड़ायी कि कांग्रेस को भारी-भरकम जीत हाथ लग गई.
अब मंशा चाहे जो भी रही हो लेकिन हम इतना जानते हैं कि कई विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस ने बाहुबल से काम लिया, आरोप लगा कि मतदाताओं को भगा दिया गया और बड़े पैमाने पर मतदान-केंद्रों पर कब्जा जमाने की घटनाएं हुईं. कई मतदान केंद्र ऐसे रहे जहां अचानक ही मतदान का रंग-ढंग एकदम ही बदल गया और इस बदले रंग-ढंग की व्याख्या मुश्किल थी.
संक्षेप में कहें तो सूबे में हुए 1972 के चुनावों में कई जगहों पर भारी धांधली हुई.
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बंगाल जीतना बीजेपी की जरूरत
मैं फिक्रमंद हूं तो इसलिए कि बीजेपी हर हाल में बंगाल के चुनाव जीतना चाहती है. बीजेपी ये तो जान चुकी है कि इस बार के चुनाव में उसके लिए एक मौका है लेकिन उसके जी को खटका लगा है कि वह जीत दर्ज करने से चंद कदम दूर रह जायेगी. जहां तक ताकत और संसाधन का सवाल है, बीजेपी को सारा कुछ चुटकी बजाते हासिल है. फिर, इस ताकत और संसाधन का क्या इस्तेमाल किया जाये, इसे लेकर उसके भीतर कोई नैतिक संकोच भी नहीं है.
ये बात शायद ही किसी से छिपी हो कि बीजेपी बंगाल का चुनाव हर कीमत पर जीतना चाहती है. देश भर में हर जगह अपना शासन फैलाने को आतुर बीजेपी के भीतर पश्चिम बंगाल के चुनाव जीतने की भारी भूख है. बीजेपी ने कुछ नुकसान उठाये हैं और देश के उत्तरी इलाकों में बीजेपी को आगे भी नुकसान होने वाला है क्योंकि उत्तरवर्ती इलाकों में बीजेपी अपने विस्तार के चरम पर पहुंच गई है. ऐसे में बीजेपी को जो नुकसान उत्तरी इलाकों में उठाना होगा उसकी भरपायी पूरब और दक्षिण के इलाकों से ही हो सकती है. तमिलनाडु और केरल सरीखे राज्य अब भी बीजेपी की पकड़ से दूर हैं.
जाहिर है, ऐसे में बीजेपी को जरूरत होगी कि वो पूरब के इलाकों में भारी चुनावी बढ़त हासिल करे. याद रहे, बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो सामान्य ढर्रे के चुनावों में भी अपना सबकुछ झोंक देने में यकीन करती है. ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि ये पार्टी उस चुनाव को जीतने के लिए क्या कुछ कर गुजरने को तैयार होगी जिसे जीतने के लिए वो ना जाने कब से बेताब है.
बीजेपी जानती है कि पश्चिम बंगाल में उसके लिए चुनावी कामयाबी के दरवाजे खुल चुके हैं. पिछले विधानसभा में तो बीजेपी को बस तीन सीटें हासिल हुई थीं लेकिन सीटों की इन संख्या से ये बिल्कुल पता नहीं चलता कि बीजेपी पश्चिम बंगाल में आज कहां खड़ी है. वजह ये कि साल 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने जो शानदार प्रदर्शन किया उससे जाहिर हुआ कि तृणमूल कांग्रेस से वह बस तीन प्रतिशत अंक ही पीछे है. अगर लोकसभा में हासिल सीटों को विधानसभा सीटों के एतबार से देखें तो नज़र आयेगा कि बीजेपी को तृणमूल कांग्रेस की 152 सीटों के बरक्स 126 सीटें मिली होतीं.
लेकिन बीजेपी ये भी जानती है कि उसके लिए चुनावी मैदान में 2019 जैसा प्रदर्शन कर पाना मुश्किल होगा. ये पार्टी लोकसभा चुनावों की तुलना में विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती. एक बात ये भी है कि सूबे में पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की लोकप्रियता के पासंग बराबर भी पड़ता हो. कोई ठोस चुनावी मुद्दा या फिर लोगों के सामने पेश करने लायक एजेंडा भी बीजेपी के पास नहीं है. थोड़े में कहें तो बीजेपी के लिए हालत जीत के बहुत पास होकर भी जीत से बहुत दूर वाली है. और, स्थिति ऐसी हो तो बहुत कुछ कर गुजरने का लालच पैदा हो सकता है.
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बंगाल को लेकर मेरी आशंकाएं
यहां आगे बढ़ने से पहले कुछ देर विराम लेकर एक बात याद करता चलूं- जब बात चुनावों में हेर-फेर और धांधली से जुड़े आरोपों या आक्षेप की आती है तो मैं एकदम से चौकन्ना हो उठता हूं, कुछ इतना चौकन्ना कि लगे लीक का फकीर हुआ जा रहा हूं. साल 2006 में जब हार का ठीकरा चुनावों में हुई धांधली के नाम पर फोड़ा गया तो मैंने ममता बनर्जी समेत बहुत से नेताओं पर ताने कसे थे. अपने मोदी-विरोधी दोस्तों की झुंझलाहट झेलने के बावजूद मेरा मानना यही रहा कि इस बात के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं कि बीजेपी ने साल 2019 का चुनाव ईवीएम में की गई गड़बड़ी के सहारे जीता.
आइए, ये बात कह लेने के बाद मैं आपसे वक्त के इस मुकाम को झांकते हुए अपनी चिंताओं का इजहार करता चलूं. मेरी चिंता ये है कि साल 1972 में जो कुछ दांव पर लगा था उससे कहीं ज्यादा इस बार के चुनाव में लगा दिख रहा है. मुझे ये लग रहा है कि आने वाले हफ्तों में मौजूदा शासन के लोग चुनाव जीतने के लिए निम्नलिखित हथकंडे अपना सकते है.
पहली बात, एक आशंका तो यही है कि राज्य में आभासी तौर पर ही सही राज्यपाल की हुकूमत चलने लग जाये. मौजूदा राज्यपाल ने जिस हद दर्जे का पक्षपाती रवैया अख्तियार किया है उसे देखते हुए अगर ये लगे कि राजभवन अप्रकट तौर पर ही सही बीजेपी का मुख्यालय बन बैठेगा तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं. अगर ऐसा होता है तो फिर स्थानीय नौकरशाही को मुट्ठी में करने की रस्साकशी मचेगी.
दूसरी बात, चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा तो लोगों की नज़र में फिलहाल धूल-धूसरित है ही, इस बार के चुनाव में उसकी बची-खुची प्रतिष्ठा और भी ज्यादा मटियामेट होगी. पश्चिम बंगाल के चुनाव में आयोग की भूमिका निर्णायक होने जा रही है और ठीक इसी कारण सत्ताधारी पार्टी का चुनाव आयोग पर भरपूर दबाव होगा.
तीसरी बात, जमीनी तौर पर तृणमूल कांग्रेस का जो काडर अपने बाहुबल दिखाने के लिए उद्धत है उसकी काट के लिए बहुत संभव है बीजेपी अपने खेमे की ताकत का इस्तेमाल करे और इस मोर्चे पर फिलहाल दरअसल बीजेपी की कोई सानी नहीं है. सो, बहुत मुमकिन है कि मतदान वाले दिन भारी पक्षपात देखने को मिले.
चौथी बात, ये तो दिख ही रहा है कि बीजेपी ने इस चुनाव में धनबल का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और आगे के हफ्तों में वह इतनी ज्यादा रकम उड़ेल सकती है जितना कि अब से पहले पश्चिम बंगाल में किसी ने नहीं किया. अब चाहे और जो भी कमियां रही होंगी लेकिन ये बात तो है ही कि पंजाब और कर्नाटक में जिस हद तक धनबल का इस्तेमाल होता आया है वैसा पश्चिम बंगाल में नहीं हुआ है. लेकिन सूबे में इस बार के चुनाव में ये तस्वीर बदल सकती है.
और, इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि इस बार हम भारत के हालिया चुनावी इतिहास का सबसे विभाजनकारी चुनाव देखने जा रहे हैं. सूबे में मुस्लिम आबादी लगभग एक चौथाई है और बीजेपी ने सांप्रदायिक गोलबंदी के हरसंभव प्रयास किये हैं. बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास रहा है और देश के बंटवारे के बाद वहां सांप्रदायिक हिंसा हुई थी.
सांप्रदायिक लकीर पर बांटने और नफरत फैलाने की कोई भी कोशिश बंगाल को देश के बंटवारे के पहले के हिंसक वक्त में ढकेल सकती है. और, इस बार के चुनाव की यह एक दुखदायी निशानी बनकर लंबे समय तक के लिए ठहर सकती है.
मैं तो यही दुआ करुंगा कि मेरी ये सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हों. लेकिन, जहां तक दिख पड़ता है उस हिसाब से मुझे पश्चिम बंगाल के चुनावों को लेकर चिंता सता रही है और ऐसी फिक्र आपको भी होनी ही चाहिए.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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