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Friday, 19 April, 2024
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क्या देश के किसानों को एमएसपी की गारंटी दी जा सकती है ? मामला राजनीतिक इच्छाशक्ति का है

गणतंत्र दिवस पर लाखों किसान देश की राजधानी में मार्च करने की तैयारी में जुटे हैं तो यही मौका है जब एमएसपी की गारंटी को अव्यावहारिक बताने की कथा की पोल-पट्टी खोलना ठीक होगा.

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क्या इस बात की गारंटी की जा सकती है कि देश के किसानों को उनकी उपज का लाभकर मूल्य मिले? नरेन्द्र मोदी सरकार, कुछ अर्थशास्त्री और देश की माडिया मानकर चल रहे हैं कि ऐसा कर पाना नामुमकिन है, ना तो वित्तीय रुप से ऐसा कर पाना संभव है और ना ही किसानों को उपज का लाभकर मूल्य देने की कोई पुख्ता व्यवस्था ही अमल में लायी जा सकती है. लेकिन उनका ऐसा मानना गलत है. या तो ये तीनों ये नहीं समझ पा रहे हैं कि किसानों की मांग क्या है या फिर लागत की गिनती में उनसे कोई गड़बड़ हो रही है.

या फिर ये भी हो सकता है कि मसले पर तीनों जान-बूझकर गुमराह कर रहे हों. आज जब लाखों की तादाद में किसान गणतंत्र दिवस के मौके पर देश की राजधानी में मार्च करने की तैयारियों में जुटे हैं तो यही वो वक्त है जब लाभकर मूल्य दे पाने को असंभव करार देने वाली इस कथा के गुब्बारे को फोड़ देना ठीक होगा.

एक अच्छी बात ये है कि इस काम के लिए रास्ता पहले से ही बना हुआ है. मोदी सरकार हर साल 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) घोषित करती है. सो, सिद्धांत रुप में देखें तो सरकार ये बात मानकर चल रही है कि किसानों को उनकी उपज का एक न्यूनतम मूल्य मिलना ही चाहिए. फसलों की कीमत की गिनती के लिए सरकार के पास एक फार्मूला भी है, भले ही उसमें ढेर सारी खामियां हों और उसे विवादास्पद माना जाता रहा हो. और, सरकार ये भी स्वीकार करके चलती है कि किसानों को उपज की कीमत देने के मामले में सहायता-समर्थन की जरुरत है, भले ही यह स्वीकार-भाव कानून की शब्दावली में ना हो.

समस्या ये है कि सरकार स्वीकार तो करती है कि किसानों को उपज की कीमत के मामले में सहायता की जरुरत है लेकिन सहायता देने की बात आती है तो इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं करती. सच्चाई ये है कि 20 प्रतिशत से भी कम किसानों को उपज की कीमत के मामले में सहायता मिलती है क्योंकि सरकार केवल दो या तीन फसलों की कीमत के लिहाज से ही पहलकदमी करती है और यह पहलकदमी भी कुछ ही इलाकों में देखने को मिलती है. ज्यादातर किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का मतलब हो जाता है वह अधिकतम कीमत जो उनके हाथ में आ सकता है, यानि एक ऐसी कीमत जो सचमुच मिल जाये तो किसान मानें कि हमारे सपने सच हो गये. मौजूदा सीजन में मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल है लेकिन किसानों को बीते तीन माह से मक्का 1100 से 1350 रुपये प्रति क्विंटल बेचना पड़ रहा है.

बाजरे का सर्वाधिक उत्पादन राजस्थान में होता है लेकिन इस साल की जनवरी में राजस्थान में किसानों को बाजरे की कीमत 1340 रुपये प्रति क्विंटल हासिल हो रही है जबकि बाजरे की एमएसपी है 2150 रुपये. उड़द, मूंग और अरहर सरीखे दलहन उगाने वाले किसानों को भी ऐसी ही स्थिति का सामना करना होता है.

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किसानों की मांग है और वे चाहते हैं कि मोदी सरकार ने अपनी तरफ से जिस कीमत को न्यूनमत मानकर देना घोषित किया है कम से कम उतना तो मिले. किसान चाहते हैं, कोई कानून बन जाये कि ताकि सरकारी की जवाबदेही बने और घोषित एमएसपी किसानों हर हाल में मिले इसे सुनिश्चित करने के लिए कानून में निर्धारित जवाबदेही के हिसाब से सरकार को हस्तक्षेप करना पड़े.


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एमएसपी की मदद के मायने क्या है

क्या ये संभव है? आइए, शुरु में ही यह स्पष्ट कर लें कि उपज का लाभकर मूल्य देने के लिए मददगार होने का मतलब क्या है. गारंटीशुदा एमएसपी का मतलब ये नहीं है कि सरकार को हर फसल का बाजार में बिकने आया एक-एक दाना खरीदना होगा. ऐसा करना नामुमकिन, गैरजरुरी और खर्चीला है. अभी सरकार के हाथों एमएसपी पर जितनी खरीद होती है, उसकी मात्रा बढ़ सकती है और बढ़ायी भी जानी चाहिए. लेकिन, बात इतने भर से पूरी नहीं हो जाती. किसानों को उपज का लाभकर मूल्य देने के लिहाज से यह कई तरीकों के बीच सिर्फ एक तरीका है.

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए खाद्यान्न की जो खरीद होती है उसका दायरा बढ़ना चाहिए, उसमें ज्वार-बाजरा सरीखे मोटहन, दलहन और तेलहन को शामिल किया जाना चाहिए. इससे करोड़ों परिवारों को पोषण के मोर्चे पर भी फायदा होगा. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के 75 करोड़ लाभार्थियों को 1 किलो दाल मुहैया कराने पर दलहन की मांग में 13 मिलियन टन का इजाफा होगा. जाहिर है, इससे दलहन उपजाने को बढ़ावा मिलेगा. अभी दलहन का उत्पादन लगभग 23 मिलियन टन होता है.

दूसरा उपाय है कि जब भी बाजार में उपज का मूल्य एमएसपी से नीचे जाये तो सरकार तुरंत और कारगर ढंग से हस्तक्षेप करे. इसके लिए जरुरी होगा कि MARKFED और NAFED जैसी एजेंसियों के संचालन का दायरा बढ़ाया जाय और इसके लिए उन्हें ज्यादा धन दिया जाये, उनकी भंडारण और विपणन की क्षमता में विस्तार किया जाये. इन एजेंसियों को फसल का कुछ ही हिस्सा(10 से 20 प्रतिशत) खरीदना होगा. बस इतने भर से बाजार में किसान की फसल की कीमत बढ़ जायेगी. ऐसी योजना मौजूद तो है लेकिन इस योजना के मद में दी जाने वाली राशि में बहुत ज्यादा इजाफा करने की जरुरत है.

अगर यह उपाय कामयाब साबित नहीं होता तो फिर सरकार एक तीसरा तरीका क्षतिपूर्ति के रुप में अपना सकती है. फसल की जितनी एमएसपी निर्धारित हुई हो और किसान के हाथ जो रकम आयी है उसके बीच जितनी भी राशि का अन्तर हो, सरकार वह राशि किसानों को दे. मध्यप्रदेश में यह तरीका भावांतर भुगतान योजना के नाम से चली लेकिन योजना की बनावट के खराबी थी इसलिए नहीं चल पायी. भावांतर भुगतान जैसी योजना को नये सिरे से तैयार किया जाना चाहिए और ऐसी योजना में पर्याप्त राशि का आबंटन किया जाना चाहिए.

चौथा और आखिर का उपाय है कि अंतिम समाधान के तौर पर सरकार एमएसपी से कम कीमत पर होने वाले व्यापार को गैरकानूनी करार दे दे. यह कोई रामबाण उपाय नहीं है और पहले बताये गये तीन उपायों पर अमल नहीं होता तो फिर एकलौते इसी उपाय को अपनाने पर लेने के देने भी पड़ सकते हैं. इस चौथे उपाय पर अमल किफायतशारी से किया जाये, कानून की नाफरमानी करने वालों के लिए दंड के प्रावधान हों तो बाजार को अपनी देख-रेख में चलाने वाले अधिकारीगण कानून लागू करने की दिशा में कहीं ज्यादा मुस्तैदी से काम करेंगे.

इन चार उपायों पर अगर चतुराई से अमल किया जाये तो फिर गारंटी हो जायेगी, किसानों को एमएसपी से कम कीमत हासिल नहीं होगी.


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‘एमएसपी जेब पर भारी’ सच्चाई नहीं एक मिथक है

इस सिलसिले की आखिर की बात ये कि क्या इस बात की गारंटी कर दी जाये कि किसानों को एमएसपी से कम कीमत ना मिले तो इससे सरकारी खजाने पर बहुत भारी बोझ बढ़ जायेगा ? सरकार के प्रवक्ता इस मांग को नकारने और बखिया उघेड़ने के क्रम में तर्क देते हैं कि एमएसपी की गारंटी करने पर सरकारी खजाने पर 17 लाख करोड़ रुपये का खर्च बढ़ जायेगा जो देश के बजट का 50 प्रतिशत से ज्यादा है. लेकिन ये गिनती ठीक नहीं है, दरअसल इसे गिनती नहीं खुरपेंच कहना ज्यादा ठीक होगा. सरकार किसानों की सारी फसल के एक-एक दाने को खरीद ले और फिर उसे हिन्दमहासागर में फेंकने की सोचे तो ही 17 लाख करोड़ रुपये का खर्चा बैठेगा ! इस गिनती में खरीदी गई फसल का मोल शून्य आंका गया है.

एमएसपी की गारंटी करने पर लागत क्या बैठेगी, इस सच्चाई को जानने के लिए हमने एमएसपी और फसल के औसत बाजार-मूल्य के बीच के अन्तर की गिनती की. नीचे जो तालिका दी गई है उसमें आप इस अन्तर को पढ़ सकते हैं. केंद्र सरकार अगर बाजार-मूल्य से ज्यादा कीमत पर उपज खरीदती है या फिर भावांतर को देखते हुए किसानों को क्षतिपूर्ति करने के कदम उठाती है तो सरकार पर नीचे दी गई तालिका के हिसाब खर्चा बैठेगा. तालिका में साल 2017-18 के आधिकारिक आंकड़े का इस्तेमाल किया गया है. बाजार में प्रचलित औसत मूल्य की गणना के लिए देश की मंडियों में रोजाना के हिसाब से प्रचलित मूल्यों को गिनती में लिया गया है जो Agmarknet के हैं. इसमें रोजाना की खरीद और मानक मूल्य से उसकी कमी-बेशी का भी ध्यान रखा गया है.

एमएसपी कुल 23 फसलों के लिए दी जाती है और तालिका में इन 23 फसलों में से 13 बड़ी फसलों के आंकड़े दिये गये हैं. मिसाल के लिए मक्के की एमएसपी उक्त वर्ष में 1425 रुपये प्रति क्विंटल थी लेकिन बाजार-मूल्य था 1159 रुपये प्रति क्विंटल. उक्त साल में मक्के का अधिशेष विपणन 25.29 मिलियन टन का हुआ. इस तरह मक्का उपजाने वाले किसानों को एमएसपी के तुलना में कुल 6727 करोड़ रुपये का घाटा सहना पड़ा. तालिका को देखने से पता चलता है कि 13 में से 10 फसलों का बाजार-मूल्य एमएसपी से बहुत कम है.

जाहिर है, साल 2017-18 में किसानों को तालिका में दर्ज 13 फसलों की उपज के मूल्य के मामले में जितना घाटा उठाना पड़ा, सरकार उसकी भरपायी करना चाहे तो उसे 47,764 करोड़ रुपये देने होंगे. अगर आप इसमें बाकी बची 10 फसलों को भी जोड़ देते हैं तो भरपायी के रुप में दी जाने वाली रकम बढ़कर 50 हजार करोड़ रुपये हो जायेगी. यह रकम साल 2017-18 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना(मनरेगा) को आबंटित राशि से कम है. दरअसल सरकार का वास्तविक खर्चा इससे भी कम बैठेगा क्योंकि बाजार में हस्तक्षेप तथा कानूनी प्रावधानों के कारण उपज का बाजार मूल्य बढ़ा होगा और सरकार को इस नाते भरपायी के तौर पर कम कीमत देनी होगी.

तालिका : एमएसपी की गारंटी करने पर सरकार को कितना खर्चा करना होगा?

स्रोत: भारत सरकार के Agmarknet तथा कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर किरन विस्सा द्वारा आकलित

* जहां तक धान, गेहूं तथा कपास का सवाल है इन फसलों के अधिकांश(80 प्रतिशत) के लिए बाजार मूल्य एमएसपी से ज्यादा रहा. इसलिए, हमने एमएसपी से नीचे बिके 10 फसलों के भावांतर की गिनती की.

स्वामीनाथन आयोग ने किसानों को लागत का ड्योढ़ा मूल्य देने की बात कही थी और इसके अनुकूल अगर सरकार व्यापक आधार पर जोड़े गये लागत मूल्य में 50 फीसद और जोड़कर एमएसपी निर्धारित करती है तो इस बढ़े हुए मूल्य के हिसाब से जो खर्चा सरकार पर बैठेगा उसे भी तालिका में दिखाया गया है. अगर ऐसा होता है तो सरकार पर अधिकतम खर्चा 228,000 करोड़ का बैठेगा जो जीडीपी का 1.3 प्रतिशत और केंद्रीय बजट का 8 प्रतिशत है. यह तनिक कठिन तो है लेकिन असंभव नहीं. ऐसा किया जा सकता है कि बढ़े हुए खर्चे को केंद्र और राज्य सरकार के बीच आपस में बांट लिया जाये.

क्या देश ये खर्चा उठा सकता है ? इस सवाल का जवाब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप देश को लेकर सोचते क्या हैं और देश के भीतर अन्नदाता की क्या हैसियत तय करते हैं. सो, मामला राजनीतिक इच्छाशक्ति का बन जाता है. और, यही वो सवाल है जो करोड़ों किसान आज पूछ रहे हैं.


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(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(किरण विस्सा एक कृषि एक्टिविस्ट हैं जोकि रायथु बंधु वेदिका के सदस्य हैं साथ ही अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की कार्यसमिति के सदस्य हैं. योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष है. व्यक्त विचार निजी हैं)

 

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2 टिप्पणी

  1. Yogendra Yadav ji kya aap bata sakte hai ki aap ke pas kitne jameen hai,aur aapne kitne saal kheti ki hai.

  2. बहुत बोधवर्धक जानकारी दी है आपके हर भारतीय और किसान को और उनकी संतानों को ये पोस्ट जरूर पढ़नी चाहिए। खासकर कुर्सीनशीं साहब को तो अवश्य ही पढ़नी चाहिए।

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