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Thursday, 2 May, 2024
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किसानों का आंदोलन अब वैसा नहीं रहा जैसा कि मोदी सरकार मानकर चल रही थी

भारत में ताजा किसान आंदोलन का उभार और 19वीं सदी के किसान विद्रोह के बीच कुछ सामान्य है.

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क्या आपने कभी ‘किसानों के नैतिक अर्थशास्त्र’ जैसे मुहावरे के बारे सुना है? देश की राजधानी दिल्ली के दरवाजे तक आ पहुंचे किसान-विद्रोह के मायने-मतलब समझना चाहें तो फिर आपको ऐसे मुहावरे के अर्थों से दो-चार होना पड़ेगा. नीति-निर्माताओं को भी इसी मुहावरे के कोण से सोचना होगा कि आखिर उनके तर्क के तीर किसानों के अडिग विश्वास के सामने क्योंकर भोथरे साबित हो रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी इसी मुहावरे के सहारे समझना होगा कि किसानों के विद्रोह से निपटने की उनकी तमाम तरकीबें क्योंकर कारगर नहीं हो पा रहीं, और क्यों उन्हें फौरन से पेश्तर अपनी तमाम तरकीबों के बीच किसानों के आगे हार मान लेनी पड़ेगी.

यों नैतिक अर्थशास्त्र का ये मुहावरा अपने अर्थ में इतना जटिल भी नहीं कि समझने के लिए जी पाना खपाना पड़े. नैतिक अर्थशास्त्र की अवधारणा का इस्तेमाल सबसे पहले ब्रिटिश इतिहासकार ई.पी. थॉम्पसन ने किया था. उन्होंने इस धारणा का प्रयोग ब्रिटेन में खाने-पीने की चीजों को लेकर जो दंगों हुए थे, उनकी समझ बनाने के लिए किया. इस अवधारणा में एक बुनियादी मान्यता ये है कि गरीब-जन एक नीतिबोध के सहारे अपनी जिंदगी गुजारते हैं. सही क्या है और गलत क्या तथा किस बात में इंसाफ की झलक है और किस बात में नाइंसाफी की, इसे लेकर उनके मन में बड़ी स्पष्ट धारणा होती है. सो, गरीब-जन बाजार की व्यवहार-बुद्धि की लीक पर नहीं चलते. आगे को इस धारणा का विस्तार जेम्स स्कॉट ने दक्षिण-पूर्वी एशिया में हुए किसान-विद्रोहों को समझने-समझाने के क्रम में कया. जेम्स स्कॉट ने बताया कि औपनिवेशिक अधिकारियों ने राजकाज के क्रम में जो बदलाव किये उससे किसानों की ‘साईं इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय’ वाली ‘जीयनी-रहनी’ पर चोट पड़ी सो किसानों ने बगावत कर दी. रणजीत गुहा की कालजयी कृति ‘एलमेंटरी आस्पेक्टस ऑफ पीजेंट इनसर्जेन्सी इन कॉलोनियल इंडिया’ में इस धारणा का इस्तेमाल 19वीं सदी में हुए किसान-विद्रोहों को समझने-समझाने में किया गया जिसमें सन् सत्तावन की क्रांति भी शामिल है. गुहा ने अपनी इस किताब में दिखाया कि औपनिवेशिक आकाओं को बेशक ये जान पड़ा कि इस देश की माटी के बाशिन्दे बड़े विचित्र और बेतुके ढंग से हिंसा पर उतारू हो उठे हैं और उनका यह कृत्य बिना किसी पूर्व सूचना या तैयारी की जहां-तहां खुद ब खुद उभर रहा है लेकिन किसानों का प्रतिरोध सोचा-समझा और संगठित था, वे अपने औपनिवेशिक आकाओं के खिलाफ उठ खड़े हुए थे. औपनिवेशिक राजसत्ता ने खेती-बाड़ी की नई व्यवस्था शुरू की थी. ये व्यवस्था किसानों के नीतिबोध के खिलाफ थी, उन्हें लगा कि नई व्यवस्था उन्हें जीवन की गरिमा से वंचित कर रही है, उनका जो वाजिब हक है वो नई व्यवस्था के भीतर नहीं मिल रहा है. किसानों के भीतर रोष पनपा, उनके आक्रोश ने अपने इजहार का तरीका खोजा और औपनिवेशिक आकाओं के हर प्रतीक के खिलाफ हिंसा की चिनगारी फूट पड़ी.


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आईए, अब समय और समय का दृश्य बदलते हैं और साल 2020 के आखिर के महीने के सिंघु बार्डर पर चलते हैं. बेशक, आप कह सकते हैं कि ये किसान 19वीं सदी के किसानों जैसे तो हरगिज नहीं जान पड़ते. उनका लंगर भरा-पूरा है. आपको यहां लड्डू तो मिलेंगे ही, किस्मत मेहरबान हुई तो जलेबी भी मिल जायेगी. इन किसानों की ट्रालियां और टेन्ट दिसंबर के दिनों में ठंडे नहीं बल्कि आरामदेह गरमायी की पनाहों में हैं. इनमें फोन को रिचार्ज करने के लिए सोलर पैनल लगे हुए हैं. कुछ ट्रैक्टर्स में हाई-फाई साउंड सिस्टम लगे हैं कि मनोरंजन भी होता रहे. आपको एसयूवीज भी नजर आ जायेगी जहां-तहां. लेकिन शाहजहांपुर के बार्डर पर खड़े इन किसानों के भाई-बंधु किफायतशारी से काम चला रहे हैं (मैं किफायतशारी से बने ऐसे ही एक टेंट में बैठकर ये कॉलम लिख रहा हूं. टेन्ट मुझे लगतार याद दिला रहा है कि बाहर तापमान 7 डिग्री सेल्सियस है. लेकिन ये किसान खाने-पीने की चीजों को लूटने को मजबूर भूख से अकुलाये बगावतियों की तरह नहीं हैं. आप यहां हिंसा का कोई कृत्य नहीं गिना सकेंगे. यहां आधुनिक और लोकतांत्रिक ढर्रे पर प्रतिरोध चल रहा है.

फिर भी कुछ ऐसा है जो सिंधु बार्डर और शाहजहांपुर बार्डर पर 2020 के दिसंबर में हाड़-कंपाती ठंढ़ के बीच डटकर लोहा लेते किसानों को 19वीं सदी के विद्रोही किसानों से जोड़ता है. अपने पुरखों की तरह ये किसान भी रोष में हैं कि खेती-बाड़ी की मौजूदा व्यवस्था को एकबारगी बदल डालने की कोशिशें हो रही हैं. ये बात नहीं कि किसान खेती-बाड़ी की मौजूदा व्यवस्था से खुश हैं लेकिन उन्हें डर है कि नई व्यवस्था अभी की व्यवस्था से कहीं ज्यादा खराब होगी और ऐसा मानने के उनके पास वाजिब वजहें भी हैं. खेती-बाड़ी का काम लगातार अनिश्चित होता गया है, वह घाटे का सौदा बन चला है, एक ऐसा काम जिसकी गरिमा लगातार छिनती चली गई है. मॉनसून बुरा रहा तो किसानों की फसल मारी जाती है. अगर मॉनसून अच्छा रहा तो किसानों को उपज के दाम पर चोट पड़ती है. किसानों के बच्चे अब किसानी का काम करना नहीं चाहते. किसी भी साधारण किसान से पूछकर देखिए, उसके मन में व्यवस्था को लेकर नाराजगी मिलेगी. मौजूदा व्यवस्था उसे अन्यायी और बेईमान जान पड़ती है. ऐसे परिवेश में सरकार ने तीन कृषि कानूनों को पारित किया तो ये कानून एक प्रतीक बन गये, प्रतीक उन मुश्किलों और दुखों के जो मौजूदा व्यवस्था में किसानों को झेलनी होती है. कानून बना दिया गया लेकिन बनाने की अदा कुछ ऐसी रही कि जिसका जीना-रहना इन कानूनों से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला है उससे कोई राय-मशविरा तक न किया गया. और, कानून बनाने के इस ढर्रे ने किसानों को याद दिलाया कि ये सत्ताधारी तो उनके साथ हमेशा हिकारत का बर्ताव करते आये हैं.

किसानों ने इन कानूनों के महीन नुक्तों को नहीं पढ़ा लेकिन वे अपने सहज बोध से जानते हैं कि कानूनों में कोई बड़ी गड़बड़ है. और, किसानों को ये पसंद नहीं. पंजाब, हरियाणा तथा देश के कुछ अन्य इलाकों के किसानों को आभास हो चला है कि मौजूदा सरकारी मंडी की व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म की जा रही है जबकि यही मंडी व्यवस्था दशकों से उनकी जीवनरेखा बनी चली आ रही थी. जिन इलाकों के किसानों को सरकारी मंडी के मार्फत होने वाली उपज की खरीद का फायदा नहीं मिला है उन्हें भी लग रहा है कि आगे के वक्त में ऐसी मंडी के उनके इलाके में होने की सूरत में फायदा हो सकता था लेकिन अब ये उम्मीद भी हाथ से गई. किसान सरकार से खुश नहीं है लेकिन सरकार उन्हें एकदम से बाजार की ताकतों के रहम पर छोड़ दे, ये बात उन्हें एकदम ही नागवार गुजरी है और उनके मन में बैठे डर को बढ़ा रही है. किसान अपना ये डर एक-दूसरे से आमने-सामने की बातचीत में साझा कर रहे है और एक मुंह से दूसरे के कान तक पहुंचकर उसके मुंह की बात बन जाने वाला संवाद का यह पुराना तरीका किसी भी अन्य मीडिया से कहीं ज्यादा भरोसेमंद है. किसानों का यह संवाद-कर्म कई रूप ले रहा है जिसमें अफवाह भी शामिल है, 19वीं सदी के किसान-विद्रोह में ये भी देखने को मिला था.

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अभी किसानों का जो अडिग आंदोलनी उभार दिख रहा है उसके भीतर यही नैतिक आक्रोश प्राण फूंक रहा है. बात अब नफा-नुकसान के जोड़-जमा से बहुत आगे निकल चुकी है, कृषि उपज विपणन मंडियों से मिलने वाली रकम की संभावनाओं और ठेके पर खेती-बाड़ी करने के चलन के फायदों की चौहद्दियों को तोड़ती हुई अब बात एक बेहद्दी मैदान में पहुंच चुकी है. एक तरह से देखें तो अब मामला तीन कृषि कानूनों या फिर इन कानूनों को शक्ल और स्वभाव देने वाली सरकार तक भी सीमित नहीं रहा. अब मामला उस हिकारती बर्ताव का बन चला है जो एक के बाद एक तमाम सरकारों के हाथों किसानों ने झेलनी पड़ी है. अब मामला इस बात का बन चला है कि मौजूदा व्यवस्था के भीतर किसानों के साथ हमेशा ही भेदभाव का बर्ताव हुआ. अब बात किसानों के आन की है, उनकी गरिमा और वजूद की. पंजाबी में इसके लिए एक शब्द आता है होंड, तो अब बात किसानों के होंड की है. सत्ताधारी पार्टी और उसके आधिकारिक-अनाधिकारिक प्रवक्ताओं ने किसानों को खालिस्तानी और विदेशी एजेंट बताकर आक्रोश की सुलगती हुई आग को धधका दिया है. आप कह सकते हैं कि हरियाणा के कुछ हिस्सों और पंजाब के किसानों के लिए अब ये आंदोलन एक भावनात्मक मुद्दे के रूप में तब्दील हो चुका है.

आंदोलन के भीतर जो सामुदायिकता के रुझान दिख रहे हैं, उसके पीछे यही वजह है. एक बार कोई आंदोलन समाज के नैतिक भाव-तंतु को छू ले समुदाय के नेह-बंध अपना रंग दिखाते हैं. गुरद्वारा और इसके संसाधन अब किसानों की सेवा में लगे हैं. किसानों के मकसद के भीतर जोश और जज्बा भरने के लिए खाप-पंचायतें उठ खड़ी हुई हैं और अनिवासी भारतीय भी. वह सीमारेखा जो किसी पेशेवर जमावड़े को एक सामुदायिक जुटान से अलग करती है, अब धुंधली पड़ चुकी है. तमाम तरह के स्थानीय क्लब और संगठन आ जुड़े हैं किसानों के आंदोलन से. इनमें वकीलों के संगठन हैं तो स्पोर्टस् के क्लब भी. जिन्होंने सरकारी वर्दी पहनी है वे भी निजी तौर पर किसानों के साथ हैं. अब यह किसानों का प्रतिरोध या कह लें आंदोलन भर नहीं रहा. अब यह किसान-विद्रोह का नया संस्करण बन चुका है—ऐन 21वीं सदी वाला संस्करण.

एक बड़ा संघर्ष

इसी कारण सरकार जब इस विद्रोह से निपटारे के उपाय कर रही है तो उसके उपाय भोथरे साबित हो रहे हैं. मोदी सरकार इस किसान-विद्रोह से कुछ यों निपट रही है मानो यह किसी मजदूर संगठन का आंदोलन हो. अड़ंगी मारने, बात बदलने और ध्यान भटकाने के जो पैंतरे अमूमन सरकारें अपनाती हैं, वे किसानों के इस विद्रोह में बेअसर हैं. फर्जी किसान नेता और फर्जी किसान-संगठन खड़े करने की कोशिश हुई, कवायद चली कि इन फर्जी किसान-संगठनों और नेताओं की भेंट कृषि मंत्री से करवायी जाय. लेकिन इस कोशिश और कवायद की बिल्कुल वैसी ही भद्द पिटी जैसी कि पिटनी चाहिए थी. अब सरकार इस खेल में लगी है कि दुष्प्रचार के सहारे आंदोलन को बेअसर और बेआबरू कर दिया जाये. हो सकता कि शहराती मध्यवर्ग के बीच ये दुष्प्रचार एक हद तक काम कर ले जाये लेकिन किसानों को उस तरह तो खलनायक बनाकर पेश करना मुमकिन नहीं जितना कि समाज के शेष तबकों को. तो, ऐसे में सरकार इंतजार करवाओ और थकाकर धीरज डिगाओं के पैंतरे चल रही है, कुछ भितरघात की तरकीब तलाश रही है. लेकिन प्रतिरोध के लिए जुटे किसानों के बीच बिताये अपने एक माह के अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि सरकार की ये तरकीब कामयाब नहीं होने वाली. किसान जानते हैं कि ये लड़ाई उनकी आखिरी लड़ाई है, वे कहते भी हैं कि ये हमारी आर-पार की लड़ाई है. वक्त गुजरने के साथ किसानों की ये विद्रोही तेवर वाली जुटान बढ़ती जा रही है. दिल्ली के इर्द गिर्द के सारे मोर्चे अपने नैतिक ताकत और आकार में बढ़ते जा रहे हैं. देशभर के किसानों को अब लगने लगा है कि सरकार कुछ बड़ा और बहुत बुरा कर रही है. सरकार इस बात को समझने में जितनी ज्यादा देर लगायेगी, सरकार और देश को उतनी ही ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)


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