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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार ने किसानों को अनचाही सौगात दी, अब वो इसकी नामंजूरी संभाल नहीं पा रही

मोदी सरकार ने किसानों को अनचाही सौगात दी, अब वो इसकी नामंजूरी संभाल नहीं पा रही

किसान पहले से कहते आये हैं कि हम बस इन तीन कृषि-कानूनों की वापसी चाहते हैं और वे अपनी इस बात पर अडिग हैं लेकिन दोष मढ़ा जा रहा है कि किसान बार-बार अपनी बात बदल रहे हैं.

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किसानों के साथ चल रहे मौजूदा गतिरोध के बीच क्या गजब की दलील पेश की है नरेंद्र मोदी सरकार और मीडिया में बैठे सरकार के पिट्ठुओं ने- एक नामुराद सी चीज तीन कृषि कानूनों की शक्ल में थमा दी गई और अब किसानों से कहा जा रहा है कि कुछ अक्लमंदी दिखाइए, ठुकराइए मत, सौगात कबूल कीजिए और अब आप ही कोई ‘बीच का रास्ता’ निकालिए. सरकार ने आंदोलनकारी किसानों को जो नया प्रस्ताव दिया है, कहा जा रहा है कि वही ‘बीच का रास्ता’ है. जिस अड़ियल सरकार ने दिल्ली कूच कर रहे किसानों की राह रोकने के लिए तमाम बाधाएं खड़ी की मीडिया में उस सरकार की प्रशंसा की जा रही है कि बड़ी संवेदनशील सरकार है.

किसान पहले से कहते आये हैं कि हम बस इन तीन कृषि-कानूनों की वापसी चाहते हैं और वे अपनी इस बात पर अडिग हैं लेकिन दोष मढ़ा जा रहा है कि किसान बार-बार अपनी बात बदल रहे हैं. सरकार ये तो तय कर ही रही है कि आंदोलनकारी किसानों से उसे क्या बर्ताव करना है, वह ये भी तय करने में लगी है कि उसके बर्ताव के जवाब में किसानों को क्या-क्या कहना चाहिए. हठधर्मी सरकार दिखा रही है लेकिन कहा जा रहा है कि अड़ियल रवैया किसानों ने अपना रखा है. ताकत का मद क्या नहीं करवाता— वह तर्क को सिर के बल खड़ा कर सकता है, जो चीज कहीं नहीं है उसे भी खोज कर ला सकता है और ये तय कर सकता है कि युक्तिसंगत होने के क्या मायने होते हैं.

याद कीजिए कि किसानों के इस आंदोलन की शुरुआत कैसे हुई. उस घड़ी प्रधानमंत्री ने तीन कृषि-कानूनों के बारे में कहा था कि किसानों को सौगात दी जा रही है, मानो किसानों की मुंहमांगी मुराद पूरी की जा रही हो और जैसा इतिहास में अब से पहले कभी नहीं हुआ. सौगात कबूल करें या ना करें ये तो अपनी स्वेच्छा का मामला है. सौगात देने वाले को या तो पहले से पता होता है कि जो चीज दी जा रही है उसकी चाहत लेने वाले में पहले से मौजूद है या फिर ना पता होता है तो वह पूछ लेता है. मामला ऐसा ना हो तो युक्तिसंगत यही कहलाएगा कि जिसे सौगात देने के लिए चुना गया है वो कह दे- इस दरियादिली का शुक्रिया. लेकिन हमें इसकी जरूरत नहीं है. सौगात तो सौगात ही होती है ना, वह शहद मिली कुनैन की कोई टीकिया थोड़े होता है कि मरीज ना चाहे तो भी उसके हलक में उतार दो. (संयोग देखिए कि कुछ सरकार-समर्थक अर्थशास्त्री तीन कृषि कानूनों की हिमायत इसी अंदाज में कर रहे हैं यानि एक कड़वी दवाई के रूप में जिसे महामारी की ओट लेकर किसानों के हलक में उतारा जा सकता है).


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ऐसी सौगात किसान चाहते ही नहीं

जो तर्क किसी को सहज ही समझ में आ जाये वही तर्क इस मामले में एकदम से भुला दिया गया है. साफ जाहिर है कि सरकार ने तीन कृषि कानूनों को लेकर किसानों की मर्जी कभी जाननी ही नहीं चाही. बाकी किसान संगठनों की कौन कहे, उसने अपने खीसे के भारतीय किसान संघ से भी ना पूछा कि बताइए, आपको ये सौगात चाहिए भी या नहीं. और, आंदोलन के इस मुकाम पर पहुंचकर यह तो दिन के उजाले की तरह साफ हो गया है कि देश में जो हजारों की तादाद में किसान संगठन हैं उनमें से किसी को सरकार की सौगात मंजूर नहीं है.

जहां तक किसानों का सवाल है, याद कीजिए कि गांव-कनेक्शन के सर्वेक्षण से क्या निष्कर्ष निकलकर सामने आये थे. किसानों का आंदोलन अभी अपनी ऊंचाई पर नहीं पहुंचा था, कोई दो माह पहले की बात है जब गांव-कनेक्शन ने किसानों के बीच सर्वेक्षण किया था. सर्वेक्षण से निकलकर आया कि किसानों के मन में तीन कृषि कानूनों को लेकर आशंका पल रही है.

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किसान उस वक्त भी कह रहे थे कि, ‘बहुत शुक्रिया, लेकिन अपनी ये सौगात वापस ले लीजिए. मेहरबानी करके हमें वही दीजिए जिसकी हमें ख्वाहिश है, हम अपनी उपज का वाजिब दाम चाहते हैं.’ मौजूदा किसान आंदोलन जिस साझे मंच से चल रहा है वह ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ लगातार कहता आ रहा था कि तीन कृषि-कानून वापस ले लिये जायें. सरकार से चल रही बातचीत के हर दौर में यही बात कही गई. किसान-संगठनों ने वार्ता के हर चरण में कहा कि तीन कृषि-कानूनों की वापसी से कम हम किसी और बात पर राजी नहीं. लेकिन किसान अडिग हैं तो मोदी सरकार और मीडिया का दरबारी तबका हैरत जता रहा है.


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हर बार सरकार का एक सा प्रस्ताव

आंदोलनकारी किसानों को मोदी सरकार ने जो नया प्रस्ताव दिया उसे किसानों ने सीधे-सीधे नकार दिया. एक पीपीटी के प्रिंटआउट्स के रूप में 20 पन्ने के इस सरकारी प्रस्ताव में सरकार ने वही पुरानी घुट्ठी पिलायी है जो सत्तापक्ष पिछले कई महीनों से परोसता रहा है. यों इस कवायद में डेढ़ चाल के तौर यह भी दर्ज है कि बीते वक्त में मुद्दे पर कुछ समितियां बनी थीं जिसमें कांग्रेस के नेता शामिल थे ताकि ये बताया जा सके कि विपक्षी दल कहीं ना कहीं और कभी ना कभी सरकार के तीन कृषि कानूनों के तरफदार रहे हैं.

अचरज नहीं कि सरकार 2011 की अपनी रिपोर्ट का जिक्र प्रस्ताव में करना भूल गई. यह रिपोर्ट मुख्यमंत्रियों की एक समिति का है जिसकी अगुवाई गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी और बतौर सिफारिश रिपोर्ट में कहा था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी दी जाए. सरकार ने ‘नया’ बताकर जो प्रस्ताव भेजा है वह कुछ और नहीं बल्कि किसानों के प्रतिनिधिमंडल से 5 दिसंबर के दिन मंत्रियों की हुई बैठक का नया संस्करण भर है.

नौ बिंदुओं वाले नये प्रस्ताव में अनिवार्य वस्तु अधिनियम में हुए संशोधन के बारे में कोई जिक्र नहीं है जबकि किसानों को आपत्ति है कि संशोधनों से जमाखोरी और उपज की कीमतों में सेंधमारी बढ़ेगी. शायद सरकार ने ठान लिया है कि इस कानून में कोई बदलाव नहीं करना है क्योंकि इस कानून से अडानी एग्री लॉजिस्टिक्स सरीखे एग्री-बिजनेस प्लान को मदद मिलेगी. इसी तरह वायु प्रदूषण अध्यादेश में किसानों को दंड देने की जो बात कही गई है उसके बारे में भी सरकार ने नये प्रस्ताव में कोई ठोस बात नहीं कही है, बस एक चलताऊ सी बात कहकर पिंड छुड़ा लिया गया है कि किसानों की आपत्ति पर विचार किया जायेगा. जहां तक इलेक्ट्रिसिटी अमेंडमेंट बिल 2020 का सवाल है सरकार का कहना है कि इससे किसानों के बिजली बिल पर कोई असर नहीं पड़ने वाला लेकिन यह होगा कैसे इसके बारे में चुप्पी साध ली गई है. जाहिर है, फिर किसानों को यकीन कैसे आयेगा.


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सरकार एमएसपी पर गारंटी देने को तैयार नहीं

बड़ा हल्ला है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर प्रस्ताव में ‘छूट’ दी गई है लेकिन प्रस्ताव का यह हिस्सा तो और भी ज्यादा निराशाजनक है. सरकार का प्रस्ताव है कि मौजूदा एमएसपी आधारित उपार्जन प्रणाली के बारे में वह लिखित आश्वासन देने को तैयार है. मतलब बड़ा साफ है किसानों ने एमएसपी की कानूनी गारंटी मांगी है तो सरकार वो देने को राजी नहीं.

स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश थी कि उपज का ड्योढ़ा दाम (C2+50)  देने के लिए उपज की लागत के निर्धारण में व्यापक सोच रखी जाये और बताये गये फार्मूले के हिसाब से एमएसपी का निर्धारण किया जाये. लेकिन स्वामीनाथन आयोग की इस सिफारिश के बारे में भी प्रस्ताव में कोई जिक्र नहीं है. स्पष्ट है कि अभी जो कृषि-उपज की सरकारी खरीद का औना-पौना स्तर है, सरकार उससे इंच भर भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं. इससे किसानों को अपना अपमान महसूस हो रहा है.

कृषि उपज विपणन समिति को किनारे करने वाले कानून (फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रोमोशन एंड फेसिलिएशन) एक्ट) तथा अनुबंध आधारित खेती के मसले पर प्रस्तावित संशोधन में कुछ ठोस बातें (द फार्मर्स (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट) कही गई हैं.

खबरों में आया है कि निजी क्षेत्र की मंडियों पर भी उतना ही शुल्क आयद होगा जितना कि मौजूदा कृषि उपज विपणन समितियों में लगता है लेकिन सरकार के प्रस्ताव में बस इतना भर कहा गया है कि ऐसा करने की शक्ति राज्यों को दी जायेगी. अब राज्यों की सरकारें ऐसा करेंगी या नहीं, ये बात अब भी कोई नहीं जानता. ज्यादातर किसानों की असली जरूरत है कि सरकारी कृषि उपज विपणन मंडियां ज्यादा हों और खूब अच्छी तरह चलें लेकिन प्रस्ताव में इस बात पर कुछ नहीं कहा गया. ना ही प्रस्ताव में किसानों की इस आशंका का ही निवारण किया गया है कि कृषि उपज विपणन मंडियां नये कृषि कानूनों के कारण मटियामेट हो जायेंगी.

इसी तरह, प्रस्ताव में सरकार ने ये तो कहा है कि अनुबंध आधारित खेती को लेकर किसानों में जो यह डर समाया है कि जमीन पर उनका पहले जैसा हक ना रह जायेगा, उसका समाधान होगा लेकिन प्रस्ताव इस बारे में चुप है कि कार्पोरेट के साथ अनुबंध आधारित खेती की बंदोबस्ती के निजाम में किसानों के मोल-भाव करने की कम ताकत से जुड़ी चिंता के निवारण के लिए क्या किया जायेगा. अजरज नहीं कि बातचीत के नये प्रस्तावों को लेकर किसानों को लगने लगा है कि सरकार उन्हें उलझाये रखना चाहती है.

लेकिन मीडिया दोष का ठीकरा किसानों के सिर पर फोड़ने में लगा है. मीडिया में कहा जा रहा है कि सरकार तो इन कानूनों में संशोधन के लिए राजी हो गई है तो फिर किसान इन कानूनों को वापस करवाने की जिद पर क्यों अड़े हुए हैं?

अब मीडिया के इस सवाल के जवाब में किसान बस इतना भर कह सकते हैं कि ‘हम आपके सामने फिर से वह बात कहते हैं जो हम पहले से कहते आ रहे हैं कि हमने संशोधनों की मांग की ही नहीं है. चूंकि हम लोग तीन कृषि कानूनों की मंशा और बुनियादी बनावट से संतुष्ट नहीं हैं, सो हम संशोधन पर राजी नहीं हो सकते, चाहे संशोधन बड़ा हो या छोटा. क्या जिसे आप सौगात बता रहे हैं उसे हम ना नहीं कर सकते? मुद्दा हमारी भलाई का है या फिर प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा और उनकी अहम का’?

या फिर किसान मशहूर क्रांतिकारी, पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश जो खालिस्तानी खाड़कुओं की बंदूक का निशाना बने, की पंक्ति दोहरा सकते हैं कि, ‘बीच का कोई रास्ता नहीं होता’. इतिहास के किसी मोड़ पर, कोई मसला ऐसा भी होता है जिससे होकर गुजरने के लिए कोई बीच का रास्ता नहीं होता और ना ही हमें उस मसले पर ऐसा रास्ता खोजना चाहिए.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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