scorecardresearch
Saturday, 4 May, 2024
होममत-विमतमनमोहन सिंह ने अन्ना आंदोलन को समझने में भारी गलती की और यही गलती मोदी किसानों के मामले में दोहरा रहे हैं

मनमोहन सिंह ने अन्ना आंदोलन को समझने में भारी गलती की और यही गलती मोदी किसानों के मामले में दोहरा रहे हैं

किसानों का आंदोलन पंजाब भर तक सीमित नहीं, इसे सिर्फ एमएसपी से जोड़कर देखना या बिचौलियों का आंदोलन कहकर खारिज करना ठीक नहीं. किसानों की तकलीफ ज्यादा बड़ी और गहरी है.

Text Size:

अपने स्वाद में भदेस एक कहानी चला करती है उत्तर भारत के गंवई इलाकों में. इस कहानी में 99 प्याज और 100 जूतों का जिक्र आता है. कहानी यों है कि एक दफे किसी आदमी को उसकी बदमाशी की सजा देनी थी तो उससे कहा गया कि रास्ते दो ही हैं तुम्हारे पास — चाहे सौ प्याज खा लो या फिर सौ जूते खाओ ! उस आदमी ने सौ प्याज खाने का रास्ता चुना लेकिन 99 प्याज ही खा सका कि उसकी हिम्मत जवाब दे गई. सो, सजा में उसे 100 जूते भी खाने पड़े.

बिल्कुल ऐसा ही हुआ था अन्ना हजारे के आंदोलन से निबटने में लगी यूपीए-2 की सरकार के साथ. पहले तो सरकार ने अनदेखी और दमन का रास्ता चुना लेकिन इस रास्ते पर ज्यादा दूर तक ना चल सकी. और, जो ना चल सकी तो इस ना चलने के मुकाम से सरकार एकदम ही दंडवत की मुद्रा में आ गई. हालत माया मिली ना राम की हो गई. अनैतिक होने की जिल्लत तो झेलनी ही पड़ी, ये भी जाहिर हो गया कि सरकार कमजोर है.

कुछ ऐसा ही नरेंद्र मोदी की सरकार के साथ हो रहा है. बीते दस दिनों में नरेन्द्र मोदी सरकार की चोखी राजनीतिक पैंतरेबाजी एकदम से गायब दिख रही है. ऐसा पहली बार हुआ है. सरकार ने शुरुआत में बड़ी अकड़ दिखायी. उसने किसान-संगठनों से सलाह-मशविरा करने की जरुरत तक ना समझी. ये भी ना हुआ कि उन्हीं किसान-संगठनों से राय-बात कर लें जो उसके अपने कुनबे के हैं. लेकिन, किसान-संगठनों से बिना किसी सलाह-मशविरा के उसने आनन-फानन में देश की खेती-किसानी की दुनिया से जुड़े कानून के ढांचे में भारी-भरकम बदलाव कर दिये.

सरकार ने सारी संसदीय-प्रक्रिया को एक किनारे करने का रास्ता चुना और अध्यादेशों को कानून में बदलने से पहले मसले से जुड़े पक्षकारों से राय-बात करने की मनुहार को एक झटके में खारिज कर दिया. उसने चेतावनी के तमाम संकेतों से आंखें फेर लीं अन्यथा दिख जाता कि देश भर में 9 अगस्त, 24 सितंबर और 5 नवंबर को किसानों ने मसले पर छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शन किये हैं. पंजाब में किसानों की अप्रत्याशित लामबंदी चल रही थी लेकिन सरकार खड़े-खड़े तमाशा देखती रही. और, आखिर को जब पानी ऐन नाक के नीचे तक आ गया तो सरकार ने बेचैनी में हाथ-पांव मारने शुरु किये, उसने तमाम जतन किये कि दिल्ली कूच कर रहे किसान अपनी मंजिल तक ना पहुंच सकें : बैरिकेड लगाये, राह रोकने को रोड़े नहीं एकदम से चट्टानें ही अड़ा दीं, वाटर कैनन से बौछार हुई, टीयर गैस के गोले दगे. लेकिन ये कवायद भी काम ना आयी.

यहां तक कि जब किसान दिल्ली के बार्डर पर आ डटे तो सरकार की प्रतिक्रिया ये रही कि हम बात तो करेंगे लेकिन शर्तों के साथ. ये भी काम ना आया. बाद को बेशर्त बातचीत चली तो सरकार ने फूट डालने, ध्यान भटकाने और गुमराह करने का अपना आजमाया हुआ दांव चला. लेकिन, किसान-नेता इस फंदे में ना फंसे. अचरज नहीं कि दूसरे दौर की बातचीत में भी किसी बात पर सहमति ना बनी. सरकार ने ऐसा अड़ियल रवैया अपना रखा है कि सार्थक संवाद हो पाने की कोई सूरत ही ना निकल पा रही है. सरकार अड़ी हुई है कि वो जहान भर की तमान बातों पर बात कर लेगी लेकिन तीन कृषि-कानूनों को वापस नहीं ले सकती. किसान भी डटे हुए हैं कि वे तीन कृषि-कानूनों को छोड़ और किसी चीज पर बात नहीं करेंगे, इन कानूनों की वापसी से कम और किसी चीज पर किसान राजी नहीं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढें: किसानों की समस्याएं सुलझाने के लिए मोदी सरकार के प्रमुख संकटमोचक बनकर क्यों उभरे हैं राजनाथ सिंह


दुख बड़ा और गहरा है

जैसे मनमोहन सिंह की सरकार अन्ना आंदोलन के स्वभाव और हासिल जन-समर्थन की गहराई को भांपने में असफल रही उसी तरह मोदी सरकार भी किसानों आंदोलन को लेकर गढ़ी जा रही झूठी छवियों के सहारे भ्रम पाल बैठी है जबकि ज्यादातर तो ये छवियां खुद सरकार के पाले के ही स्पिन डाक्टर्स ने रची हैं. यूपीए की सरकार के समय कम से कम मीडिया तो थी जो उसे आईना दिखा सके लेकिन मौजूदा सरकार तो मीडिया के आईने में झांककर अपना चेहरा देखना ही नहीं चाहती, सो उसने आईनो ही को मायावी बना रखा है. किसानों के इस ऐतिहासिक विरोध-प्रदर्शन की कुछ बुनियादी सच्चाइयों से सरकार अगर आंख नहीं मिलाती तो फिर वो ऐसे ही लगातार गलती पर गलती करती रहेगी.

किसानों के ऐतिहासिक विरोध-प्रदर्शन से जुड़ी बुनियादी सच्चाइयों में एक ये है कि आंदोलन सिर्फ पंजाब के किसानों का नहीं है. बेशक,पंजाब के किसान इस आंदोलन में हरावल दस्ते की भूमिका निभाते आ रहे हैं, बाकी इलाकों के किसान आंदोलन के सुर और स्वर में कुछ धीमी गति से जुड़े. लेकिन, 26 नवंबर को हुई नाटकीय घटनाओं ने किसानों के इस विरोध-प्रदर्शन को राष्ट्र के मन-मानस में स्थापित कर दिया है. हरियाणा और उत्तरप्रदेश में बड़े पैमाने पर किसान लामबंद हुए हैं. अब राजस्थान में पंचायत के चुनाव निबट चुके हैं तो उम्मीद बांधी जा सकती है कि लड़ाई के इस मोर्चे से भी आंदोलन को ताकत मिलेगी. कोविड के कारण लगी पाबंदियों की वजह से देश के अन्य हिस्सों से किसान बड़े-बड़े जत्थों में ना आ पाये लेकिन मैं साफ देख पा रहा हूं कि देश के हर कोने से किसान-नेता इस विरोध-प्रदर्शन में आये हैं. जो भी किसान-संगठन संख्या-बल के लिहाज से कुछ अहमियत रखता है, इस आंदोलन को उस संगठन का समर्थन हासिल है. यहां तक कि आरएसएस के खेमे का भारतीय किसान संघ भी आंदोलन को नैतिक समर्थन देने पर मजबूर हुआ है. जाहिर है, किसानों का ये आंदोलन अब राष्ट्रीय आंदोलन बन चला है.

दूसरी बात यह कि ये कोई विपक्षी दलों की शह पर खड़ा किया गया ‘बिचौलियों’ का आंदोलन नहीं है, ना ही इसे ‘खालिस्तानियों’ का समर्थन हासिल है, जैसा कि मीडिया के एक हलके में प्रचारित किया जा रहा है. ये किसानों का आंदोलन है. देश भर के किसान इस आंदोलन से जुड़े हो सकते हैं और नहीं भी. बहुत संभव है कि बहुत से किसानों को ये ना पता हो कि ये आंदोलन किन बातों को लेकर उठ खड़ा हुआ है. लेकिन, किसानों को एक बात बखूबी पता है कि मोदी सरकार किसानों के साथ कुछ ऐसा कर रही है जो बड़ा और बहुत बुरा है.

दिल्ली की सीमा से लगते राज्यों से जो खबरें मिल रही हैं उनसे जाहिर होता है कि आंदोलन को लेकर लोगों में वैसा ही जज्बा जाग उठा है जैसा अन्ना आंदोलन के वक्त : हरियाणा में पंचायतें प्रस्ताव पास कर रही हैं कि हर घर से एक व्यक्ति इस आंदोलन में हिस्सेदारी के लिए जाये, ग्रामीण विरोध-प्रदर्शन के लिए जा रहे किसानों को खाना खिला रहे हैं, सड़क किनारे बने ढाबों की प्रदर्शनकारियों से गुजारिश है कि आईए, हमारे ढाबे पर निशुल्क भोजन कीजिए. शमा कुछ ऐसा बंधा है कि कुछ पेट्रोल पंप्स् विरोध-प्रदर्शन में शामिल होने जा रहे किसानों को मुफ्त डीजल मुहैया कर रहे हैं.

तीसरी बात, ये आंदोलन सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) को लेकर नहीं हैं. बेशक, फसल की तयशुदा कीमत किसानों के लिए बहुत मायने रखती है और एमएसपी की गारंटी से उनकी चिन्ताएं एक हद तक कम होतीं है लेकिन अब मामला इससे बहुत आगे जा चुका है. इस आशय की खबरें आयी हैं कि सरकार किसानों से वादा कर रही है, वो अभी एमएसपी पर जितनी मात्रा में अनाज खरीदती है, उतनी आगे भी जारी रखेगी. लेकिन, अब ये वादा किसानों के दिल में जगह बनाने से रहा. आंदोलन से जुड़ा हर किसान-संगठन इस विचार पर अब अटल हो चुका है कि सरकार तीन कृषि-कानूनों को वापस ले. किसान इससे कम किसी बात पर नहीं मानने वाले. दरअसल बात, तीन कृषि-कानूनों की भी नहीं. याद कीजिए कि लोकपाल आंदोलन के वक्त क्या हुआ था. देश में जो कुछ भी गलत हो रहा था, लोकपाल आंदोलन उन तमाम बातों से विरोध जाहिर करने का मंच बन गया. किसानों के साथ दशकों से छल हो रहा है और ये आंदोलन एकबारगी लोकपाल आंदोलन की ही तर्ज पर किसानों के लिए अपनी तमाम तकलीफों के इजहार का मंच बन गया है.

एक संदेश

हम एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं. प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वे खूब गहरी सांस भरें, जी-हुजूरी में लगे दरबारियों और बयानवीरों से बोलें कि जुबान बंद रखिए और किसानों से कहें : ‘मैं जानता हूं कि आपको तीन कृषि-कानूनों को लेकर कुछ जायज आशंकाएं हैं. मेरी जिम्मेदारी बनती है कि आपकी चिन्ताओं को दूर करुं. और, इसी कारण मैं इन कानूनों को वापस लेता हूं.

क्या वे ऐसा करने का साहस दिखा पायेंगे ? या फिर, उन्हें भी वही कुछ करने का लालच घेरेगा जो ज्यादातर अधिनायकवादी शासकों को घेरते आया है और वे इस आंदोलन को सिरे से कुचल देने की राह पर चल पड़ेंगे ? या कुछ इससे भी ज्यादा बुरा होगा, कोई अघट और अशुभ घटेगा ?


य़ह भी पढ़ें: सरकार की किसान नेताओं के साथ आज होगी पांचवें दौर की बातचीत, नहीं बनी बात तो तेज होगा आंदोलन


(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)

share & View comments