भारतीय समाज को एक ‘अच्छा समाज’ (Good Society) बनाने के लिए किए गए अभूतपूर्व योगदान की वजह से साल दर साल कांशीराम जयंती मनाने का प्रचलन सिर्फ़ भारत में ही नहीं विदेशों में भी बढ़ रहा है. उनका नाम दक्षिणी दुनिया के उन चंद नेताओं में है जिसने सीमित संसाधन के बावजूद, शून्य से अपना सामाजिक-राजनीतिक सफ़र शुरू करके वंचित तबकों को राजनीतिक सफलता दिलायी. कांशीराम की राजनीतिक सफलता ने भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति वंचित तबकों में एक गहरा विश्वास पैदा किया. ‘समता एवं स्वाभिमान के लिए’ के नाम से शुरू किए गए उनके सतत संघर्ष ने भारत में आज़ादी की नींव को और मज़बूत किया.
आजकल भारत में आज़ादी और लोकतंत्र की स्थिति को लेकर जिस तरह की चिंता दुनियाभर में देखी जा रही है, उसने कांशीराम की महत्वता को एक बार फिर बढ़ा दिया है. उन्हें इस रूप में भी याद किया जा रहा है, जिसने उत्तर भारत में ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की आंधी को काफ़ी हद तक रोके रखा था. आज जब अमेरिका और स्वीडन की एजेंसियां भारत को ‘आंशिक आज़ाद’ और ‘सिर्फ़ चुनावी लोकतंत्र’ घोषित कर रहीं हैं, ऐसे में कांशीराम जैसे जननेता को याद किया जाना स्वाभाविक हो जाता है.
भारत में लोकतंत्र और आज़ादी की स्थिति पर चल रही वर्तमान वैश्विक बहस को ध्यान में रखते हुए, इस लेख ‘भारत की आज़ादी’ पर कांशीराम के विचारों पर प्रकाश डालने की कोशिश की गयी है. आज़ादी पर कांशीराम के विचार, अगस्त 1983 में उनके द्वारा सम्पादित ‘द ओप्रेस्ड इंडियन’ के संपादकीय लेख में मिलते हैं.
आज़ादी का मतलब
कांशीराम आज़ादी की उस अवधारणा पर ज़ोर देते हैं, जिसके तहत ‘ख़ुद के शासन को सबसे अच्छा शासन’ बताया गया है. ‘ख़ुद के शासन’ की अवधारणा वैसे तो उन्नीसवीं सदी में आयरलैंड में चले ‘होम रूल लीग’ से निकलकर आयी, लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान दुनियाभर में काफ़ी प्रचिलित हुई थी. भारत में यह अवधारणा ‘स्वराज’ के नाम पर प्रफुल्लित हुई थी, जिसकी शुरुआत बाल गंगाधर तिलक ने किया था, और उसे राजनीतिक जामा महात्मा गांधी ने, तो सामाजिक जामा बाबासाहेब अम्बेडकर ने पहुंचाया था.
कांशीराम जब आज़ादी की अवधारणा को देखते थे, तो उनके विचार अम्बेडकर से प्रभावित होते थे. कांशीराम के हिसाब से आज़ादी का मतलब ‘क़ानून के समक्ष समान अधिकार से वंचितों को वंचित नहीं किया जाना’ रहा है. वह आज़ादी को ऐसी व्यवस्था मानते हैं जहां‘न्याय की जीत’ हो, एवं ग़रीबों अमीरों के बीच में आर्थिक असमनाता की खाईं कम हो.
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वंचितों के लिए आज़ादी
कांशीराम का कहना था कि ‘क़ानून और न्याय के समक्ष सभी के लिए समान व्यवहार का वायदा अंधेरे में कहीं खो गया है’. यह केवल काग़ज़ों में सीमित होकर रह गया है, क्योंकि नौकरशाही एवं न्यायपालिका में बैठे हुए लोग अपनी जाति, सम्प्रदाय, और संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा से बाहर नहीं आ पाए हैं. विदित हो कि बाबासाहेब अम्बेडकर ने संविधान सभा की बहस में भारत में लोकतंत्र की सफलता के लिए लोकसेवकों और लोकशाही के लिए संवैधानिक नैतिकता के होने पर ज़ोर दिया था, जिसका एक मतलब होता है संवैधानिक मूल्यों में विश्वास. संवैधानिक नैतिकता क्या है, इसको परिभाषित करने के लिए आजकल सप्रीम कोर्ट में सुनवायी चल रही है.
कांशीराम के शब्दों में कहा जाए तो जाति, सम्प्रदाय, और संस्कृति में अटूट निष्ठा रखने वाला व्यक्ति संवैधानिक मूल्यों के ख़िलाफ़ ही कार्य करेगा. ऐसे व्यक्तियों के संवैधानिक सस्थाओं पर क़ाबिज़ हो जाने से वंचितों के लिए आज़ादी का सपना अधूरा रह गया.
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कौन है आज़ाद
कांशीराम के अनुसार अंग्रेज़ शासन काल में भारत की हर समस्या के लिए अंग्रेजों को दोषी ठहराया जाता था, और कहा जाता था कि भारतियों के प्रति उनका व्यवहार अच्छा नहीं, वो देश को लूट रहे हैं, एवं आम जनता का शोषण कर रहे हैं. लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद देश की उच्च जातियों ने देश के कारोबार और राजनीतिक सत्ता को अपने हाथ ले लिया, जिससे कि वंचित एवं ग़रीब जनता का शोषण किया जा सके. कांशीराम बताते हैं कि ‘आजाद भारत’ में इन शोषक जातियों का शोषित जनता के प्रति व्यवहार में कोई सुधार नहीं हुआ.
कांशीराम कहते हैं कि भारत में वास्तव में ‘पूंजीवादी, सांप्रदायिकतावादी और सामंतवादी अपनी इच्छाओं को दलितों एवं शोषितों पर थोपने के लिए आज़ाद हैं’. आज़ाद भारत में लगातार पूंजीवादियों की सम्पत्ति में इज़ाफ़ा हुआ है, सांप्रदायिकता बढ़ी है, एवं सामंतों के हमले बढ़े हैं.
कांशीराम के अनुसार जब सामंती ज़मीदारों ने दलितों एवं वंचितों पर हमला किया तो नौकरशाही एवं न्यायपालिका में बैठे हुए लोगों ने अपनी जाति के हमलावरों ने उनका साथ दिया. कमोवेश ऐसा ही कुछ हाल साम्प्रदायिक दंगों में होता रहा है.
कांशीराम भारतीय न्यायपालिका की आलोचना करते हुए बताते हैं कि उसका व्यवहार दलितों-वंचितों के प्रति दोहरा है. जिसकी वजह से अपराधी जब इन समुदायों से होता है तो उसे कड़ी सजा मिलती है, वहीं जब अपराधी उच्च जाति का होता है तो उसे सबूतों के आभाव में छोड़ दिया जाता है, भले ही उसने दलितों वंचितों के नरसंहार को अंजाम दिया है. न्यायपालिका पर कांशीराम की उक्त टिप्पड़ी को आज के परपेक्ष में भी देखे जाने की ज़रूरत हैं, क्योंकि इस समय देश की विभिन्न जेलों में 10 में से 07 व्यक्ति अंडरट्रायल हैं, और उसमें भी 3 में से एक व्यक्ति दलित/आदिवासी है.
आजाद के समय भारत में अफ़सरशाही एवं न्यायपालिका को ग़रीबों वंचितों के मददगार के तौर पर संकल्पित किया गया था, लेकिन कांशीराम के अनुसार के संस्थाएं ख़ुद शोषण और दमन का हथियार बन चुकी हैं.
जन प्रतिनिधियों की असफलता
कांशीराम के अनुसार दलितों एवं वंचितों से चुने जाने वाले जनप्रतिनिधि का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. ऐसे प्रतिनिधि ख़ुद को चुनने वाली जनता से ज़्यादा अपनी पार्टी के प्रति वफ़ादार होते रहे, इसलिए इनके समाज पर अन्याय होने की सूरत में भी नहीं बोले. कांशीराम ने ऐसे जन प्रतिनिधियों के लिए ‘चमचा युग’ नाम की किताब भी लिखा है. आजकल दल बदल क़ानून और राजनीतिक पार्टियों में लोकतंत्र की समाप्ति की वजह से जनप्रतिनिधियों के बोलने का अवसर और कम हुआ है.
ऐसे जंनप्रतिनिधियों से निपटने के लिए उन्होंने वंचितों में ‘स्वतंत्र’ नेतृत्व पैदा करने पर ज़ोर दिया, और जीवन पर्यंत उसके लिए कार्यरत रहे.
(लेखक @arvind_kumar__ रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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