scorecardresearch
Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतकांशीराम का बहुजन आंदोलन सिर्फ राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक भी था

कांशीराम का बहुजन आंदोलन सिर्फ राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक भी था

BSP की घटती हुई राजनीतिक शक्ति का मतलब ये नहीं है, कि बहुजन आंदोलन के लिए सब कुछ ख़त्म हो गया है. कांशीराम जयंती याद दिलाती है, कि जाति-विरोधी आंदोलन आम लोगों के बीच अभी भी जीवित है.

Text Size:

कांशीराम, जो एक करिश्माई बहुजन लीडर थे, मानते थे कि जिस समाज की ग़ैर-राजनीतिक जड़ें मज़बूत नहीं होतीं, वो लाज़िमी तौर पर अपनी राजनीतिक आकांक्षाएं हासिल करने में भी कामयाब नहीं होगा. हालिया राजनीतिक संकटों की वजह से बहुजन समाज पार्टी को ख़ारिज करना आसान है, लेकिन कांशीराम के बहुजन आंदोलन को केवल राजनीतिक समझना एक भारी भूल होगी. उनकी तमाम सभाओं और लामबंदियों का आधार एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान ही था.

कांशीराम का बहुजनों के बीच तर्कसंगत चेतना फैलाने का हेगेलियन आधार, रोज़मर्रा के व्यवहार के ज़रिए ब्रह्मणवाद का पर्दाफाश करने, और जाति-विरोधी जागरूकता फैलाने के उनके प्रयासों में देखा जा सकता है. इसलिए कांशीराम जयंती, जो 15 मार्च को पड़ती है, उन लोगों के दिल में एक ख़ास जगह रखती है, जो ख़ुद को बहुजन समझते हैं. इसका जश्न बहुजन आंदोलन का हिस्सा होने के, उस साझा सांस्कृतिक-राजनीतिक इतिहास की याद दिलाता है, जो 1980 के दशक में शुरू हुआ था.

ये सांस्कृतिक पुन:कल्पना बामसेफ (ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लाई फेडरेशन), डीएस4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) और बीआरसी (बौद्ध रिसर्च सेंटर) में मौजूद थी.


यह भी पढ़ें : आखिर क्यों आज के भारत में कांशीराम के राजनीतिक रणनीति की जरूरत है


तीन स्तंभ

बामसेफ, डीएस4 और बीआरसी को तीन सांस्कृतिक स्तंभ माना जा सकता है, जो बहुजन आंदोनल को उठाए हुए हैं. अपने एक इंटरव्यू में कांशीराम ने कहा कि जहां बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का उद्देश्य राजनीतिक संतुष्टि हासिल करना था, वहीं उसे हासिल करने के लिए अन्य तीन वाहन सबसे महत्वपूर्ण थे (कलेक्टेड इंटरव्यूज़ ऑफ कांशीराम).

बामसेफ के घोषणा पत्र में विभिन्न चिंतन प्रक्रियाओं को एक साथ लाने के लिए, विशेष रूप से एक साहित्यिक विंग बनाने की बात कही गई थी. बहुजन साहित्यिक परंपरा से जुड़ने का प्रयास, दरअसल सामाजिक इतिहास और बहुजन समाज की आनुभविक वास्तविकता को समझने का भी एक प्रयास था. इसी तरह, घोषणा पत्र में बहुजनों के बीच जाति-विरोधी जागरूकता फैलाने के लिए जागृति जत्था बनाने की भी बात की गई.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

सांस्कृतिक प्रस्तुति बामसेफ की सभाओं का एक आवश्यक अंग हुआ करती थी, जिसमें पोस्टर्स, संगीत कार्यक्रम और कविता पाठ शामिल होते थे. बामसेफ की एक सबसे शुरुआती सभा को, जो 17 मई 1980 को दिल्ली के शाहदरा में हुई थी, चलता फिरता आम्बेडकर मेला की थीम दी गई थी, जिसमें एक आर्ट गैलरी में डॉ. आम्बेडकर के जीवन और दर्शन को प्रदर्शित किया गया था. ऐसी त्योहार जैसी परिपाटी से कांशीराम ने बहुजन समाज के लोगों को वैयक्तिक और सामूहिक दोनों स्तरों पर, एक ताने-बाने में बुन दिया. बामसेफ के शुरुआती प्रतिभागी, विभिन्न बामसेफ सभाओं में शिरकत को अभी भी सामूहिक रूप से याद करते हैं.

हरविंदर कौर अपने जुड़ाव को याद करती हैं, ‘बामसेफ के साथ मेरी यादें उस समय की हैं, जब मैं 14 साल की थी. मैंने चंडीगढ़ में बामसेफ की तीसरी सभा में शिरकत की थी और एक पंजाबी गीत गाया था, जो मिशन को समर्पित था’. इसी तरह एक बौद्ध गायिका तरन्नुम बौद्ध ने भी, बामसेफ मंच पर अपने गाए हुए पहले गीत को याद किया, जब वो मुश्किल से तीन साल की थीं. पंजाब के निवासी हरनाम सिंह बहेलपुरी और पूनम बाला का भी, गायकी से बहुत क़रीबी जुड़ाव था, और उन्होंने कांशीराम द्वारा आयोजित बामसेफ की कई सभाओं में परफॉर्म भी किया था. कांशीराम ने ख़ुद ऐसे बहुत से गायकों के कैसेट्स रिलीज़ किए थे.

दलित शोषित समाज संघर्ष समिति या डीएस4, 6 दिसंबर 1981 को लॉन्च की गई थी. इसमें छात्रों, युवाओं और महिलाओं के संघर्ष पर ख़ास ज़ोर दिया गया था. ये सांस्कृतिक विंग पंजाब से शुरू हुई और उत्तर भारत के कई प्रांतों में फैल गई, जिनमें हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश शामिल थे. डीएस4 शुरू करने के पीछे कांशीराम का उद्देश्य था कि बहुजनों को अपनी जाति-विरोधी चेतना को साझा करने का मंच मिल सके. दि ऑप्रेस्ड इंडियन 1982, के अपने एक संपादकीय में, कांशीराम ने कहा कि डीएस4 सबसे बड़ा क़दम है, जिससे 85 प्रतिशत बहुजन मतदाताओं को संगठित करके, राजनीति के लिए तैयार किया जा सकता है, जिससे कि वो नेतृत्व की भूमिकाएं ले सकें.

बौद्ध रिसर्च सेंटर या बीआरसी की स्थापना भी कांशीराम ने ही की थी, और वो हमेशा बौद्ध धर्म को अपनाने के लिए तैयार रहते थे. 2003 में कांशीराम ने घोषणा की थी कि वो और उनकी शागिर्द मायावती 2006 में बौद्ध धर्म अपना लेंगे, जो आम्बेडकर के धर्म परिवर्तन का गोल्डन जुबली वर्ष था. उन्होंने ये भी कहा था कि सिर्फ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में, चमार समाज के धर्म परिवर्तन से, भारत में तीन करोड़ बौद्ध लोग पैदा हो जाएंगे (बहुजन संघटक, 2003).

लेकिन, 9 अक्टूबर 2006 को उनकी मौत के बाद बड़े पैमाने पर धर्मांतरण की उनकी परिकल्पना पर मायावती ने कभी अमल नहीं किया. न ही बीएसपी ने सांस्कृतिक मंच पर काम करने का कोई सामूहिक प्रयास किया, जैसा कि कांशीराम ने किया था. राजनीतिक समर्थन न मिलने की वजह से, बहुत से गायकों और सांस्कृतिक कलाकारों को भुला दिया गया है. इसी तरह, उत्तर प्रदेश में बौद्ध लोगों की आबादी अभी भी एक प्रतिशत से कम बनी हुई है. राजनीतिक शक्ति की अभिलाषा कांशीराम हमेशा रखते थे, लेकिन उन्होंने कभी भी संस्कृति की ताक़त और उसके मज़बूत दावे को नज़रअंदाज़ नहीं किया, जिसे बहुजन लोग बौद्ध धर्म अपनाकर और जातिवादी ब्राह्मणवादी प्रथाओं का भंडाफोड़ करके कर सकते हैं. स्थापित सांस्कृतिक आधिपत्य को ध्वस्त करने की दिशा में ये एक महत्वपूर्ण क़दम होगा.


यह भी पढ़ें : लाइट्स, कैमरा, जाति- हिंदी सिनेमा में आजादी के 38 साल बाद आम्बेडकर की तस्वीरों को जगह मिली


बहुजन की समकालीन सांस्कृतिक प्रथाएं

उन लोगों के दिमाग़ में बहुजन आंदोलन अभी भी ताज़ा है, जो बामसेफ, डीएस4, बीआरसी या बीएसपी के ज़रिए, कांशीराम से जुड़े हुए थे. उन्हें साहेब से मिलने की छोटी-छेटी बातें या उनका इनके घरों पर भोजन के लिए आना, अभी तक याद है. हर 15 मार्च को वो अपने करिश्माई नेता को बड़ी शालीनता से याद करते हैं.

उत्तर भारत में, आधुनिक जाति-विरोध संघर्ष की जड़ें, पीछे स्वामी अच्युतानंद प्रसाद, ललाई सिंह यादव, मंगूराम और कई अन्य तक जाती हैं, हालांकि उनकी पैदा की गई बौद्धिक लहर सराहनीय है, लेकिन ये कांशीराम थे जिन्होंने बहुजन विचार को लोकप्रिय परिकल्पना में परिवर्तित किया. कांशीराम का व्यक्तित्व ऐसा था कि वो तुरंत ही आम लोगों, ख़ासकर बहुजन महिलाओं से जुड़ जाते थे. ऐसी कई महिलाएं थीं जिन्होंने कांशीराम के बहुजन संघर्ष का नेतृत्व किया लेकिन आज उन्हें मुश्किल से ही कोई जानता है. लेकिन कांशीराम आंदोलन से जुड़े हर व्यक्ति की अहमियत को समझते थे. वो अक्सर काडर के सदस्यों के घर चले जाते थे और उनके पास ठहरकर लंबी बातचीत किया करते थे. ये कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वो नीचे से उठे हुए नेता थे, जिनका आम लोगों के साथ एक गतिशील रिश्ता था. वो असली मायनों में एक बड़े नेता थे.

राजनीतिक उपलब्धियों के अलावा, कांशीराम ने उत्तर भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक आइकॉन्स को फिर से सामने लाने में भी एक अहम भूमिका अदा की. कांशीराम जयंती के मौक़े पर ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, डॉ आम्बेडकर, साहूजी महाराज, फातिमा शेख़, बिरसा मुंडा और पेरियार ईवी रामासामी जैसे दलित-बहुजन आइकॉन्स को श्रद्धांजलि पेश की जाती है. इसके लिए उनकी तस्वीरें, दीवार चित्रकारी, कैलेण्डर प्रिंट्स और पुस्तिकाएं आदि बांटी जाती हैं.

इस अवसर पर विभिन्न समूहों द्वारा एक उत्सव भी आयोजित किया जाता है. इसमें कांशीराम के विचारों और उनके संघर्ष पर परिचर्चा होती है, नाटक, गीत और कविता पाठ जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, लोकप्रिय प्रिंट्स और पुस्तिकाएं बांटी जाती हैं, नारेबाज़ी होती है और जुलूस निकाले जाते हैं.

ये वार्षिक उत्सव उन कई उपायों में से एक है, जिनके ज़रिए बहुजन समाज आज एक दूसरे से जुड़ा रहता है, इसके सदस्य एक दूसरे के विचार साझा करते हैं और अपने जाति-विरोधी संघर्ष के अनुभव दूसरों को बताते हैं. एक काउंटर कल्चर के उभरने के लिए ये उत्सव एक नया स्थान है. रूसी दार्शनिक मिखाइल बाख़तिन के कार्निवलस्क में, पुनर्जागरण काल में उत्सवों जैसे सांस्कृतिक स्थानों की अहमियत पर चर्चा की गई है. कांशीराम जयंती की तरह बहुजन उत्सव भी, जाति-विरोधी परिकल्पना के लिए एक नया स्थान है, जो गरिमा और समानता पर अपना दावा जताना चाहता है.

कांशीराम जयंती के मायने और इसकी सांस्कृतिक संभावनाएं

दलित-बहुजन समाज के लिए कांशीराम जयंती का मतलब है एक जाति-विरोधी वैश्विक नज़रिया. ये वो दिन है जब राजनीतिक चेतना जगाने और सार्वजनिक क्षेत्र से जातिवादी प्रथाओं को उखाड़ फेंकने के, साहेब के संघर्ष को याद किया जाता है.

दिलचस्प बात ये है कि बहुजन जैसी वैचारिक श्रेणी, जाति-आधारित दबे कुचले विभिन्न समुदायों को एक जगह ले आई है. बहुजन के विचार की जड़ें संस्कृति में हैं. ये बहुजनवाद, बहुजन आइकॉन्स की याद मनाने, ऐतिहासिक अंतराल और अनुपस्थितियों पर चर्चा करने और संगीत की पुन:कल्पना आदि के माध्यम से प्रकट होता है. संगीत उद्योग ने सीमा आज़ाद के गाए कांशीराम साहेब का आल्हा जैसे गीतों के ज़रिए कांशीराम से जुड़ने की कोशिश की है. उनके गीत में कांशीराम की जीवन गाथा, संगीत की आल्हा शैली के ज़रिए सुनाई गई है, जो उत्तर प्रदेश के इलाक़ों में लेकप्रिय है. अन्य गीतों में राजू भारती का गाया महान नेता कांशीराम और मालती राव का मान्यवर कांशीराम साहेब की याद में आदि शामिल हैं.

कांशीराम के विचारों को लोकप्रिय करने में, शांति स्वरूप बौद्ध द्वारा स्थापित, साम्यक प्रकाशन जैसे प्रकाशन समूहों ने, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसी तरह, एआर अकेला जैसे कार्यकर्ताओं ने भी कांशीराम के भाषणों को संकलित करके, अलीगढ़ स्थित अपने स्वयं के प्रकाशन आनंद साहित्य सदन के ज़रिए उन्हें प्रकाशित किया है.

ऐसे हर एक सांस्कृतिक पहलू ने, जो कांशीराम जयंती जैसे आयोजनों में प्रदर्शित किए गए, बहुजन की सामूहिक यादों को एकत्र करने में अहम भूमिका निभाई है. कांशीराम द्वारा शुरू किया गया बहुजन आंदोलन बहुत अच्छे से रची गई एक योजना थी, जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में फैल गई. हाल के समय में बहुजन आंदोलन भले ही राजनीतिक रूप से कमज़ोर दिखा हो, लेकिन बहुजन विचार अभी भी जीवित है, जिसमें उसके सदस्य ज़मीन तथा सोशल मीडिया, दोनों स्तरों पर फिर से जान फूंक रहे हैं. पूरी संभावना है कि ये फिर से उसी उत्साह और जोश के साथ, राजनीतिक क्षेत्र में वापसी करेगा, क्योंकि बहुजन आंदोलन के साथ लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं, जो उत्पीड़न के खिलाफ लोगों के जीवन भर के संघर्ष से पैदा हुई हैं. सांस्कृतिक मापदंडों के साथ जुड़ने की कांशीराम की परिकल्पना ने, जहां लोग भावनात्मक रूप से आंदोलन के साथ जुड़ सकें, भारत के सामाजिक-राजनीतिक आसमान में बहुजन लीडर के तौर पर उनकी एक बेमिसाल हैसियत सुनिश्चित कर दी है.

(कल्याणी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम्स में पीएचडी स्कॉलर हैं. वो @FiercelyBahujan पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें : कांशीराम और मायावती के दिखाए सपने में उलझ कर रह गए देश के बहुजन


 

share & View comments