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Friday, 26 April, 2024
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हिंदू नागरिकों ने हिंदू वोटर बनने से इनकार कर दिया

इस चुनाव ने एक बार फिर भारतीय राजनीति के एक तथ्य को स्थापित किया है कि हिंदू वोट बैंक जैसी कोई चीज़ होती नहीं है.

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उत्तर भारत के जिन तीन राज्यों में चुनाव हुए हैं, वे साधारण राज्य नहीं हैं. इन राज्यों में बीजेपी पिछले तीन दशकों से सत्ता में आती जाती रही है. ये राज्य आरएसएस के सघन कामकाज के भी इलाके हैं. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो उसकी 15 साल से सरकार थी. राजस्थान में भी उसे 2013 में बहुत ही ज़बर्दस्त बहुमत मिला था.

अगर हम 2014 के लोकसभा चुनाव को देखें तो इन तीन राज्यों में 65 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से 62 सीटें बीजेपी को मिली थीं. राजस्थान में तो 25 में से 25 सीटें बीजेपी के पास थीं. मध्य प्रदेश में 29 में से 27 और छत्तीसगढ़ में 11 में से 10 सीटें बीजेपी के पास थीं. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे बड़ा योगदान एक दूसरे से सटे बीजेपी के इन तीन पुराने गढ़ों का था.

इन तीनों राज्यों में बीजेपी पहले से काफी नीचे उतर आई है.

एक और महत्वपूर्ण बात. ये तीनों राज्य लगभग 90 परसेंट या उससे भी अधिक हिंदू आबादी वाले हैं. मध्य प्रदेश में सिर्फ 6.5 परसेंट, राजस्थान में 9 परसेंट और छत्तीसगढ़ में सिर्फ 2 परसेंट आबादी मुसलमान हैं. मुसलमान इन प्रदेशों में इतने नहीं हैं कि अपने दम पर विधायक जिता लें.


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इसके बावजूद, बीजेपी ने इन राज्यों में बहुत ही सांप्रदायिक चुनाव अभियान चलाया. चुनाव के बीच में ही आरएसएस-विश्व हिंदू परिषद ने बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए राममंदिर का आंदोलन छेड़ दिया. मोहन भागवत से लेकर योगी आदित्यनाथ और अमित शाह तक ने अयोध्या में राममंदिर बनाने के लिए बयान दिए. सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने की भी तमाम तरह कोशिशें की गईं.

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आरएसएस ने मतदान के दौरान ही अयोध्या में एक बड़ा जमावड़ा भी किया और उसके लिए देश भर के कार्यकर्ताओं को जुटाया. बीजेपी नेताओं की तरफ से कई भड़काऊ बयान भी इस दौरान दिए गए. योगी ने ये तक कहा कि ‘कांग्रेस को अली चाहिए और बीजेपी को बजरंग बली.’ इसी दौरान 3 दिसंबर को बुलंदशहर में बजरंग दल के लोगों के जुलूस ने हिंसा भी की. गाय का सवाल भी इस बीच उबलता रहा. अलवर में गाय के नाम पर हत्या की एक चर्चित घटना हो चुकी है. बीजेपी ने इस दौरान सांप्रदायिक तापमान बढ़ाने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया.

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात से बहुत पहले राजस्थान और अविभाजित मध्य प्रदेश आरएसएस के हिंदुत्व की प्रयोगशाला रहे हैं. बाकी कई राज्यों और केंद्रीय स्तर से पहले इन राज्यों में स्कूल के टेक्स्ट बुक बदले जा चुके हैं और उन्हें आरएसएस के एजेंडे के मुताबिक बनाए जा चुके हैं. वहां सभी धर्म के स्टूडेंट्स पर सूर्यनमस्कार अनिवार्य रूप से थोपा जा चुका है. इन राज्यों में आदिवासियों को सरना धर्म से बदलकर हिंदू बनाने के लिए आरएसएस के वनवासी कल्याण आश्रम बड़ी संख्या में सक्रिय हैं. धर्म परिवर्तित आदिवासियों की घर वापसी और शुद्दिकरण में भी आरएसएस से जुड़े संगठन यहां सक्रिय हैं. गाय के नाम पर हिंसा भी यहां खूब हुई है. अलवर का चर्चित पहलू खान हत्याकांड इसका उदाहरण है. तो इन राज्यों में सांप्रदायिकता भड़काने के लिए बीजेपी-आरएसएस ने कोई कसर नहीं छोड़ी है.

सांप्रदायिक रूप से इतने गरम माहौल में 90 फीसदी से ज़्यादा हिंदू आबादी वाले तीन उत्तर भारतीय राज्यों में बीजेपी अगर अच्छा नहीं कर पाई, तो इसका गंभीर राजनीतिक मतलब है. यहां बीजेपी के बुरे प्रदर्शन का मतलब है कि उसे हिंदुओं का पर्याप्त समर्थन नहीं मिला है. सवाल उठता है कि जिन राज्यों में आरएसएस का इतना पुराना आधार है और आरएसएस के एजेंडे पर सरकारें चलती रही हैं, वहां के मतदाताओं ने बीजेपी पर इस बार भरोसा क्यों नहीं किया?

हिंदू वोट बैंक जैसी कोई चीज़ नहीं होती

इस चुनाव ने एक बार फिर भारतीय राजनीति के एक तथ्य को स्थापित किया है कि हिंदू वोट बैंक जैसी कोई चीज़ होती नहीं है. अगर देश में हिंदू वोट बैंक होता तो लगभग 78 फीसदी हिंदू आबादी वाले भारत में हमेशा हिंदू महासभा, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की सरकार होती.

हिंदू जब हिंदू होता है उसी समय पेशे के आधार पर वह किसान, सरकारी कर्मचारी, मज़दूर, अफसर, छात्र, दुकानदार वगैरह होता है और उनके तबकाई हित अलग अलग होते हैं. उसी तरह एक हिंदू अपने धर्म को मानते हुए किसी न किसी जाति का होता है. वह दलित, या ओबीसी या सवर्ण या आदिवासी होता है. और ये समुदाय और इन समुदायों के अंदर की हज़ारों जातियों का राजनैतिक व्यवहार अलग अलग होता है. ये आपस में संघर्षरत समुदाय हैं, उनके राजनीतिक हित अलग अलग हो सकते हैं और इनके बीच प्यार और नफरत का अलग अलग स्तर काम करता है. इसके अलावा हिंदुओं में अलग अलग राजनीतिक विचारधाराएं भी हैं. किसी भी मायने में हिंदू एक एकीकृत वोटिंग ब्लॉक नहीं है.


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बीजेपी की कोशिश होती है कि सांप्रदायिक तापमान बढ़ाकर हिंदुओं के बीच के मतभेदों को पाट दें ताकि सभी हिंदू नागरिक हिंदू वोटर बन जाएं. ये रणनीति कई बार कामयाब भी हो जाती है. नरेंद्र मोदी को जब बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया तो गुजरात हिंसा की विरासत के कारण 2014 का चुनाव काफी ध्रुवीकृत माहौल में हुआ. इसके साथ विकास के नारे और कांग्रेस पर चिपके भ्रष्टाचार के दाग का असर भी चुनावों पर हुआ.

लेकिन जब किसी राज्य में और केंद्र में एक ही पार्टी की सरकार हो तो उसके लिए परफॉर्म करने की ज़िम्मेदारी होती है. वह अपनी कमियों और खामियों के लिए किसी को, खासकर विपक्ष को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकती.

यहां से बीजेपी कहां जाएगी?

इन तीन राज्यों के चुनाव से पहले भी बीजेपी उत्तर प्रदेश और बिहार में सारे उपचुनाव हार चुकी है. वह यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट गोरखपुर और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या की सीट फूलपुर में लोकसभा उपचुनाव हार गई. इसके अलावा बीजेपी कैराना लोकसभा उपचुनाव भी हार गई, जहां हिंदुओं के कथित पलायन की ‘खबरों’ के कारण सांप्रदायिक माहौल काफी गर्म था. ये तीनों ही हिंदू बहुल सीटें हैं और यहां हिंदुओं ने राजनीतिक हिंदू बनने से इनकार कर दिया.

ऐसी स्थिति में बीजेपी पर इस बात का अंदर से काफी दबाव होगा कि वह राममंदिर के मामले में कोई निर्णायक कदम उठाए और हिंदुओं को राजनीतिक हिंदू और हिंदू वोटर बनाए. इसके लिए आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद ने दबाव काफी बढ़ा दिया है. ये संगठन सवाल पूछ रहे हैं कि केंद्र और उत्तर प्रदेश में इतने प्रचंड बहुमत के बावजूद अगर राममंदिर नहीं बनेगा तो कब बनेगा.

योगी आदित्यनाथ ने यह कहकर बीजेपी के राष्ट्रीय नेताओं पर दबाव बढ़ा दिया है कि अगर बात उनके हाथ में होती तो राममंदिर बनाने का काम 24 घंटे में शुरू हो जाएगा. ये बयान उन्होंने स्पष्ट रूप से नरेंद्र मोदी और अमित शाह को निशाने पर रखकर दिया है. बीजेपी-आरएसएस का ये धड़ा तर्क दे रहा है कि बीजेपी अगर राममंदिर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाती है तो, उसके कार्यकर्ता निराश होंगे और इसकी कीमत चुनावों में चुकानी होगी.

हिंदू भारत में चुनावी झटका खाने के बाद, आने वाले दिनों में बीजेपी के लिए सबसे बड़ा सवाल यही होगा कि वह राममंदिर पर क्या करेगी और क्या योगी आदित्यनाथ की राजनीति नरेंद्र मोदी की राजनीति पर हावी हो जाएगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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