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Monday, 22 April, 2024
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बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन आरएसएस को क्यों याद आए आंबेडकर?

आश्चर्यजनक रूप से आरएसएस ने आज यानी छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद विध्वंस को याद नहीं किया. कहना मुश्किल है कि आरएसएस ने ऐसा क्यों किया?

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छह दिसंबर को भारतीय कलेंडर में दो बड़ी घटनाएं दर्ज हैं. इस दिन 1956 को भारतीय संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. बीआर आंबेडकर की मृत्यु हुई थी और उनके अनुयायी इस दिन को बाबा साहेब महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाते हैं. 1992 में इसी दिन आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं की भीड़ ने बीजेपी के प्रमुख नेताओं की उपस्थिति में अयोध्या शहर में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया, क्योंकि उन्हें बताया जा रहा था कि राम का जन्म ठीक इसी जगह हुआ था. आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के समर्थक इस दिन को शौर्य दिवस के रूप में मनाते हैं.

आश्चर्यजनक रूप से आरएसएस ने आज यानी छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद विध्वंस को याद नहीं किया. बल्कि बाबा साहेब को याद करते हुए अपनी साइट और फेसबुक पेज पर एक लंबा आलेख छापा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने ट्विटर अकाउंट पर राम मंदिर निर्माण की बात करने के बजाय बाबा साहेब को कोटि कोटि नमन किया है. साथ ही उन्होंने एक वीडियो भी पोस्ट किया है जिसमें वे बाबा साहेब के बारे में बोलते और उन्हें याद करते दिख रहे हैं.

कहना मुश्किल है कि आरएसएस ने ऐसा क्यों किया?

इसकी दो व्याख्याएं हो सकती हैं. एक, या तो आरएसएस को अपनी गलती का एहसास हो गया है कि उसने बाबा साहेब के महापरिनिर्वाण के दिन बाबरी मस्जिद को गिराकर गलती की है. इसलिए उसने छह दिसंबर को शौर्य दिवस जैसा कुछ नहीं मनाया.

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दो, आरएसएस को मालूम है कि बाबरी मस्जिद गिराकर और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाकर उसने उग्र हिंदू वोट को अपने पाले में कर लिया है. अब उसे जिन लोगों को जोड़ने की जरूरत है वो हैं दलित और ओबीसी. इसलिए उसने बाबा साहेब को लेकर ढेर सारे कार्यक्रम शुरू किए हैं. बाबा साहेब के जीवन से जुडे स्थलों को केंद्र सरकार पंच तीर्थ के रूप में विकसित कर रही है और बीजेपी-आरएसएस के नेता बार-बार बाबा साहेब का नाम लेते हैं.


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इसमें से दूसरी संभावना ज्यादा प्रबल है क्योंकि लगता नहीं है कि आरएसएस को किसी भूल का एहसास हुआ है और वह प्रायश्चित कर रहा है.

आइए पढ़ते हैं कि आरएसएस ने आज बाबा साहेब के बारे में क्या लिखा है. ये बाबा साहेब के बारे में बेहद सेलेक्टिव किस्म का लेखन है. फिर भी इसे पढ़ा जाना चाहिए –

अंत्तोदय के पुरोधा डॉ भीम राव अंबेडकर

आज समाज सुधारक और राजनीतिज्ञ भीमराव अंबेडकर की पुण्यतिथि है. उन्हें बाबा साहेब के नाम से जाना जाता है. वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री और भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार थे. 14 अप्रैल 1891 को जन्में बाबा साहब को सिर्फ संविधान निर्माता तक समेटना मुश्किल है. वे ऐसे इंसान थे, जिन्होंने सदियों से जाति और वर्ण व्यवस्था में फंसे भारत को इनसे परे सोचने को मजबूर किया. और इसी सोच के बूते अंबेडकर की जिंदगी में ऐसे कई पड़ाव आए जो उन्हें भारत रत्न तक ले गए.

मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव में जन्में डा. भीमराव अंबेडकर के पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का भीमाबाई था. अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान के रूप में जन्में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्य करते थे और उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे. भीमराव के पिता हमेशा ही अपने बच्चों की शिक्षा पर जोर देते थे. 1894 में भीमराव अंबेडकर जी के पिता सेवानिवृत्त हो गए और इसके दो साल बाद, अंबेडकर की मां की मृत्यु हो गई. बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की. रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों में जीवित बच पाए. अपने भाइयों और बहनों में केवल अंबेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुये.

अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम “अंबावडे” पर आधारित था. वह एक महान शिक्षक, वक्ता, दार्शनिक, नेता बन गए और इस तरह के कई अधिक पुरस्कार अर्जित किए. इसके अलावा वह भारत में कॉलेज शिक्षा प्राप्त करने वाले अपनी जाति में पहले व्यक्ति थे, क्योंकि अछूतों को शिक्षा पाने की अनुमति नहीं थी, उन्हें मंदिरों में पूजा करने की अनुमति नहीं थी, उन्हें ऊंची जाति के लोगों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले स्रोत से पानी पीने की अनुमति नहीं थी.

स्कूल में पढ़ाई करते समय भी उन्होंने इस तरह के सभी भेदभावों का सामना किया था. लेकिन भारत में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद एक संघर्ष की सच्ची भावना के साथ वह आगे के अध्ययन के लिए लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स गए और एक महान वकील बन गए. वह एक स्वनिर्मित व्यक्ति का सच्चा उदाहरण हैं जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सभी बाधाओं के खिलाफ इतनी मेहनत कर रहे थे. अपने अंत के करीब उन्होंने बौद्ध धर्म को ज्ञान, नैतिकता और मानवता की रक्षा के लिए अपनाया. इसके अलावा उन्होंने पता लगाया कि महार लोग वास्तव में बौद्ध थे जिन्होंने एक समय बौद्ध धर्म को छोड़ने से मना कर दिया था. इस वजह से उन्हें गाँव के बाहर रहने के लिए मजबूर किया गया था, और समय के साथ वे एक अछूत जाति बन गए. उन्होंने ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नामक पुस्तक भी लिखी थी.

चूंकि बाबासाहेब एक तथाकथित अछूत जाति से थे इसलिए उन्हें पता था कि जब लोग आपकी किसी भी गलती के बिना आपके साथ भेदभाव करते हैं तो कैसा महसूस होता है. उन्होंने भारत में ऐसे सामाजिक मुद्दों को हटाने में एक महान काम किया. अछूतों का उत्थान करने के लिए बहिष्कृत हितकरिणी सभा उनकी तरफ से पहला संगठित प्रयास था. वह उन्हें बेहतर जीवन के लिए शिक्षित करना चाहते थे. इसके बाद कई सार्वजनिक आंदोलन और जुलूस उनके नेतृत्व के तहत शुरू किए गए थे जो समाज में समानता लाने के लिए थे.

उन्हें स्वतंत्र भारत के पहले कानूनमंत्री के रूप में चुना गया और संविधान प्रारूपण समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था. उनकी भूमिका भारत के लिए एक नया संविधान लिखना था. समाज में समानता लाने के लिए ध्यान में रखते हुए उन्होंने अछूतों के लिए महान कार्य किया. इसके लिए धर्म की स्वतंत्रता को संविधान में परिभाषित किया गया था. उन्होंने भारत में अछूतों और उनकी स्थिति को ध्यान में रखते हुए आरक्षण की व्यवस्था बनाई. उन्होंने भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार के काम किये . इतना ही नहीं, बल्कि 1934 में भारतीय रिजर्व बैंक की रचना भी बाबासाहेब के विचारों पर आधारित थी जिसे उन्होंने हिल्टन युवा आयोग को प्रस्तुत किया था. वह अपने समय के एक प्रशिक्षित अर्थशास्त्री थे और यहाँ तक कि अर्थशास्त्र पर बहुत पुस्तकें भी लिखी थीं. अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा था कि अंबेडकर अर्थशास्त्र में उनके पिता हैं.

डॉ. बी आर अंबेडकर वास्तव में एक दलित नेता के बजाय एक राष्ट्र निर्माता और एक वैश्विक नेता थे. उन्होंने सामाजिक न्याय के सिद्धांत दिए थे. बाबासाहेब उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने भारत निर्माण इसके शुरुआती दिनों में किया था. वे भारत को मुक्त कराने के लिए लड़े और फिर अपने सपनों का भारत बनाने की कोशिश की. बाबा साहेब ने अपने जीवन की अंतिम सास 6 दिसंबर 1956 को ली. बाबा साहेब की प्रासंगिता आज के दौर में उनके विचारों की उपयोगिता से आंकी जा सकती है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आज भारत को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा और आगे बढ़ने के लिए उनके जैसे महान नेताओं की जरूरत है.

(आरएसएस के फेसबुक पेज से)


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