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Saturday, 21 December, 2024
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दिल्ली को प्रदूषण संकट से बचाना है तो आदिवासियों से सीखें

दिल्ली और आसपास की आबोहवा खराब है. इसकी एक बड़ी वजह आस-पास के राज्यों में किसानों द्वारा धान की फसल की खूंट या पराली को जलाया जाना है. क्या है इसका समाधान?

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यह धान कटाई का मौसम है. पंजाब, हरियाणा सहित उत्तर भारत में फसल की कटाई चल रही है. धान भारतीय उपमहाद्वीप और पूर्वी एशियाई देशों की प्रमुख फसल है और चावल यहां की आबादी की एक मुख्य खुराक. इसलिए अधिकतर इलाकों में धान पकने और कटने का मौसम खुशियों की सौगात लेकर आता है. इस मौसम में कई त्यौहार होने की एक वजह इस दौरान धान की कटाई और घरों में नई फसल का आना है.

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से धान की कटाई पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए तबाही का मौसम बन गया है. दरअसल धान की मशीनों से कटाई के बाद खेतों में उसके पौधों का एक हिस्सा रह जाता है. देश के अलग-अलग हिस्से में इसे खूंट, पुआल या पराली कहते हैं. उन्हें हटाए बिना खेतों में नई फसल नहीं बोई जा सकती. इस वजह से किसान इसे जलाकर खेतों को अगली फसल के लिए तैयार करते हैं.


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पराली के धुएं से घुटता है दिल्ली का दम  

पराली जलाए जाने से उठने वाला धुआं दिल्ली और आस पास के इलाकों में कहर बनकर छा जाता है. ये लोगों के लिए सांस लेने को दूभर बना रहा है. हजारों लोग इस मौसम में भीषण प्रदूषण की वजह से बीमार हो रहे हैं. वायु प्रदूषण के कारण 2017 में दिल्ली में स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी करना पड़ा था. सड़कों पर घने कोहरे की वजह से इस मौसम में दुर्घटनाएं बढ़ जाती हैं.

दरअसल धान के जले खूंट का धुआं आकाश की तरफ बढ़ता है और कोहरे के साथ मिल कर घनीभूत हो जाता है. हवा की गति से वह दिल्ली पहुंचता है और वहां वाहनों से निकले धुएं और बेतरतीब होते निर्माण कार्य से उठते गर्द से मिल कर दिल्ली को एक ऐसे गैस चैंबर में बदल देता है जिसमें दिनों दिन जीना मुहाल होता जा रहा है.

उसके बाद शुरू होती है राजनीति और इस संकट से बचने के आधे-अधूरे फौरी उपाय. हरियाणा-पंजाब में खूंट या पराली को जलाने को रोकने का फरमान, पराली काटने के लिए मशीनों का इस्तेमाल, दिल्ली में इस साल 4 से 15 नवंबर तक ऑड-इवेन का प्रयोग, बड़े वाहनों को दिल्ली के बाहर रोकने की कवायद, मुंह नाक पर मास्क लगाना आदि-आदि. लेकिन इससे संकट कम नहीं होता.

बहु-फसली खेती से उपजी है ये समस्या

दरअसल, इस समस्या को कृषि-विकास के संकट के रूप में देखने की जरूरत है. ये मामला किसानों के स्वार्थी होने या लापरवाह होने का नहीं है. पंजाब और हरियाणा के ज्यादातर लोग खेती पर निर्भर हैं. वहां के लोग किसी जमाने में मुख्य रूप से गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का और काले चने की खेती करते थे और यही उनका मुख्य आहार भी था. फिर आया हरित क्रांति का दौर, जिसने पूरे देश में किसानी को थोड़ा-बहुत प्रभावित किया, लेकिन जिसने पंजाब-हरियाणा की किसानी को पूरी तरह बदल दिया. जिस पंजाब में धान की खेती नहीं होती थी, वो पंजाब-हरियाणा इस नई फसल की खेती करने लगे. गेहूं की फसल का रकबा भी बढ़ा. इसका लाभ ये हुआ कि देश अनाज उत्पादन में आत्म निर्भर हो गया. साथ ही पंजाब-हरियाणा में संपन्नता भी आई.

नई फसलों के लिए हरित क्रांति के दौर में पंपिंग सेटों की मदद से भूमिगत जल का भीषण दोहन शुरू हुआ, साथ ही बहु-फसल का प्रचलन और इसके लिए बड़े पैमाने पर मशीन, रासायनिक खाद, कीटनाशकों और बाहरी बीजों का प्रयोग शुरू हुआ. पंजाब-हरियाणा में धान की रोपनी तो हाथ से होती है, लेकिन कटनी मशीन से होने लगी. गेहूं की तो रोपनी और कटनी दोनों मशीन से होने लगी. मशीनें खरीदने के लिए सरकार ने सब्सिडी दी, वहीं बैंकों ने आसान शर्तों पर कर्ज दिये.

मवेशी पर निर्भर नहीं रही पंजाब-हरियाणा की खेती

परिणाम यह भी हुआ कि पंजाब-हरियाणा में अब खेती के लिए मवेशी पालने की जरूरत नहीं रही. मशीनों की वजह से कृषि क्षेत्र में मिलने वाला रोजगार भी कम हुआ. पहले लोग खुद खेतों में श्रम करते थे. अब बड़े किसानों की खेती पूरी तरह अन्य राज्यों से आए मजदूरों पर निर्भर हो गई. खासकर पंजाब में खेती से मुक्त लोगों ने विदेशों का रुख किया. उस रास्ते भी पंजाब में पैसा आया.

बहु-फसली खेती का दबाव यह है कि धान की खेती के 15-20 दिन बाद ही गेहूं की बुआई शुरू करनी पड़ती है. लेकिन धान की फसल की कटाई जिस हार्वेस्टर मशीन से होती है, वह लगभग एक फीट ऊपर से धान काटती है. आम तौर पर धान का पुआल मवेशियों के खाने के काम आ जाता है. लेकिन पंजाब में अब मवेशी उतने रहे ही नहीं. इसके अलावा रासायनिक खादों के प्रचुर प्रयोग की वजह से पराली में सिलिका की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि उन्हें मवेशियों को खिलाया नहीं जा सकता.

यह कितना बड़ा संकट है, उसे आप इस तरह समझ सकते हैं कि पंजाब में करीबन दो करोड़ टन खूंट या पराली निकलती है. किसानों को इससे बेहतर उपाय नहीं दिखता कि इन खूंटों को खेतों में ही जला कर आनन-फानन गेहूं की बुआई के लिए खेत तैयार करें. इसलिए सरकार व कोर्ट के दिशा निर्देशों का उल्लंघन कर भी पराली/खूटों को खेत में जलाते हैं जो भयानक पर्यावरण संकट का सबब बन जाता है. हालांकि ऐसी नई मशीनें आई हैं जो धान की फसल को और नीचे से काटती हैं, लेकिन वे महंगी हैं और कर्ज में पहले से डूबा किसान उसे झेलने के लिए तैयार नहीं.

आदिवासियों की खेती के प्रति दृष्टि  

क्या इस समस्या का कोई समाधान आदिवासी इलाकों में की जा रही खेती की पद्धति में है? मिसाल के लिए, झारखंड के आदिवासी परंपरागत खेती करते हैं. वे जहां तक हो सके रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं करते. रोपनी, कटनी सब कुछ हाथों से होती है. हालांकि यहां भी अब ट्रैक्टर दिखने लगे हैं. उन्हें इस बात की जल्दी नहीं रहती है कि तुरंत कोई दूसरी फसल लगा देनी है. वे खुद श्रम करते हैं. इसलिए श्रम के बाद के कुछ महीने विश्राम भी करते हैं. खुद को भी और धरती को भी विश्राम देते हैं. हर घर में मवेशी पालने का रिवाज है. इससे हल खींचने के लिए पशु मिल जाते हैं और साथ में दूध भी मिलता है. गोबर का इस्तेमाल खाद की तरह हो जाता है.

यह सही है कि एक वर्ष में एक फसल लगाने या रासायनिक खादों व मशीनों के कम प्रयोग से उनकी आर्थिक स्थिति पंजाब के किसानों जैसी अच्छी नहीं, लेकिन वे प्रकृति की तबाही का कारण नहीं बनते.


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दरअसल खेती को लेकर संतुलित दृष्टि अपनाए जाने की जरूरत है. अनाज की बढ़ती जरूरत के कारण खेती के तरीके दुनिया में बदले हैं. आधुनिक खेती किए बगैर बढ़ती आबादी का पेट भर पाना शायद संभव नहीं है. लेकिन इस मामले में एक संतुलन की जरूरत है. खासकर इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि पंजाब-हरियाणा पर देश की आबादी के एक बड़े हिस्से का पेट भरने का दबाव क्यों है? क्या इस बोझ का सम्यक बंटवारा संभव है? साथ ही क्या आदिवासियों के खेती करने के तरीके से कुछ सीखा जाना चाहिए. खासकर वे ये सिखा सकते हैं कि प्रकृति के साथ संतुलित रिश्ता बनाकर कैसे जीवन चल सकता है. क्या आदिवासियों के खेती करने के तरीके के साथ आधुनिक खेती के कुछ तत्वों को इस तरह से समायोजित किया जा सकता है कि उपज बढ़ जाए और प्रदूषण भी न फैले?

भारत के कृषि विज्ञानियों को इस दिशा में काम करने की जरूरत है.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है, यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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