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Tuesday, 26 March, 2024
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दुनियाभर के वैज्ञानिकों को मूलनिवासियों से इंसान की बची सांस बचाने की आस

प्रकृति को बचाने के लिए हम कैसे रहते हैं और हम प्रकृति के बारे में कैसे सोचते हैं, इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है.

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‘कुदरत के बचे हुए खजाने को अब मूल निवासी ही बचा सकते हैं, जो दूरदराज के इलाकों में रहते हैं. जो विनाशकारी औद्योगिक खेती से होने वाले नुकसान की जद में नहीं आए हैं. ये समुदाय प्रकृति की रक्षा करना जानते हैं, कई बार वैज्ञानिकों से भी बेहतर. ’

‘अंतरसरकारी विज्ञान नीति मंच’ की ओर से किए गए अध्ययन में ये बात वैज्ञानिकों ने धरती के आसन्न संकट को समझाकर कही है. पृथ्वी पर जीवन की स्थिति का आकलन करने के लिए ये अभी तक का सबसे बड़ा अध्ययन है. जिसमें 50 देशों के 500 से ज्यादा वैज्ञानिक शरीक हुए. साझे अध्ययन को आठ हजार पन्नों में दर्ज किया गया है, जिसमें बताया गया है कि कैसे दस लाख प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं. मानव आबादी के लिए भोजन और पेयजल की किल्लत का क्या आलम हो सकता है.

आधुनिक तकनीक और उपकरणों से लैस वैज्ञानिक मूलनिवासियों के जीवन और मूल्यों को लेकर हैरान हैं. उनका कहना है कि पुरानी संस्कृतियों, जैसे अमेरिका के मूल निवासियों में ऐसे मूल्य हैं जो प्रकृति की रक्षा करते हैं. खतरे को मय सबूत भांपकर वैज्ञानिक कह रहे हैं कि समय को वापस तो नहीं कर सकते, लेकिन हम उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं. हालांकि, ये समुदाय भेदभाव, खतरों और हत्या की आशंकाओं से घिरे हुए हैं.


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इस सच्चाई को भारत के आदिवासी से बेहतर फिलहाल कौन समझ सकता है. कारपोरेट खनन के लिए उनके गांवों को जलाना, हत्याएं, बलात्कार, क्रूरतम प्रताड़नाए सर्वोच्च न्यायालय में भी साबित हो चुकी हैं, लेकिन मनमानी फिर भी जारी है. इसका अंदाजा छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पूर्वोत्तर के राज्यों में खनन के लिए आदिवासी समुदाय को खदेड़ने की कोशिशों से लगता है.

चित्रों के जरिए समझाने की कोशिश कि कैसे विलुप्त हो रही हैं प्रजातियां

दुनिया भर में वन्यजीवों और लोगों के लिए विनाशकारी प्रभाव के साथ भूमि और वन नष्ट किया जा रहा है. दुनिया को ताड़ का तेल स्नैक्स और सौंदर्य प्रसाधनों की खातिर मुहैया कराने को मलेशिया, इंडोनेशिया और पश्चिम अफ्रीका में जंगलों को बर्बाद किया जा रहा है. ब्राजील के वर्षावन की विशाल पट्टी में सोयाबीन उत्पादन और मवेशी फार्म बनाने के नाम पर मंजूरी दी जा रही है. दक्षिणपंथी लोकलुभावन नारों की आड़ में प्राकृतिक वन संपदा पर डाका डाला जा रहा है. बाधा बनने वाले आदिवासी समुदायों को बलपूर्वक हटाने को फौजें तैनात कर दी गई हैं, जिसका नतीजा युद्ध जैसा हो गया है. भारत के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ये माओवाद-नक्सलवाद के नाम पर प्रचारित है.

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मूलनिवासियों पर निशाने की वजह

भारत सरकार की मौजूदा वर्ष की ऊर्जा सांख्यिकी रिपोर्ट बताती है कि झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र में देश का 98.26 प्रतिशत कोयला है. जिसमें अकेले झारखंड में 26.06 प्रतिशत झारखंड का हिस्सा है. इसके बाद उड़ीसा के हिस्से में लगभग 25 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में तकरीबन 18 प्रतिशत कोयले का खजाना है. देश के पास कुल लगभग 320 बिलियन टन कोयले का रिजर्व है. इसी तरह कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस भंडार असम, आंध्रप्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, राजस्थान समेत कुल 575 मिलियन टन है, जिसमें अकेले असम के हिस्से में 27 फीसद आता है. अब इन राज्यों पर नजर डालिए. यहीं पर तो सबसे ज्यादा आदिवासी हैं, जिन्होंने इस संपदा को अपने जनजीवन से सहेजकर रखा. यही कारपोरेट की बाधा हैं. इन्हीं जगहों पर देश के सुरक्षाबल सबसे ज्यादा युद्धरत हैं.


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ऐसा होने की बड़ी वजह भारत के शासकों की पौराणिक समझ भी है. सभी कथाओं में उनके देवता जिन असुरों से लड़े हैं, वे इन्हीं जंगलों में पाए जाते हैं. रामचरित मानस में दंडकारण्य के जंगल में राम और लक्ष्मण जिन असुरों के वध करते दर्शाए गए हैं, वे असल में यही समुदाय हैं और जंगल का क्षेत्र भी वही है-दंडकारण्य.

आदिवासी असुर जाति जो आज दशहरा पर अपने समुदाय के नायक की हत्या का सालाना जश्र मनाने का विरोध कर रही है और प्रकृति से प्रेम के लिए ‘सरदुल उत्सव’ मनाती है. अभी 17 मई को ही उन्होंने जंगल में ये उत्सव मनाया. उनके लिए जंगल के पेड़, पशु, नदी देवता हैं. उनके देवताओं का सीना चीरने को भारत सरकार ने कारपोरेट समूहों को छूट दी है. गैर आदिवासी किसानों के बेटों की बटालियनें आदिवासियों को तबाह करने को तैनात हैं. प्रतिरोध और प्रतिशोध में सैनिकों की भी जान जाती है.

कारपोरेट की साजिशों से तबाह हो रही पारिस्थितिकी

पर्यावरण रक्षा के नाम पर कारपोरेट के दुमछल्ले एनजीओ आदिवासियों को पर्यावरण नष्ट करने का कारण बताकर उछलते-कूदते हैं, अदालतों के जरिए उन्हें बेदखल करने की साजिशें रचते हैं. हकीकत ये है, सीमित सीमा तक जंगलों की निकासी प्रजातियों को कमजोर नहीं करती है. बल्कि हद से ज्यादा तबाही जैव विविधता और फिर पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट कर देती है, जो कारपोरेट के हाथों हो रहा है.

डाउन टू अर्थ’ की रिपोर्ट के मुताबिक उड़ीसा के आदिवासी गांवों में अध्ययनों से पता चला है कि लोग जंगलों से 357 प्रकार के खाद्य पदार्थों को हासिल करते हैं. बगैर जंगलों को सहेजे वे सदियों से ऐसा कैसे कर पाए! वहीं केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने क्या किया? वर्ष 2017-18 में जैव विविधता संरक्षण के लिए 30 करोड़ रुपये उपलब्ध कराए थे, जो 2018-2019 में केवल 14 करोड़ रुपये रह गया. जबकि कृषि फसलों में पाई जाने वाली आनुवंशिक विविधता का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा पिछली सदी में खत्म हो गया. आज 90 प्रतिशत ऊर्जा और प्रोटीन केवल 15 पौधों और 8 जानवरों की प्रजातियों से आता है.

विकास के नाम पर सिर्फ विनाश की इबारत

एक अन्य रिपोर्ट बताती है कि उष्णकटिबंधीय एशिया में, कुल वनों का 65 प्रतिशत विशेष रूप से बांग्लादेश (96 प्रतिशत), श्रीलंका (86 प्रतिशत) और भारत (78 प्रतिशत) की दर के साथ नष्ट हो चुका है. स्वतंत्रता के बाद, भारत में 4,696 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि का नुकसान होने का अनुमान है, जबकि 0.07 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि पर अवैध रूप से अतिक्रमण हो गया, 4.37 मिलियन हेक्टेयर में खेती की गई है, 0.52 मिलियन हेक्टेयर नदी घाटी परियोजनाओं को दी गई है, 0.14 मिलियन हेक्टेयर उद्योगों और टाउनशिप के लिए , ट्रांसमिशन लाइनों और सडक़ों के लिए 0.16 मिलियन हेक्टेयर जंगल का बलिदान हुआ है.

लालच और तंत्र-मंत्र के जाल में फंसा भारतीय समाज जीवों का दुश्मन बना हुआ है. नतीजतन, टस्क के लिए नर हाथी के अवैध शिकार से उनकी जनसंख्या में लिंग अनुपात में असंतुलन पैदा हो गया है. एक सींग वाले गैंडे को उसके सींग पाने को मार दिया गया, जिसे कामोद्दीपक संपत्ति माना जाता है. पहले यह जानवर उत्तर प्रदेश, असम और बंगाल के तराई क्षेत्रों में पाया जाता था, लेकिन अब यह देश के केवल एक या दो हिस्सों बचा है. इसी तरह कस्तूरी हिरण, जो पहले हिमालयी जंगलों में खूब था, लगभग लुप्तप्राय हो चुका है. इसे महज विशेष ग्रंथि हासिल करने के लिए मार डाला गया. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कस्तूरी की कीमत लगभग 40 से 60 हजार अमेरिकी डॉलर बताई जाती है. एक किलो कस्तूरी पाने को लगभग दो हजार नर कस्तूरी मृग मारे गए हैं.

नष्ट हो रही जैव विविधता से पड़ जाएंगे खाने के लाले

दुनियाभर के वैज्ञानिकों को मूलनिवासी यानी आदिवासियों की याद आई ही इसलिए कि अध्ययन में सामने आया कि जलवायु परिवर्तन के रूप में जैव विविधता पृथ्वी के भविष्य के लिए सबसे अहम है. भूमि क्षरण, जैव विविधता की हानि और जलवायु परिवर्तन एक ही केंद्रीय चुनौती के तीन अलग-अलग हिस्से हैं.

प्रकृति की मुफ्त सेवा किसी भी तरह के समाज की अर्थव्यवस्थाओं में काम करती है. मधुमक्खियों के न रहने पर कुछ साल बाद मानव जाति भी विलुप्त हो जाएगी. कारण? मधुमक्खियां या उसके जैसे अन्य कीट परागकणों को बिखेरते हैं, जिससे मानव खाद्य की समस्या हल होती है. जब ये चक्र नहीं होगा तो मनुष्य मर जाएंगे. अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियों और अन्य जानवरों द्वारा वैश्विक स्तर पर परागण (पौधों में नर भाग से मादा भाग को पहुंचाने की प्रक्रिया, जिससे नए पौधे, फूल, फल का विकास होता है) से मिलने वाले खाद्य की कीमत लगभग 577 बिलियन डॉलर है. संयुक्त राष्ट्र की फरवरी की एक रिपोर्ट ने आगाह भी किया कि मिट्टी, पौधों, पेड़ों और परागकणों को बिखेरने वाले पक्षियों और मधुमक्खियों के नुकसान ने दुनिया में मौजूद भोजन की क्षमता को खासा कम कर दिया है.

गंभीर खतरे में है हमारा ग्रह

ताजा वैश्विक अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया है, पेड़ों, घास के मैदानों और वेटलैंड्स (नमी वाली भूमि, जहां खास पौधों को पनपने का वातावरण मिलता है) का नुकसान दुनिया के वार्षिक सकल उत्पाद के लगभग 10 प्रतिशत के बराबर है. प्रजातियों का विलुप्त होना, जलवायु परिवर्तन में बड़ा बदलाव आना ग्रह को गंभीर खतरे में धकेल रहा है.

भारतीय शोधकर्ताओं का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग का भी बड़ा असर हुआ है. तापमान में केवल एक डिग्री सेल्सियस परिवर्तन अक्षांश में 100 किलोमीटर के परिवर्तन से मेल खाता है. वर्ष 2100 तक निवास स्थान की स्थिति में औसत बदलाव 140 से 580 किमी तक होने का अनुमान है. समुद्र का जलस्तर बढऩे से निचले इलाकों के डूब जाने से द्वीपीय प्रजातियों का खात्मा संभावित है.


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प्राकृतिक आपदाएं, जो मानव निर्मित ही ज्यादा हैं, वे भी जैव विविधिता को तबाह कर रही हैं. उदाहरण के लिए, 1998 में और उसके बाद भी कई बार, असम में पूरा काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान बाढ़ से भर गया, जिसकी वजह से 28 गैंडे, 70-85 हिरण, 8 भालू और 3 हाथी समेत कई प्रजातियों की मौत हो गई. खेतीबाड़ी में मोनोकल्चर से बड़ा नुकसान हो रहा है. पनबिजली के विकास के कारण हाइलैंड्स में जल भंडारण की आवश्यकता होती है, जिसके कारण जंगलों और घास के मैदानों के बड़े क्षेत्र पानी के नीचे डूब जाते हैं.

साझे वैश्विक अध्ययन के अनुसार, अफ्रीका बड़े स्तनधारियों की विस्तृत श्रृंखला के लिए दुनिया का आखिरी घर है, लेकिन मौजूदा हालत ये है कि 2100 से अधिक अफ्रीकी पक्षी और स्तनपायी प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं. विश्व वन्यजीव निधि के एक अध्ययन के मुताबिक, मानव समाज के गैरजरूरी या अवैज्ञानिक विकास की वजह से 1970 के बाद से पशुओं की आबादी में 60 प्रतिशत की गिरावट आई है.

दूर देश से क्या, अब आसपास से भी नहीं आ रही तितली

भूमि उपयोग में परिवर्तन और बढ़े हुए कीटनाशक का उपयोग परागण करने वाले कीटों और जीवों को नष्ट कर रहा है या संख्या को बहुत कम कर रहा है. रिपोर्ट के अनुसार, यूरोप में मधुमक्खियों का लगभग 37 प्रतिशत और करीब 31 प्रतिशत तितलियों में गिरावट है, यही हाल कमोबेश बाकी देशों में भी है. अब तितलियों का दिखना तो दूर, उन पर गीत, कविता लिखना तक लगभग बंद हो चुका है.


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इसी तरह पानी की प्रजातियों में 70 प्रतिशत से अधिक और उभयचरों के 61 प्रतिशत में गिरावट आई है. समुद्री मछलियों की आबादी में 26 प्रतिशत और 42 प्रतिशत भूमि-आधारित जानवरों में भी कमी आई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि घटती भूमि उत्पादकता सामाजिक अस्थिरता के लिए जिम्मेदार हो सकती है. अनुमान लगाया गया है कि लगभग 30 वर्षों में, भूमि क्षरण, जलवायु परिवर्तन पांच से 70 करोड़ लोगों को संकट से घेर देगा.

बहुत देर हो चुकी, कोशिश फिर भी करना होगी

अध्ययन करने वाली कमेटी के अध्यक्ष सर रॉबर्ट वाटसन का कहना है कि कोई जादू नहीं हो सकता. प्रकृति को बचाने के लिए हम कैसे रहते हैं और हम प्रकृति के बारे में कैसे सोचते हैं, इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. आपदा से बचने के लिए मौजूदा कानूनों को लागू करना होगा और आगे के नियमों को भी बनाना होगा. हालांकि बहुत देर हो चुकी हैं. एक प्रस्ताव ये भी है कि पृथ्वी के आधे हिस्से को संरक्षित कर दिया जाए. लैटिन अमेरिका में मूलनिवासियों ने एंडीज के दक्षिणी सिरे से अटलांटिक तक फैले दुनिया के सबसे बड़े संरक्षित भूमि क्षेत्रों में से एक के निर्माण पर बल दिया है. इस बात के बीच क्या कभी ऐसा सुना गया कि भारत सरकार ने भी मूलनिवासियों-आदिवासियों से कोई मशविरा किया हो! शायद कभी नहीं.


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कई देश साहसिक पहल कर रहे हैं. पाकिस्तान में 10 बिलियन पेड़ लगाने का इरादा है , इथियोपिया ने 15 मिलियन हेक्टेयर भूमि को पुनर्जीवित करने के लिए लक्ष्य तय किया है और ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट के तहत अफ्रीका में 4,970 मीटर लंबी वनस्पति तैयार करने का अभियान शुरू हुआ है. सालाना पौधरोपण कार्यक्रम भारत में भी चलता है, जिसमें अखिलेश सरकार के समय उत्तरप्रदेश छह करोड़ पौधे लगाकर रिकॉर्ड बना चुका है. इस बीच, यूएन पर्यावरण कार्यक्रम में समुद्री संरक्षित क्षेत्रों की संख्या और आकार में वृद्धि की योजना है.

बहरहाल, इस खास अध्ययन की फाइनल रिपोर्ट विश्व के नेताओं को दी जाएगी, जिससे वे पृथ्वी पर जीवन की रक्षा के लिए सामूहिक प्रयास करें. इस वक्त भारतीयों को भी ये तय करना होगा कि देसी घी के दीये जलाकर ऑक्सीजन पैदा करना है कि पेड़ों की संख्या बढ़ाकर, सैकड़ों टन लकड़ी जलाकर हवन से वातावरण शुद्ध करना है कि पेड़-पौधों और जीवों को बचाकर जिंदगी बचाना है.

(आशीष सक्सेना स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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