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Tuesday, 23 April, 2024
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आदिवासियों के अधिकार छिनने से कमजोर हो जाएगा राष्ट्र

देश में 10 करोड़ से ज्यादा आदिवासी हैं. उनके अधिकारों की रक्षा वह वादा है, जिसे राष्ट्र ने आजादी के वक्त उनसे किया था. वन अधिकार कानून की रक्षा आवश्यक है

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आदिवासी समाज संभवतः भारतीय उप-महाद्वीप का सबसे उ‍पेक्षित समाज है. दस-बीस आदिवासियों का मारा जाना, या सैंकड़ों आदिवासियों का फर्जी मामलों में जेलों में सड़ना मुख्‍यधारा के मीडिया के लिए कोई खबर नहीं है. कोई नक्‍सल संबंधी घटना घटने पर बाहरी समाज के लोग आदिवासी इलाकों पर चलताऊ बात करते हैं और अपना मूल्‍य निर्णय भी दे देते हैं. आदिवासी कौन हैं, किन परिस्थितियों में रहते हैं, उनके क्‍या मुद्दे हैं, उनका जीवन-दर्शन क्‍या है, आदि सवालों पर कोई बात नहीं करता. बाहरी समाज ने कभी आदिवा‍सियों को निस्‍वार्थ भाव से समझने की कोशिश नहीं की.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा लाखों आदिवासियों की बेदखली के आदेश के बाद एक बार फिर आदिवासी चर्चा में आए. इस मामले में अब सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मोहलत दे दी है, इसलिए फिलहाल खतरा टल गया है. यह मौका है कि हम आदिवासियों से जुड़े विभिन्‍न मसलों पर बात करें. आइए, शुरूआत वन अधिकार अधिनियम से ही करते हैं.

वनों या जंगलों से आदिवासियों का बहुत गहरा रिश्‍ता है- जब से सृष्टि है तबसे. स्‍वयं आदिवासी शब्द की अवधारणा, उनकी अस्मिता और अस्तित्‍व जंगलों से परिभाषित होता है. वे स्‍वयं को जंगलों का प्राकृतिक संरक्षक मानते हैं. जंगलों, नदियों, पहाड़ों को वे अपना पुरखा और संबंधी मानते हैं. उनके गीत, कहानियों, नृत्‍यों और पूरे जीवन की हर धड़कन में जंगल है.


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जब भी किसी बाहरी सत्‍ता ने उन्‍हें जंगलों से बेदखल करने की कोशिश की, जंगलों को छीनने की कोशिश की- आदिवासियों ने अपनी जान पर खेलकर जंगलों को बचाया है. 19वीं और 20वीं सदी ऐसे असंख्‍य आदिवासी आंदोलनों की गवाह हैं. 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में हुआ स्‍वयं बिरसा मुंडा का आंदोलन ‘उलगुलान’ इसका साक्ष्‍य है.

आंदोलन में बिरसा शहीद हो गए लेकिन उनके आंदोलन के प्रभावस्‍वरूप अंग्रेज सरकार को आदिवासियों के वनाधिकारों के संरक्षण के बारे में सोचना पड़ा. इसी प्रक्रिया में छोटा नागपुर काश्‍तकारी अधिनियम (1908) बना. संथाल परगना काश्‍तकारी अधिनियम व बाद के कई अन्‍य अधिनियमों और स्‍वयं भारतीय संविधान तक में इस अधिनियम का असर देखा जा सकता है.

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आजाद भारत में हुआ ये कि एक तो आदिवासियों के पक्ष में ठीक से कानून नहीं बने, और जो बने, उन्‍हें ठीक से लागू नहीं किया गया. मसलन 5वीं अनुसूची और 6ठी अनुसूची, ‘जनजातीय सलाहकार परिषद’ आदि बातें कागजों तक रह गईं. जंगलों पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए यूपीए सरकार ने वन अधिकार अधिनियम बनाया. चूंकि जिस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लाखों आदिवासियों की बेदखली का आदेश दिया, उसका लक्ष्‍य वन अधिकार अधिनियम को चुनौती देना है, इसलिए वन अधिकार अधिनियम को जान लेना जरूरी है.


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वन अधिकार अधिनियम का पूरा नाम अनुसूचित जनजाति और अन्‍य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्‍यता) अधिनियम 2006 है. अधिनियम के परिचय में इसका उद्देश्‍य भी स्‍पष्‍ट कर दिया गया है- ‘वन में निवास करने वाली ऐसी अनुसूचित जनजातियों और अन्‍य परंपरागत वन निवासियों के, जो ऐसे वनों में पीढियों से निवास कर रहे हैं, किंतु उनके अधिकारों को अभिलिखित नहीं किया जा सका है, वन अधिकारों और वन भूमि में अधिभोग की मान्‍यता देने और निहित करने’ के लिए यह अधिनियम बनाया गया. यह अधिनियम 31 दिसंबर 2007 से लागू माना गया और इसका संशोधित रूप 6 दिसंबर 2012 को प्रकाशित हुआ.

अधिनियम के अंतर्गत वनों के परंपरागत निवासियों को वनों संबंधी व्‍यक्तिगत और सामूहिक अधिकार प्रदान किये गए. अधिनियम के अधीन 13 दिसंबर 2005 से पहले वन भूमि का निवास और आजीविका के लिए इस्‍तेमाल करने वाली सभी जनजातियों और तीन पीढियों से वन पर निर्भर अन्‍य परंपरागत वन निवासियों को ये अधिकार दिये गए.

अधिनियम के अंतर्गत आदिवासियों को निवास के लिए, जीविका के लिए व्‍यक्तिगत या सामूहिक अधिभोग का अधिकार दिया गया. साथ ही गौण वन उत्‍पादों जैसे तेंदुपत्‍ता, गोंद आदि के संग्रह के लिए वनों के उपयोग का अधिकार, तथा मछली पालन, चारागाह आदि के रूप में जंगलों के प्राकृतिक स्रोतों जैसे नदी, तालाब आदि के उपयोग का अधिकार प्रदत्‍त किया गया. अधिनियम के अंतर्गत एक और महत्‍वपूर्ण अधिकार पुनर्वास के अधिकार का प्रावधान किया गया. खासतौर पर वनों से अवैध रूप से बेदखल किये गए आदिवासियों को पुनः वनों में बसाने का बंदोबस्‍त किया गया.

वन अधिकार अधिनियम में केन्‍द्रीय शासन-प्रशासन के बजाय स्‍थानीय ग्राम सभाओं आदि को सशक्‍त किया गया. सरकारी भवनों व योजनाओं के लिए वनों का उपयोग करने से पहले भी स्‍थानीय ग्राम सभा की स्‍वीकृति को अनिवार्य बनाया गया. वनों पर आदिवासियों के अधिकार को मजबूती देने और उन्‍हें बेदखली से बचाने के लिए अधिनियम की धारा 4(5) में स्‍पष्‍ट प्रावधान किया गया कि आदिवासियों को ‘तब तक बेदखल नहीं किया जाएगा जब तक कि मान्‍यता और सत्‍यापन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती’.

अधिनियम के तहत एक परिवार द्वारा अधिभोग के लिए भूमि की अधिकतम सीमा 4 हेक्‍टेयर निर्धारित की गई. आदिवासियों और परंपरागत वन निवासियों को वन अधिकार जारी करने के लिए सबसे पहले ग्राम सभा में दावों की प्रस्‍तुति की जाएगी, फिर ग्राम सभा वन अधिकार समिति को सत्‍यापन हेतु दावों को भेजेगी, वन अधिकार समिति ग्राम सभा में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी. इसी के बाद आगे की समितियों में अनुमोदन के लिए संबंधित रिपोर्ट भेजी जा सकेगी और लाभार्थियों को अधिकार पत्र जारी हो सकेंगे. अधिनियम में प्रावधान किया गया कि इस पूरी प्रक्रिया में खामी होने पर कोई भी व्‍यक्ति अपील कर सकेगा और उसे अपनी बात रखने का समुचित अवसर दिया जाएगा.


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इस तरह 2006 का वन अधिकार अधिनियम आदिवासियों के वन संबंधी अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में आजाद भारत का सबसे सशक्‍त कानून कहा जा सकता है. लेकिन यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है अभी अधिनियम ठीक से लागू भी नहीं किया गया था कि उसको निष्‍प्रभावी करने की कोशिशें शुरू हो गईं.

कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने तो पूरे अधिनियम को खारिज करने की कोशिश की और वनों व वन्‍य जीवों को इस अधिनियम से खतरा दिखाकर सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ याचिका ही डाल दी. देश आजाद होते समय आदि‍वासियों को उनका स्‍वायत्‍त स्‍वशासन प्रदान किये जाने का वादा किया गया था. वन अधिकार अधिनियम को उसके मूल स्‍वरूप में लागू किया जाना उसी दिशा में पहला कदम होगा. इसकी रक्षा राष्ट्रीय दायित्व है.

(डॉ. मीणा तुर्की के अंकारा विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर हैं. साथ ही वे जेएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर भी हैं)

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1 टिप्पणी

  1. Sir ji namskar I am Kamalde Sahariya village jakhda jagir district sheopur mp Se hu Sir me kuch information lena chahta hu ki hmare gram me drdo ki stapna hone ja rhi he jisme hamare Sahariya shmaj ki puri jamin par kbja kr liya gya he. Sir usi jamin pr nirbhr pure gram vasi he to sir yesa koi rasta btao ki hmare gram ki rojhi roti na Jay.

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