कोरोनावायरस केंद्र और राज्य सरकारों के लिए नई चुनौती बन कर सामने आया है. इसके मद्देनजर अर्थशास्त्रियों ने भी सरकार के सामने कई तरह के सुझाव रखे हैं. आर्थिक विशेषज्ञों ने एक बात स्पष्टता से रखी है- वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा घोषित सहयोग पैकेज कामगार जनता को भूख से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं है और अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आगे बहुत छोटा है. यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई), अन्न भंडारों का खुलना, और लघु एवं मध्य उद्योगों को सहयोग ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था और मेहनतकश समाज के लिए वेंटीलेटर का काम करेंगी.
कोरोनावायरस से लड़ने के लिए सरकार को स्वास्थ्य व्यवस्था (ख़ासकर टेस्टिंग) का प्रबंधन करना पड़ रहा है, पर इसके साथ लॉकडाउन के दौरान हुई आय की क्षति को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. केंद्र सरकार द्वारा घोषित 1.7 लाख करोड़ रुपए के पैकेज में से 1 लाख करोड़ रुपए ही 2019-20 के बजट खर्च के अतिरिक्त है. जिन परिवारों के पास राशन कार्ड नहीं है, उन्हें महज़ 500 रुपए देने का वादा किया गया है, वो भी तब जब उन्हें अन्य सरकारी योजनाओं के तहत जन-धन खातों में पहले से पैसा मिलता है. अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ के मुताबिक़, किसी भी परिवार के लिए ये बहुत छोटी रकम है. प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा (यहां तक कि भूख से मौत और आत्महत्या की खबरें) इस कथन का क्रूर ढंग से पुष्टिकरण कर रही हैं.
सार्वजानिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में नामांकित घरानों के हर सदस्य को एक हज़ार रुपए की मासिक आपातकालीन यूबीआई का 6 महीनों का खर्चा भी लगभग सकल घरेलू उत्पाद का 3% होगा (परीक्षित घोष द्वारा आकलन). अन्य देशों की तुलना में सहयोग कार्यों पर इस प्रकार का खर्चा भव्य नहीं है, आकृति 1 देख लीजिये:
आकृति 1: देश-वार सहायता-जीडीपी अनुपात
(स्रोत: ideasforindia.in)
आश्चर्य की बात यह है कि आराम का जीवन व्यतीत करने वालों को भारतीय प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा (जो पूरी दुनिया देख रही है) शायद दिखाई नहीं पड़ रही. मजदूर वर्ग बस एक न्यूज का क्लिप बन कर रह गया है. विशेषज्ञों के बीच राजस्व प्रोत्साहन के ऊपर बनी (दुर्लभ) सहमति इन्हें फूटी आंख नहीं सुहा रही. ऐसे लोगों का कहना है कि सरकार जितना कर सकती थी, कर रही है, कि भारत सरकार के उधार लेने से अर्थव्यवस्था और भी चौपट हो जाएगी क्योंकि विदेशी बैंकों और रेटिंग संस्थाओं की नज़र में भारतीय अर्थव्यवस्था और भी कमज़ोर हो जाएगी. यथार्थ से परे इस विचित्र विचारधारा के अनुयायी यह भूल बैठे हैं कि इस संकट ने किसी देश को छोड़ा नहीं है- जब यूरोप और अमेरिका की नींव हिल चुकी है, तो वह कौन सा मुल्क है जिसे रेटिंग एजेंसी सर्वश्रेष्ठ रेटिंग देगी? कहने का मतलब यह है कि बाज़ार की शक्ल बदल चुकी है और दुरुस्त निवेश के ठिकाने तय करने के मापदंड भी बदल रहे हैं.
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बहरहाल, ऐसे प्रस्तावों को शक की नज़र से देखने वाले पाठकों के लिए बेहतर सहयोग पैकेज की रकम मुहैया करने के कुछ प्रस्तावों का उल्लेख किया जा रहा है. 2019 में नोबेल पुरुस्कार के विजेता, अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का एक संक्षिप्त सुझाव है- भारतीय रिज़र्व बैंक को नोट छापने में देरी नहीं करनी चाहिए. चूंकि कच्चे तेल के दाम कम हैं, रुपए की स्थिति को इस कदम से ख़ास नुकसान नहीं होना चाहिए. हालांकि मुद्रण महंगाई का कारण बन सकता है, पर फ़िलहाल अर्थव्यवस्था को इससे कम खतरा है. जब मांग आपूर्ति से ज़्यादा होती है, तब आटे-दाल के दाम बढ़ते हैं- लॉकडाउन की स्थिति में मांग सप्लाई से कहीं ज़्यादा कम है, इसलिए महंगाई बढ़ने की संभावना भी शून्य है. कठोर-दिल मित्र जवाब दे सकते हैं कि लॉकडाउन में आटे और चावल की सप्लाई कम पड़ सकती है. तो उनके जवाब में हम कहेंगे कि भारतीय खाद्य निगम के 7.7 करोड़ टन के खाद्य भण्डार डिमांड और सप्लाई को संतुलित करते हुए महंगाई पर लगाम कस सकते हैं.
देवेश कपूर और अरविन्द सुब्रमनियन का कहना है कि वर्ल्ड बैंक की ओर से आने वाली सालाना राशि का आधा हिस्सा भी लगभग 500 करोड़ डॉलर है, और यह राशि रिलीफ़ कार्यों के काम आएगी. इन के मुताबिक़ अन्य देशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों से उधार लिया जाना चाहिए- यह कोई बेजोड़ कदम नहीं है और ऐसा 1991, 1998, 2000 और 2013 में भी किया गया था. शायद इसमें एक किस्म का इंसाफ भी छिपा है- विदेश में काम करने वाले और पढ़ने वाले नागरिक ही, यूरोप और अमेरिका के रास्ते, कोरोनावायरस भारत लेकर आये थे.
कपूर और सुब्रमनियन विदेशी संस्थानों और सरकारी ऋणपत्र के माध्यम से पैसा जमा करने का प्रोत्साहन देते हैं. उनके द्वारा सुझाई गयी रणनीति घरेलू और विदेशी कर्ज़े की बढ़त को सकल घरेलू उत्पाद के बीसवें हिस्से से भी कम रखेगी. उनका दावा है कि यह कदम धारणीय भी है और अनिवार्य भी.
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कॉर्पोरेट कर्ज़ा मुआफ़ी पर भी अस्थाई विराम लगाना ज़रूरी है. सबसे धनी भारतीयों की लिस्ट में पहले सौ को देख लीजिये: फोर्ब्स के मुताबिक़, इनका कुल मूल्य लगभग 45,000 करोड़ डॉलर है. तत्कालीन आर्थिक संकट में इन व्यक्तिओं का नुकसान निस्संदेह होगा, लेकिन ग़ौरतलब है कि यह वही संकट है जो गरीबों को भूख से मार रहा है. ऐसी शर्मनाक गैर-बराबरी का उपाय धन/ दौलत पर टैक्स लगा कर करना होगा. बेशक 1.5% के धन टैक्स की चोरी भी आम हो जाएगी, लेकिन मुल्क के धनी इन कठिन परिस्थितियों में दौलत का निर्माण करने वाले मज़दूरों को यदि उनका हक अब नहीं तो कब देंगे?
(लेखिका ब्राउन युनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी कर रही हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)