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Tuesday, 16 April, 2024
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कोरोनावायरस का संकट और भारतीय समाज की जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर दरकती मीनारें

कोरोनावायरस महामारी के बीच पूरे देश में समाज की नकारत्मक प्रवृत्तियां उभर कर सामने आईं हैं. कहीं जाति के नाम पर तो कहीं क्षेत्र, धर्म बना वजह.

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संकट काल में किसी व्यक्ति, समाज या देश का सबसे जुझारू और सशक्त चेहरा सामने आता है. ऐसे समय में कई बार जबर्दस्त एकजुटता बनती है और पुराने मतभेद भुलाकर सब मिलकर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ते हैं लेकिन इतिहास इतना एकरेखीय नहीं है. कई बार संकटकाल में व्यक्ति, समाज और देश का सबसे बुरा पक्ष उभर कर सामने आता है और इस दौरान वे दरारें और चौड़ी हो जाती हैं जो पहले से मौजूद होती हैं.

कोरोनावायरस के संकट में भी भारतीय समाज और राष्ट्र ने अपने कई रंग दिखाए हैं. निश्चित रूप से इस बीच अदम्य साहस और सेवा की अनगिनत कहानियां लिखी गई हैं और इस बीमारी के खिलाफ संग्राम के अगले मोर्चे पर मौजूद कई लोगों ने अपनी जिंदगी तक दांव पर लगा दी है. कई लोगों की इस क्रम में जान भी गई है.

जो अच्छा है, उसके बारे में ढेर सारी रिपोर्ट लिखी गई हैं और पूरा राष्ट्र उनके बारे में जानता है और ऐसे लोगों का अभिनन्दन करता है. लेकिन जैसा कि इस लेख की प्रस्तावना में लिखा गया है कि ऐसे समय में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र जीवन के नकारात्मक पहलू भी पूरे तीखेपन के साथ उभर कर सामने आते हैं. आइए देखते हैं कुछ ऐसी ही प्रवृत्तियों को.


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कोरोना के दौर में जातिवाद

उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के एक गांव में बनाए गए क्वारंटाइन सेंटर में पांच लोगों को रखा गया था. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, वहां खाना हर किसी के लिए बनता था, लेकिन खाना सिर्फ तीन लोग खा रहे थे. बाकी दो लोग खाना खाने के लिए अपने घर चले जाते थे और खाना खाकर लौट आते थे. इसकी वजह ये थी कि ये सेंटर ग्राम की प्रधान लीलावती देवी चला रही थीं और खाना भी वही बना रही थीं, क्योंकि इस दौरान रसोईया मिल नहीं रहा है. लीलावती देवी दलित जाति की हैं.

उधर, दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा जिले में एक पहाड़ी गांव में दलित समुदाय के 57 परिवारों के टोले में से किसी को भी पहाड़ी से उतरने की इजाजत नहीं है. बाकी गांव वालों को लगता है कि ये लोग कचरा चुनते हैं और इनकी वजह से गांव में बीमारी फैल सकती है. दलित टोले के लोगों का कहना है कि भेदभाव और अलग-थलग रखने की बात नई नहीं है. हां, लॉकडाउन के कारण उन पर वैसी सख्तियां भी लगा दी गई हैं, जो बाकी गांव वाले खुद पर लागू नहीं करते हैं. उन्हें दूध तक लेने नहीं दिया जा रहा है.

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ऐसी ढेर सारी घटनाएं देशभर में हो रही हैं, जिनमें से कई की रिपोर्टिंग भी नहीं हो पा रही है क्योंकि जाहिर है कि इस समय लोगों की चिंताओं में कई और बातें हैं. गुजरात भूकंप से लेकर सुनामी के समय ये देखा गया कि जातिवाद ने काम करना बंद नहीं किया. राहत बंटवारे से लेकर आश्रय स्थलों में रहने तक में भेदभाव देखा गया.

क्षेत्रीय आधार पर भेदभाव

कोरोना के फैलाव का शुरुआती केंद्र चीन के वुहान प्रांत को माना जाता है. इसलिए चीन को इस बीमारी के लिए कई लोग दोषी मानते हैं. हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किसी भी बीमारी को भौगोलिक नाम से जोड़कर न देखने की सलाह दी है. भारत में उत्तर पूर्व की चूंकि चीन से भौगोलिक निकटता है और कई लोगों के लिए पूर्वोत्तर के लोगों को लेकर कई तरह की मान्यताएं और भ्रम हैं, इसलिए कोरोना के फैलने के बाद पूर्वोत्तर के लोग कई तरह के भेदभाव के शिकार हुए. उन्हें कोरोना फैलाने के लिए जिम्मदार ठहराने जैसी हरकतें भी हुईं.

मुंबई की एक घटना में कोई सिरफिरा मणिपुर की एक लड़की पर थूक कर चला गया तो दिल्ली में एक व्यक्ति ने पूर्वोत्तर की एक लड़की पर थूका और उसे कोराना कहा. ऐसी कई छिटपुट घटनाएं हुई हैं. दरअसल, पूर्वोत्तर को लेकर हेट क्राइम की पहले भी कई घटनाएं हुई हैं और इन्हें भी उसी क्रम में देखा जाना चाहिए. मानसिक रूप से कई लोगों के लिए ये मानना अभी भी मुमकिन नहीं हो पाता कि पूर्वोत्तर के लोग उतने ही भारतीय हैं, जितने कि वे खुद.

धर्म के आधार पर भेदभाव

ये कोराना संकट का वह पहलू है, जिसके बारे में सबसे ज्यादा लिखा गया है और जो सबसे विकट रूप में सामने भी आया है. इस बीमारी के शुरुआती दौर में ऐसी कोई बात नहीं थी, लेकिन लॉकडाउन घोषित होने के बाद ये खबर सामने आई कि दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में तबलीग़ी जमात के मरकज में कई लोग रह रहे हैं और उनमें से कई विदेशों से आए हुए भी हैं. उसके बाद से ही मीडिया के एक हिस्से ने पूरे कोराना संकट को तबलीग़ी जमात से जोड़ दिया और कुछ इस अंदाज में मामले को बताया गया, मानो तबलीग़ी जमात वालों की वजह से ही भारत में कोरोनावायरस फैला और कि वे जान-बूझ कर इस बीमारी को फैला रहे हैं. इस क्रम में कोरोना जेहाद और थूक वाला जेहाद जैसी हेडलाइन मीडिया ने चलाई.

यहां तक कि सरकार और स्वास्थ्य मंत्रालय तक ने कोरोना पीड़ितों का आंकड़ा बताते हुए तबलीगी जमात के कार्यक्रम से जुड़े आंकड़े अलग से दिखाए. इन तमाम वजहों से वातावरण इतना विषाक्त हो गया कि लोगों ने मुसलमान सब्जी विक्राताओं तक को कॉलोनी में आने से रोक दिया. घृणा जनित अपराधों के कई मामले दर्ज किए गए. ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर तो नफरत भरी बातों की मानों बाढ़ आ गई.

आखिरकार स्थिति यहां तक पहुंच गई कि प्रधानमंत्री को ये कहना पड़ा कि कोरोना जाति, धर्म, नस्ल आदि देखकर नहीं होता. उन्होंने लोगों से एकता बनाए रखने की अपील की.

महामारी का ठीकरा किसके सर फूटे?

ये बात किसी को अजीब लग सकती है कि मानव सभ्यता के लिए खतरा बन कर आई किसी बीमारी को कोई कैसे किसी समुदाय से जोड़कर देख सकता है, खासकर तब जबकि उस बीमारी ने सारी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है और शायद ही कोई समुदाय इससे बचा हुआ है. लेकिन भारत में मुसलमानों के खिलाफ जैसा माहौल पहले से बना हुआ है, उसमें आश्चर्यजनक नहीं है कि कोरोनावायरस को फैलाने के लिए उनको जिम्मेदार ठहरा दिया गया.

लेकिन ये चलन कोई नया नहीं है. दुनिया में ऐसे वाकए पहले भी हुए हैं जब किसी समुदाय को महामारी के लिए दोषी ठहरा दिया गया और उन्हें इसकी सजा भी दे दी गई. 14वीं सदी में जब यूरोप में भयानक प्लेग फैला, जिसे ब्लैक डेथ भी कहते हैं, तो इसके लिए यहूदियों को जिम्मेदार माना गया और उनकी कई बस्तियों को तबाह कर दिया गया. इसी तरह बीमारियों के लिए रोमा लोगों और कई बार अश्वेत लोगों को भी जिम्मेदार ठहराया गया. अमेरिका में फैले H1N1 फ्लू के लिए मैक्सिको से आए लोगों को जवाबदेह ठहराया गया. इसी तरह वहां फैले कॉलरा के लिए आइरिश लोगों को जिम्मेदार माना गया.


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महामारियों के लिए जिम्मेदार ठहराए गए लोग वहां के उत्पीड़ित समुदायों के थे और उनके खिलाफ पहले से नफरत पल रही थी.

महामारी में और कुछ नहीं होता, वह नफरत उभर कर सामने आ जाती है.

महामारियों का एक पहलू ये भी है कि ये तमाम लोगों को एक समान प्रभावित नहीं करता. जो लोग समाज में कमजोर होते हैं या गरीब होते हैं, उन्हें बीमारी की मार ज्यादा झेलनी पड़ती है. एक तो उनके रहने के ठिकाने अपेक्षाकृत घनी आबादी में होते हैं और वहां साफ-सफाई का बंदोबस्त कम होता है. उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अच्छा भोजन न मिल पाने के कारण कमजोर होती है और अगर बीमारी उन्हें हो गई तो स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच भी कम होती है. भारत जैसे देश में, जहां अस्पताल के बेड नागरिकों की आबादी के हिसाब से बेहद कम हैं और वेंटिलेटर भी गिनती के हैं, वहां बीमारी होने पर ये सुविधाए किन लोगों को पहले मिलेंगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनका निजी विचार है.)

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