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Sunday, 22 December, 2024
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विधानसभा से 2024 आम चुनावों तक- महिला मुद्दों पर होगी राजनीतिक पार्टियों की परीक्षा

देश में स्त्री-प्रश्न हर पार्टी की कल्पना का इम्तिहान लेता है, चाहे कांग्रेस का निर्भया, उन्नाव बलात्कार पीड़िता पर फोकस हो या बीजेपी का समान नागरिक संहिता मुद्दा.

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आसन्न उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में 2017 में उन्नाव की बलात्कार पीड़िता की मां आशा सिंह को कांग्रेस की उम्मीदवार बनाने की घोषणा वाकई एक प्रतीकात्मक पहल है. इसके वाजिब नतीजे मिलेंगे या नहीं, यह यकीनन छोटा सवाल है. फिर, चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ का शुरुआती हाइप्रोइल अभियान या ऐसी ही दूसरी छोटी-मोटी पहल हो. पहली नजर में यही लगता है कि महिलाओं के सवाल किसी पार्टी विशेष का मामला नहीं हैं. इसे दूसरी तरह से यह समझें कि हर राजनैतिक धारा महिलाओं को लगातार प्रतीक की तरह इस्तेमाल करती है और वह कामयाब भी है. यह आकलन बेशक दूर की कौड़ी है कि इनसे महिलाओं की राजनैतिक ताकत में क्या वाकई इजाफा होता है. भारतीय लोकतंत्र में महिला और राजनैतिक सत्ता का रिश्ता छत्तीस के आंकड़े जैसा है जो राजनैतिक नेतृत्व के दिल के काफी करीब है.

भारत और दुनिया में महिला नेतृत्व

दूरदराज कैंब्रिज में मेरे साथ भारतीय राजनीति का अध्ययन करने वाला हर अंडर-ग्रेजुएट युवा यह फौरन भांप जाता है कि भारतीय लोकतंत्र में बेहद थोड़ी महिला नेता हैं. कुछ साल पहले जब हिलेरी क्लिंटन डेमोक्रेटिक पार्टी की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ में हार गईं तो भारत और अमेरिका में यानी जैसा कि कहा जाता है, क्रमश: दुनिया के सबसे बड़े और सबसे ताकतवर लोकतंत्र के बीच महिलाओं के नेतृत्व की हालत में खासा फर्क उजागर हुआ.

वाकई यह तथ्य है कि महिलाएं भारत में राजनैतिक सत्ता के बड़े पदों पर काबिज हैं और लगातार रही हैं और छोटी-बड़ी पार्टियों का नेतृत्व करती हैं, चाहे वे इंदिरा गांधी हों या ममता बनर्जी, मायावती या जे. जयललिता. फिर भी, हमारे अंडर-ग्रेजुएटों ने भी इस मुख्य विरोधाभास को गौर किया है कि भारत में स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव (सिर्फ गैर-बराबरी नहीं) की हकीकत को छुपा पाना मुश्किल है. स्त्री-पुरुष भेदभाव आंकड़ों और रोजाना के अनुभवों में भी व्यापक पैमाने पर दर्ज हैं. यह भेदभाव कन्या भ्रूण हत्या से लेकर बलात्कार और सेहत के कमतर सूचंकांकों जैसे मामलों में क्रूर हिंसक रूप में भी प्रकट होता है. कन्याभ्रूण हत्या से तो स्त्री-पुरुष अनुपात में भारी कमी दिखती है. इसलिए यह कहना बेमानी है कि काम के अवसरों, आवाजाही, सुरक्षा और दूसरी तमाम चुनौतियों के बारे में गैर-बराबरी नहीं है.


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क्यों महिलाएं नेता के रूप में उभरती हैं

तो, फिर तमाम बाधाओं के बावजूद महिला राजनैतिक नेताओं के उभरने की वजह क्या है, जो अब हर मामले में है? एक स्वाभाविक जवाब यह है कि महिलाएं अपने पहले से प्रभुत्वशाली परिवारों के नाते नेतृत्व की साख पा जाती हैं. अगर उनके परिवारों ने राजनीति में अपनी जगह बनाई है तो वे स्थानीय जिला परिषद से प्रधानमंत्री के पद तक राजनैतिक नेता के रूप में उभर आती हैं.

लेकिन इसके खिलाफ अधिक स्पष्ट और तात्कालिक जवाब भी है. राजनीति भारत में गहरे पैठे पितृसत्तात्मक ढांचे से निकलने का भी बेहतरीन रास्ता मुहैया कराती है. अगर पूरी तरह बाहर न निकल पाएं तो कम से कम एक कदम आगे रख पाते हैं और इस गैर-बराबर सामाजिक ढांचे के शिखर पर जा बैठते हैं. यकीनन महिलाएं अगर राजनैतिक नेता के रूप में उभरें तो उनके लिए व्यक्तिगत स्वायत्तता संभव हो जाती है. आपको इसके लिए मायावती, जयललिता या ममता से आगे देखने की दरकार भी नहीं है. यह भी सही है कि राजनैतिक पद सबसे ताकतवर महिला नेताओं को भी स्त्री-द्वेष से छुटकारा नहीं दिला पाता. इसी मायने में व्यापक स्त्री-पुरुष बराबरी और राजनैतिक नेतृत्व में कोई गहरा या सीधा रिश्ता नहीं है.

संक्षेप में, इसमें कोई शक नहीं कि इंदिरा गांधी तमाम विरोधी योजनाओं और कोशिशों के बावजूद भारत की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री थीं, इसके बावजूद यह दलील देना मुश्किल है कि उनकी सरकार के कामकाज ने महिलाओं के लिए हालात बेहतर किए.


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पार्टियां और बतौर वोट बैंक महिलाएं?

हालांकि यह सोच लेना गलत होगा कि स्त्री-प्रश्न व्यापक है इसलिए वह आम अनदेखी या शुद्ध प्रतीकात्मकता के अलावा भेदभाव से मुक्त है. भारत की बेहद संवेदनशील राजनीति में, आखिर महिलाओं का सवाल क्यों भेदभाव से ऊपर होना चाहिए?

पिछले दशक में सभी राजनैतिक दलों के अलग-अलग रुझान लगातार स्पष्ट होते रहे हैं. ऐसा लगता है कि कांग्रेस-अपने नए ऐलान के साथ महिलाओं के खिलाफ हिंसा और विधायिका में महिला प्रतिनिधित्व पर फोकस कर रही है. यह पार्टी के नेतृत्व द्वारा बलात्कार पीड़ितों को व्यक्तिगत समर्थन से भी जाहिर होता है. मसलन, 2012 में दिल्ली गैंगरेप की पीड़िता-उसके परिवार और हाल में उन्नाव बलात्कार पीड़िता के परिवार के प्रति पार्टी ने हमदर्दी का रवैया दिखाया है. इस बीच ताकतवर क्षेत्रीय नेता, खासकर नीतीश कुमार और ममता बनर्जी अपने पुरुष वोटरों के मुकाबले महिला मतदाताओं के लिए बेहतर कर रहे हैं. अपेक्षाकृत नई आम आदमी पार्टी, खासकर दिल्ली में अपनी इकलौती सरकार में महिला प्रतिनिधित्व के मामले में,  ज्यादातर पुरुषों से ही वास्ता रखती दिखती है.

सत्तारूढ़ बीजेपी ने बेशक सबसे दुस्साहसिक पहल की है. तीन तलाक को अपराध की श्रेणी में डालकर और समान नागरिक संहिता को अपने वादे का केंद्रीय मुद्दा बनाकर बीजेपी महिलाओं को कम से कम कानून की नजर में समान बनाने की राह अपना रही है. यह इस मायने में दुस्साहसी पहल है कि अल्पसंख्यक और अलग पहचान के बदले महिलाओं को सार्वभौमिक और एक जैसी पहचान दिलाने की जिद है. यहां इससे होने वाली गोलबंदी, सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकवाद के बारे में कुछ नहीं कहना है, जो सीधे इस मुद्दे को विभाजनाकरी बहस की ओर ले जाते हैं. संक्षेप में, बीजेपी साफ-साफ महिलाओं के सवाल को पहचान की आक्रामक होड़ के दायरे में ले जाना चाहती है.

आगामी छोटे और बड़े चुनावों के लंबे दौर में महिलाओं के वोट के लिए पार्टियों की कल्पना शक्ति और रणनीति की परीक्षा होगी जो उत्तर प्रदेश से शुरू होकर 2024 के आम चुनावों तक जारी रहेगा. इससे साफ है कि भारत में महिला राजनैतिक नेतृत्व और कारगर स्त्री-न्याय के बीच काफी बड़ा फासला है. जो पार्टी इस फासले को पाटने के मामले में जितना करीब पहुंचेगी, वह अपने लिए न सिर्फ महिला वोट बैंक बनाएंगी बल्कि उस पर काबिज भी हो पाएगी.

श्रुति कपिला यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज में आधुनिक भारतीय इतिहास और वैश्विक राजनीति पढ़ाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @shrutikapila. विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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