बीते दशक में भारतीय जनता पार्टी में सत्ता के बढ़ते केंद्रीकरण और हाई कमान के नियंत्रण पर बहस होती रही है. कई लोगों ने इसे भाजपा के कांग्रेसीकरण का नाम दिया है. मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और पार्टी के पदाधिकारियों को लगभग मन-मुताबिक हटाया और बनाया जाता है. परामर्श का सवाल ही नहीं उठता. चतुर भाजपा नेताओं को जल्द ही सफलता का भेद पता चल गया – झुका हुआ सिर, नीची आंखें, जुड़े हुए हाथ, झुकी हुई रीढ़ की हड्डी व सिले होंठ जिसे तभी खोलना जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की सराहना करनी हो.
4 जून को लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद, सत्तारूढ़ पार्टी में बदलाव की हवा चलनी शुरू हो गई है. उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के केंद्रीय मंत्रिमंडल में कृषि और ग्रामीण विकास मंत्री के रूप में शामिल होने के बाद नई दिल्ली से भोपाल तक की ट्रेन यात्रा को ही लें. भाजपा कार्यकर्ताओं की बड़ी, उत्साही भीड़, रेलवे स्टेशनों पर उनका स्वागत करने वाले लोग और भोपाल में रोड शो, ये सब बता रहे थे कि चौहान क्या कहना चाहते हैं.
2023 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को शानदार जीत दिलाने के बाद मोदी और शाह ने उन्हें दरकिनार कर दिया था. भोपाल में ही रहने और ‘मामा के घर’ के दरवाजे सभी के लिए खुले रखने की उनकी घोषणा ने दिल्ली में खतरे की घंटी बजा दी थी. उन्हें भोपाल और मध्य प्रदेश से बाहर रखना बेहतर लगा. भाजपा आलाकमान ने चौहान को विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ाया. आठ लाख से अधिक मतों से उनकी जीत ने उनकी लोकप्रियता पर मुहर लगाई, खासकर तब जब लोग वाराणसी में पीएम मोदी की जीत के बहुत कम अंतर से विस्मित नज़र आ रहे थे.
भाजपा के भीतर बदलाव की हवा
शिवराज चौहान, जिन्हें गलत तरीके से सीएम पद से वंचित किया गया था, को केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर नहीं रखा जा सकता था. एक नेता जो लगभग 17 वर्षों तक एक राज्य के सीएम के पद पर रहा, वह सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी में रहने का हकदार था. पीएम ने उन्हें कृषि और ग्रामीण विकास विभाग आवंटित किए. लेकिन यह भी पूर्व मुख्यमंत्री के लिए एक उपलब्धि थी. यही इस बात की अभिस्वीकृति थी कि उन्होंने मध्य प्रदेश में कृषि को किस तरह बदला है.
इसी पृष्ठभूमि में चौहान की ट्रेन यात्रा ने पूरे देश का ध्यान खींचा. यह उनकी लोकप्रियता का प्रदर्शन था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी देश भर में पार्टी के कार्यकर्ताओं को संदेश देने के लिए ऐसा करते थे. जब से मोदी-शाह केंद्र में आए हैं, तब से कोई भी अन्य पार्टी नेता अपनी ताकत दिखाने की हिम्मत नहीं कर पाया. चौहान से लेकर वसुंधरा राजे, रमन सिंह, देवेंद्र फडणवीस और बीएस येदियुरप्पा जैसे लोगों की ऐसी लोकप्रियता उनका कमज़ोर प्वाइंट हो गया. इसी पृष्ठभूमि में चौहान की ट्रेन से बदलाव की सीटी सुनाई दी. इसने लोगों को पुराने दिनों की भाजपा की याद दिला दी, जब कोई नेता, पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं को अपनी लोकप्रियता दिखा सकता था और बदले में उन्हें सम्मान और प्रशंसा मिलती थी. चौहान के बेटे कार्तिकेय की यह टिप्पणी कि पूरी दिल्ली उनके पिता के सामने “नतमस्तक या झुकती” है, शायद एक बेटे के गर्व की भावना को दर्शाता है. हालांकि, इसमें थोड़ी बहुत सच्चाई ज़रूर है जिससे सत्ता के गलियारे में हर कोई चौहान के हर एक कदम पर नज़र रख रहा है.
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मैं भाजपा में बदलाव की हवा का संकेत देने वाला एक और उदाहरण देना चाहता हूं. यह भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) से जुड़ा है, जो सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी के प्रशासनिक नियंत्रण में आता है. राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) पेपर लीक मामले को लेकर मोदी सरकार की बढ़ती आलोचना के बीच, बिहार के उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता विजय सिन्हा ने राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव को इससे जोड़ने की कोशिश की. सिन्हा ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाया कि तेजस्वी के निजी सचिव ने एनएचएआई के गेस्ट हाउस में पेपर लीक के आरोपी के लिए एक कमरा बुक किया था.
भाजपा नेता के आरोप के जोर पकड़ने से पहले ही एनएचएआई ने तुरंत एक बयान जारी कर दिया: “एनएचएआई यह स्पष्ट करना चाहता है कि एनएचएआई के पास पटना में कोई गेस्ट हाउस की सुविधा नहीं है.” इसने बिहार के उपमुख्यमंत्री के दावों की धार को कुंद कर दिया.
गडकरी की बात करें तो, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की बैठक में जहां मोदी को इसका नेता चुना गया था, मंच पर पीएम और पार्टी के गठबंधन सहयोगियों के साथ तीन बीजेपी नेता बैठे थे- अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह. गडकरी को सांसदों और अन्य मंत्रियों के साथ नीचे बैठाया गया था. बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर नड्डा का वहां होना जरूरी था. लेकिन शाह और सिंह का क्या? अगर वे पूर्व बीजेपी अध्यक्षों के तौर पर मंच पर थे, तो नितिन गडकरी को वहां बैठने के लिए क्यों नहीं बुलाया गया? बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों ने मुझे बताया कि माना जा रहा था कि उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाएगा. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पीएम मोदी उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करना चाहते थे.
बीजेपी आलाकमान चाहता था कि गडकरी महाराष्ट्र चले जाएं जहां पार्टी नाजुक स्थिति में है. हालांकि, कहा जाता है कि संघ ने इस पर अड़ंगा लगाया और सुनिश्चित किया कि गडकरी को उसी पोर्टफोलियो के साथ कैबिनेट में शामिल किया जाए. बिहार के उपमुख्यमंत्री के दावे का खंडन करने वाले एनएचएआई के प्रेस बयान से पता चलता है कि वह नहीं चाहता कि उसे इस विवाद में घसीटा जाए.
देखें कि राज्यों में क्या हो रहा है
महाराष्ट्र में उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस्तीफा देने की अपनी मंशा जाहिर की. उन्होंने कहा कि वह केंद्रीय नेतृत्व से अनुरोध करने जा रहे हैं कि उन्हें सरकार में उनकी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए ताकि वह अपना पूरा समय भाजपा को मजबूत करने में लगा सकें. अब ये ऐसे फैसले नहीं हैं जिसके बारे में माना जाता है कि भाजपा नेता खुद लें – कम से कम पिछले एक दशक में तो बिल्कुल नहीं. और हाईकमान से संपर्क करने से पहले ही उन्हें सार्वजनिक रूप से घोषित करना? कोई यह तर्क दे सकता है कि फडणवीस हमेशा से ऐसे ही थे. उन्होंने पहले भी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल होने की अपनी अनिच्छा सार्वजनिक रूप से जाहिर की थी.
अगर आपको लगता है कि भाजपा के कुछ शीर्ष नेताओं का अपनी बात कहना और अपनी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करना वास्तव में पार्टी के भीतर लोकतंत्र की वापसी का संकेत नहीं है, तो देखें कि राज्यों में क्या हो रहा है. असम में अमित शाह के विश्वासपात्र मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को अपनी पार्टी के भीतर ही असंतोष का सामना करना पड़ रहा है. यह कांग्रेस नेता गौरव गोगोई की जोरहाट से जीत का नतीजा है, जिसे सीएम और उनकी टीम ने अपने प्रतिष्ठा की लड़ाई बना रखी थी. भाजपा विधायक मृणाल सैकिया ने कहा कि परिणाम ने साबित कर दिया है कि “पैसा, अत्यधिक प्रचार, बहुत से नेताओं का पहुंचना और गर्व से भरे भाषण” हमेशा चुनाव जीतने में मदद नहीं करते हैं.
जब सरमा ने सैकिया द्वारा गोगोई को बधाई दिए जाने पर गुस्से में प्रतिक्रिया व्यक्त दी, तो एक अन्य भाजपा विधायक और पूर्व राज्य भाजपा प्रमुख सिद्धार्थ भट्टाचार्य ने भी गोगोई की सराहना की और उनकी जीत को उनका ‘राजनीतिक राज्याभिषेक’ कहा. दिलचस्प बात यह है कि भाजपा ने चुप रहना ही बेहतर समझा. इन विधायकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई. पश्चिम बंगाल के पूर्व भाजपा प्रमुख दिलीप घोष पार्टी नेतृत्व के इस फैसले पर मुखर रूप से सवाल उठा रहे हैं कि उन्हें और अन्य नेताओं को जीतने वाले निर्वाचन क्षेत्रों से हटाकर चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में भेजा गया, जिससे उनकी हार हुई.
लोकसभा चुनाव में पूर्व केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान की हार के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनके और पूर्व विधायक संगीत सोम के बीच ठन गई है. बालियान ने अब शाह को पत्र लिखकर सोम द्वारा उनके खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों की केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से जांच कराने की मांग की है. आलाकमान उनकी लड़ाई को असहाय होकर देख रहा है. लगभग हर राज्य में इसी तरह के घटनाक्रम हो रहे हैं.
भाजपा नेताओं के शब्दों और कार्यों पर गौर करें- बदलाव के संकेत हर जगह दिख रहे हैं. आलाकमान भले ही ताकतवर बना हुआ हो, लेकिन अब उसे लेकर वह डर और खौफ नहीं है जैसा कुछ हफ्ते पहले तक हुआ करता था. आम चुनावों से पहले टिकट बंटवारे के वक्त टिकट न मिलने वालों द्वारा असंतोष और बगावत के जो दबे स्वर उठ रहे थे, वे चुनावों के बाद आम हो गए हैं. मोदी-शाह शासन के दौरान दरकिनार किए गए लोग अपनी जगह बनाने में लगे हैं और अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं. और अभी तो शुरुआती दिन हैं. भाजपा को इन घटनाक्रमों का स्वागत करना चाहिए. पार्टी अपनी पुरानी ताकत को फिर से तलाशने लगी है – यानी आंतरिक लोकतंत्र, जिसने मोदी और शाह जैसे नेताओं को उभरने में मदद की.
(डीके सिंह दिप्रिंट में राजनीतिक संपादक हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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